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Maharashtra Politics: उद्धव के साथ आ सकते हैं राज ठाकरे! महाराष्ट्र हित को बताया सर्वोपरि

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महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के प्रमुख राज ठाकरे के एक हालिया बयान ने राज्य की राजनीति में हलचल मचा दी है। फिल्म निर्देशक महेश मांजरेकर के साथ किए गए पॉडकास्ट में राज ठाकरे ने अपने चचेरे भाई और शिवसेना (यूबीटी) के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को लेकर एक बड़ा और साफ-साफ बयान दिया।

Raj Thackeray Uddhav Thackeray: महाराष्ट्र की राजनीति में एक नया मोड़ आ गया है। लंबे समय से अलग-अलग राहों पर चलने वाले ठाकरे बंधुओं में अब एक बार फिर एकता की संभावनाएँ नज़र आने लगी हैं। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के प्रमुख राज ठाकरे ने हाल ही में फिल्म निर्माता महेश मांजरेकर के साथ एक पॉडकास्ट के दौरान ऐसा बयान दिया, जिससे राज्य की राजनीति में एक नई बहस छिड़ गई है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि अगर महाराष्ट्र के हित में एकजुट होना पड़े, तो वे उद्धव ठाकरे के साथ आने के लिए तैयार हैं।

राज ठाकरे का बयान और उसका महत्व

राज ठाकरे ने कहा, महाराष्ट्र हित के सामने हमारे झगड़े और राजनीतिक मतभेद बहुत छोटे हैं। अगर महाराष्ट्र के भविष्य के लिए हमें साथ आना पड़े, तो मैं पूरी तरह तैयार हूं। यह सिर्फ मेरी इच्छा का नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के लोगों की जरूरत का विषय है।

उनका यह बयान ऐसे समय आया है, जब राज्य में राजनीतिक समीकरण लगातार बदल रहे हैं। राज ठाकरे के इस विचार ने न केवल एमएनएस और शिवसेना (यूबीटी) के संभावित मेल की चर्चा शुरू कर दी है, बल्कि राज्य में आगामी बीएमसी चुनावों से पहले विपक्षी गठबंधन की तस्वीर भी बदलने के संकेत दिए हैं।

2006 का ऐतिहासिक विभाजन

यह उल्लेखनीय है कि 2006 में राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की स्थापना की थी। उस समय उनका मुख्य गुस्सा उद्धव ठाकरे को पार्टी में मिल रही प्राथमिकता को लेकर था। उन्होंने आरोप लगाया था कि शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे ने उद्धव को उत्तराधिकारी बनाने का निर्णय लेकर अन्य नेताओं की अनदेखी की। इसी नाराजगी के चलते राज ठाकरे ने अपनी राह अलग कर ली।

राज ठाकरे का अब तक का राजनीतिक सफर

एमएनएस की शुरुआत ज़ोरदार रही, खासकर मुंबई और पुणे जैसे शहरी इलाकों में मराठी मतदाताओं का समर्थन उन्हें मिला। लेकिन धीरे-धीरे पार्टी का प्रभाव कम होता गया। 2014 और 2019 के विधानसभा चुनावों में एमएनएस को कोई खास सफलता नहीं मिली। 2024 के लोकसभा चुनाव में राज ठाकरे ने बीजेपी का समर्थन किया, लेकिन विधानसभा चुनावों में अकेले उतरने का फैसला लिया। 135 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए, परंतु एक भी सीट जीतने में नाकाम रहे।

मराठी अस्मिता और राज ठाकरे का रुख

राज ठाकरे हमेशा से मराठी भाषा और संस्कृति के पक्षधर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने हिंदी को महाराष्ट्र के प्राथमिक स्कूलों में अनिवार्य बनाने के फैसले का विरोध किया। उनका कहना था कि मराठी बच्चों पर हिंदी थोपना उचित नहीं है। एमएनएस कार्यकर्ताओं द्वारा गैर-मराठी लोगों से जबरन मराठी बुलवाने की घटनाओं से यह स्पष्ट है कि पार्टी अब भी अपने पारंपरिक मराठी अस्मिता के एजेंडे को बनाए हुए है।

राजनीतिक समीकरणों की नई संभावनाएं

राज ठाकरे का यह बयान ऐसे समय आया है, जब महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी (एमवीए) और एनडीए के बीच राजनीतिक संघर्ष तेज हो रहा है। एमवीए में शिवसेना (यूबीटी), कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार गुट) शामिल हैं, जबकि बीजेपी, एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी एनडीए का हिस्सा हैं।

राज ठाकरे की हालिया मुलाकात उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से भी चर्चा में रही। हालांकि शिंदे ने इसे सामान्य शिष्टाचार मुलाकात बताया, पर राजनीतिक गलियारों में इसके निहितार्थ तलाशे जाने लगे हैं। अब जब राज ठाकरे उद्धव ठाकरे के साथ आने की बात कह रहे हैं, तो इससे न केवल एमवीए को मजबूती मिल सकती है, बल्कि बीएमसी चुनावों में बीजेपी और एनडीए के खिलाफ एक मजबूत मराठी चेहरा खड़ा हो सकता है।

क्या होगा बीएमसी चुनावों में?

मुंबई महानगरपालिका चुनावों की तैयारी शुरू हो चुकी है। यह चुनाव शिवसेना की प्रतिष्ठा का सवाल होते हैं, क्योंकि दशकों से यहां शिवसेना का दबदबा रहा है। अगर राज और उद्धव ठाकरे साथ आते हैं, तो यह बीएमसी में बीजेपी के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकती है।

अब बड़ा सवाल यही है कि क्या राज ठाकरे केवल बयान देकर रह जाएंगे या वाकई में कोई ठोस कदम भी उठाएंगे। क्या उद्धव ठाकरे इस बयान का सकारात्मक जवाब देंगे? और सबसे अहम – क्या मराठी मतदाता इस नए समीकरण को स्वीकार करेगा?

राजनीति में स्थायित्व या अवसरवाद?

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि इस तरह की बयानबाजी का एक उद्देश्य आगामी चुनावों से पहले पार्टी की प्रासंगिकता बनाए रखना भी हो सकता है। जहां एक ओर यह महाराष्ट्र के हित की बात लगती है, वहीं कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह सिर्फ सत्ता समीकरणों में एमएनएस को जगह दिलवाने की रणनीति भी हो सकती है।

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