सुप्रीम कोर्ट में वक्फ संशोधन कानून 2025 पर सुनवाई हुई। एसजी तुषार मेहता ने कहा कि यह कानून मुस्लिम अधिकारों को कमजोर नहीं करता। हिंदू कोड बिल का उदाहरण देकर आरोपों का खंडन किया गया।
Waqf Amendment Act 2025: वक्फ संशोधन कानून 2025 को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही बहस ने देश में एक बार फिर से धार्मिक अधिकारों और संविधान की मूल भावना पर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस मामले की सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता ने अदालत को बताया कि यह कानून न तो अनुच्छेद 25 के खिलाफ है और न ही किसी धार्मिक समुदाय के अधिकारों को कमजोर करता है। उन्होंने खासतौर पर हिंदू कोड बिल का उदाहरण देते हुए कहा कि जब हिंदू कोड बिल लाया गया था, तब किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि मुसलमानों को क्यों छोड़ा गया।
वक्फ संशोधन कानून और विवाद
वक्फ संशोधन कानून 2025 के खिलाफ कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं। याचिकाकर्ता इस कानून को संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन बताते हुए इसका विरोध कर रहे हैं। अनुच्छेद 25 भारत के नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है। याचिकाकर्ता दावा कर रहे हैं कि इस कानून के जरिए मुस्लिम समुदाय के धार्मिक अधिकार कमजोर किए जा रहे हैं।
लेकिन केंद्र सरकार की ओर से इस मामले की सुनवाई में एसजी तुषार मेहता ने यह स्पष्ट किया कि इस कानून का मकसद मुस्लिम समुदाय के अधिकारों को कम करना नहीं है। उन्होंने बताया कि हिंदू कोड बिल के समय भी कई समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों में बदलाव किए गए थे, लेकिन उस समय किसी ने मुसलमानों के अधिकारों पर सवाल नहीं उठाया।
हिंदू कोड बिल का संदर्भ
1956 में लागू किया गया हिंदू कोड बिल भारतीय कानून में एक बड़ा बदलाव था। इस बिल ने हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों को संशोधित किया था। इसका मकसद था महिलाओं को विवाह, तलाक, संपत्ति और उत्तराधिकार में समान अधिकार देना। इसी दौरान कई पुराने कानूनों में बदलाव किए गए, जिससे सामाजिक और पारिवारिक संरचना में सुधार हुआ।
एसजी मेहता ने कोर्ट में बताया कि हिंदू कोड बिल लागू होने के बाद हिंदू समुदाय के कई अधिकार खत्म हो गए थे, लेकिन उस समय किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि मुसलमानों को क्यों नहीं छोड़ा गया। इस तर्क के जरिए केंद्र सरकार ने यह साबित करने की कोशिश की कि वक्फ संशोधन कानून भी मुस्लिम अधिकारों को कम करने के लिए नहीं बल्कि प्रशासनिक सुधार के लिए है।
वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिमों को शामिल करने पर बहस
वक्फ संशोधन कानून में एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिमों को भी शामिल किया जा सकता है। इसके खिलाफ भी याचिकाएं दायर की गई हैं। इस पर एसजी तुषार मेहता ने तमिलनाडु एंडोमेंट एक्ट का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि इस एक्ट में नियमों के उल्लंघन पर मठाधिपति को हटाने की व्यवस्था है। इसी तरह से वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिमों को शामिल करने का उद्देश्य बेहतर प्रशासन और पारदर्शिता सुनिश्चित करना है, न कि धार्मिक स्वतंत्रता को प्रभावित करना।
हिन्दू बंदोबस्ती और वक्फ में अंतर
एसजी तुषार मेहता ने हिन्दू बंदोबस्ती और वक्फ की तुलना करते हुए कहा कि हिन्दू बंदोबस्ती केवल धार्मिक कार्यों तक सीमित होती है। इसमें मंदिरों और धार्मिक स्थानों का प्रबंधन शामिल है। दूसरी ओर वक्फ एक व्यापक संस्था है जिसमें धार्मिक संगठनों के अलावा धर्मनिरपेक्ष संस्थान जैसे स्कूल, मदरसा, अनाथालय, धर्मशाला आदि भी शामिल हैं।
उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट एक्ट मंदिरों के प्रबंधन के लिए लागू है और इसमें चेयरमैन किसी भी धर्म का हो सकता है। लेकिन वक्फ के मामलों में ऐसी व्यवस्था नहीं है। यही कारण है कि वक्फ प्रशासन में सुधार की जरूरत थी, जो वक्फ संशोधन कानून के जरिए की जा रही है।
वक्फ में प्रशासनिक व्यवस्था
वक्फ संस्थानों में दो मुख्य अधिकारी होते हैं – सज्जादानशीन और मुतवल्ली। सज्जादानशीन आध्यात्मिक प्रमुख होते हैं जो धार्मिक गतिविधियों की देखरेख करते हैं। मुतवल्ली प्रशासक या मैनेजर होता है जो वक्फ की संपत्ति और प्रबंधन संभालता है।
तुषार मेहता ने बताया कि नया वक्फ संशोधन कानून सिर्फ प्रशासनिक सुधारों पर केंद्रित है और इसका आध्यात्मिक या धार्मिक मामलों से कोई लेना-देना नहीं है। इसका मकसद वक्फ संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन और पारदर्शिता लाना है।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की प्रक्रिया
5 अप्रैल 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी के बाद वक्फ संशोधन कानून लागू हो गया। इसके तुरंत बाद कई याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में इस कानून को चुनौती दी। 16 अप्रैल को पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की बेंच ने पहली सुनवाई की और तब तक वक्फ बोर्ड में नई नियुक्तियों पर रोक लगा दी।
इसके बाद मामला नए मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई की बेंच को ट्रांसफर कर दिया गया। 20 से 22 मई तक तीन दिन की सुनवाई हुई। पहले दिन याचिकाकर्ताओं ने अपनी दलीलें रखीं, जबकि 21 और 22 मई को केंद्र सरकार और अन्य राज्यों के वकीलों ने कानून का बचाव किया।