डाकिया की अनकही कहानी: एक चिट्ठी से जुड़े अनगिनत जज़्बात

🎧 Listen in Audio
0:00

गांव की पगडंडियों पर हर सुबह एक साइकिल की घंटी बजती थी। कर्मा चाचा की यह पहचान थी। गांव का हर बच्चा, हर बुजुर्ग, हर घर उन्हें जानता था। वे सिर्फ एक डाकिया नहीं, बल्कि गांव की आत्मा थे।

एक मासूम रिश्ता

गांव की छोटी बच्ची सुमन के लिए कर्मा चाचा किसी मामा से कम नहीं थे। हर सुबह जब वह स्कूल जाती, तो कर्मा चाचा उसे रोककर टॉफी दिया करते। वे हंसते हुए कहते, "मेरी बेटी आज पढ़ने जा रही है।" सुमन भी खुश होकर टॉफी लेती और स्कूल की ओर बढ़ जाती। कर्मा चाचा और सुमन का परिवार बहुत घनिष्ठ था। सुमन की मां उन्हें अपना भाई मानती थी और राखी भी बांधती थी। हर शाम, जब कर्मा चाचा डाक बांटकर लौटते, तो उनके ठहाके घर को रोशन कर देते।

त्याग और निःस्वार्थ प्रेम

एक दिन सुमन को तेज बुखार हो गया। मां परेशान थी। कर्मा चाचा को जब यह पता चला, तो उन्होंने बिना कुछ सोचे सुमन को साइकिल पर बैठाया और शहर के अस्पताल ले गए। 12 किलोमीटर की तपती धूप में साइकिल चलाते हुए वे अस्पताल पहुंचे और जब तक सुमन ठीक नहीं हुई, तब तक वहीं डटे रहे। इस दौरान उनकी अपनी डाक की नौकरी पर खतरा मंडराने लगा, लेकिन उन्हें सुमन की चिंता ज्यादा थी।

शादी और विदाई

समय बीता, सुमन बड़ी हो गई और उसकी शादी तय हो गई। शादी के हर काम में कर्मा चाचा ने पिता की तरह भाग लिया। उन्होंने डाकखाने से छुट्टी ली, भात की रस्म निभाई और विदाई के समय सुमन से छिपकर चले गए। उन्हें अपनी भांजी को रोते हुए देखना गवारा नहीं था।

दर्दनाक अंत

समय के साथ सुमन अपने ससुराल में व्यस्त हो गई। कुछ सालों बाद जब वह अपने बेटे के साथ गांव लौटी, तो कर्मा चाचा को ढूंढने डाकघर गई। लेकिन वहां कोई नया डाकिया बैठा था। जब उसने मां से पूछा, तो जो कहानी सामने आई, उसने उसे झकझोर दिया। गांव के जमींदार के पैसों की लूट का इल्जाम कर्मा चाचा पर लगा दिया गया। 

उनकी नौकरी चली गई, पेंशन भी बंद हो गई। अब वे गांव के मंदिर के पीछे, एक टूटी-फूटी खाट पर अपनी अंतिम सांसें गिन रहे थे।
सुमन भागते हुए वहां पहुंची, लेकिन कमजोर कर्मा चाचा ने उसे पास आने से मना कर दिया। "जा बेटी, मैं तो अब तुझे टॉफी भी नहीं दे सकता। मेरे पास आने की कोशिश भी मत करना।" यह कहकर वे मुंह फेरकर लेट गए।

सुमन रोती हुई घर लौट आई। कुछ ही दिनों बाद खबर आई कि कर्मा चाचा अब इस दुनिया में नहीं रहे। एक ऐसा इंसान, जिसने सारी जिंदगी लोगों की खुशियों की डाक बांटी, खुद गुमनामी में चला गया।

एक सीख

कर्मा चाचा जैसे निःस्वार्थ लोग समाज की रीढ़ होते हैं। हमें उनके योगदान को कभी नहीं भूलना चाहिए। यह कहानी सिर्फ एक डाकिये की नहीं, बल्कि इंसानियत के उस पहलू की है, जो हमें यह सिखाती है कि सच्चे रिश्ते खून से नहीं, दिल से बनते हैं।

Leave a comment