1925 में अलवर के नीमूचाणा गांव में दोहरे लगान के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे ग्रामीणों पर रियासत की फौज ने गोलियां चलाईं, जिसमें 250 से ज्यादा लोग मारे गए। इसे 'राजस्थान का जलियांवाला बाग' कहा जाता है।
Rajasthan: राजस्थान के अलवर जिले के नीमूचाणा गांव में 14 मई 1925 का दिन इतिहास में एक काले अध्याय के तौर पर दर्ज है। उस दिन शांतिपूर्ण तरीके से दोहरे लगान (Double Tax) और जमींदारी शोषण के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे ग्रामीणों पर अलवर रियासत की सेना ने बेरहमी से गोलियां बरसाईं। इस भयानक गोलीकांड में 250 से अधिक निर्दोष ग्रामीणों की जान चली गई थी।
यह घटना इतनी वीभत्स थी कि इसे 'राजस्थान का जलियांवाला बाग' कहा जाने लगा। आज भी गांव की हवेलियों और दीवारों पर गोलियों के निशान मौजूद हैं, जो उस दर्दनाक दिन की गवाही देते हैं।
दोहरे लगान और 'बेगा प्रथा' के खिलाफ आवाज उठी थी
उस समय किसानों पर दोहरा लगान और 'बेगा प्रथा' जैसी शोषणकारी व्यवस्थाओं का बोझ डाला जा रहा था। बेगा प्रथा के तहत किसानों को जबरन मुफ्त में रियासत के लिए मजदूरी करनी पड़ती थी। इससे परेशान ग्रामीणों ने शांतिपूर्ण ढंग से विरोध प्रदर्शन शुरू किया।
लेकिन अलवर रियासत ने किसानों की इस आवाज को कुचलने के लिए गांव को चारों ओर से घेर लिया और फायरिंग का आदेश दे दिया।
जब 250 से अधिक निर्दोष मारे गए और गांव को जलाया गया
गोलियों की बौछार से पूरा नीमूचाणा गांव कांप उठा। 250 से ज्यादा किसानों की मौके पर ही मौत हो गई और 100 से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हुए। इतना ही नहीं, गांव के 150 से अधिक घरों को आग के हवाले कर दिया गया। यहां तक कि मवेशियों तक को नहीं छोड़ा गया।
यह नरसंहार न केवल राजस्थान बल्कि पूरे देश के लिए एक बड़ा झटका था।
गांधीजी ने कहा ‘दूसरा जलियांवाला बाग’
नीमूचाणा कांड के बाद पूरे देश में रोष फैल गया। महात्मा गांधी ने इस घटना को 'दूसरा जलियांवाला बाग' करार दिया और 1926 के कानपुर कांग्रेस अधिवेशन में इसकी कड़ी निंदा की। सरदार वल्लभभाई पटेल ने भी मुंबई में एक सभा में इस नरसंहार पर तीखी प्रतिक्रिया दी।
देशभर में उठी आवाजों और जनता के भारी विरोध के चलते अलवर रियासत को दोहरा लगान वापस लेना पड़ा। साथ ही 'बेगा प्रथा' और अन्य अत्याचारी व्यवस्थाओं को भी समाप्त करना पड़ा।
नीमूचाणा बना किसान आंदोलन की मिसाल
नीमूचाणा गोलीकांड आजादी के आंदोलन में किसानों की कुर्बानी और संघर्ष की एक अहम मिसाल बन गया। यह सिर्फ एक गांव की नहीं, बल्कि पूरे भारत की उस आवाज की कहानी है, जिसने दमन और शोषण के खिलाफ डटकर मुकाबला किया।
नीमूचाणा की घटना ने साबित किया कि जब जनता एकजुट होकर अत्याचार के खिलाफ खड़ी होती है, तो सत्ता को झुकना ही पड़ता है।
आज भी बाकी हैं जख्म, स्मारक की मांग अधूरी
आज भी नीमूचाणा गांव की हवेलियों और दीवारों पर गोलियों के निशान देखे जा सकते हैं। हर साल 14 मई को गांववाले शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं और उस दिन को याद करते हैं।
लेकिन दुख की बात यह है कि सौ साल गुजर जाने के बावजूद इस ऐतिहासिक स्थल को 'राष्ट्रीय स्मारक' (National Monument) का दर्जा नहीं मिल सका है।
ग्रामीणों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कई बार सरकार से जलियांवाला बाग की तर्ज पर यहां शहीद स्मारक (Martyr Memorial) बनाने की मांग की, मगर हर बार सिर्फ आश्वासन ही मिला।