19वीं सदी का भारत, जहां महिलाओं की शिक्षा को तवज्जो नहीं दी जाती थी, वहीं एक लड़की ने समाज की रूढ़ियों को तोड़कर वो कर दिखाया, जो तब किसी ने सोचा भी नहीं था। आनंदी गोपाल जोशी, भारत की पहली महिला डॉक्टर बनीं, लेकिन उनकी यह यात्रा आसान नहीं थी। बाल विवाह, मातृत्व की त्रासदी, समाज का विरोध और फिर मेडिकल की पढ़ाई, आनंदीबाई की कहानी सिर्फ एक उपलब्धि नहीं, बल्कि एक प्रेरणादायक संघर्ष की मिसाल है।
बाल विवाह, मातृत्व और शिक्षा का संघर्ष
31 मार्च 1865 को पुणे के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी आनंदीबाई का बचपन आम बच्चों जैसा नहीं था। महज 9 साल की उम्र में उनकी शादी 25 वर्षीय गोपालराव जोशी से कर दी गई। समाज में यह सामान्य माना जाता था, लेकिन आनंदीबाई के जीवन में यह एक बड़ा मोड़ साबित हुआ।14 साल की उम्र में उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया, लेकिन 10 दिन के भीतर ही उसकी मृत्यु हो गई। इस त्रासदी ने आनंदीबाई को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने तय किया कि वे डॉक्टर बनेंगी ताकि भविष्य में ऐसी दुखद घटनाओं को रोका जा सके। हालांकि, समाज का माहौल उनके खिलाफ था।
समाज के ताने, कलकत्ता की शिक्षा और अमेरिका तक का सफर
उस समय महिलाओं की शिक्षा को तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता था। आलोचनाएं आम थीं, "लड़की होकर डॉक्टर बनेगी? पागल हो गई है?" लेकिन आनंदीबाई ने इन बाधाओं को अपने संकल्प के आड़े नहीं आने दिया। उनके पति गोपालराव जोशी, जो खुद एक प्रगतिशील सोच रखते थे, उनकी शिक्षा के सबसे बड़े समर्थक बने। पहले उन्होंने आनंदीबाई को कलकत्ता भेजा, जहां उन्होंने संस्कृत और अंग्रेजी सीखी।
इसके बाद, 1880 में, गोपालराव ने अमेरिकी मिशनरी रॉयल वाइल्डर को पत्र लिखकर अमेरिका में मेडिकल शिक्षा की संभावनाओं के बारे में जानकारी मांगी।
इसका परिणाम यह हुआ कि आनंदीबाई ने अमेरिका के पेंसिल्वेनिया महिला मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया और 1886 में मात्र 19 साल की उम्र में एमडी (डॉक्टर ऑफ मेडिसिन) की डिग्री प्राप्त की। इस उपलब्धि के साथ, वे भारत की पहली महिला डॉक्टर बनीं।
भारत वापसी और असमय निधन
एमडी की डिग्री प्राप्त करने के बाद जब आनंदीबाई भारत लौटीं, तो उनका भव्य स्वागत किया गया। उन्हें कोल्हापुर के अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल में महिला वार्ड की प्रभारी चिकित्सक के रूप में नियुक्त किया गया।
लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। टीबी (क्षय रोग) की बीमारी ने धीरे-धीरे उनकी सेहत को खराब कर दिया। उस समय इस बीमारी का कोई प्रभावी इलाज नहीं था।
22 साल की उम्र में, 26 फरवरी 1887 को, भारत की पहली महिला डॉक्टर का निधन हो गया।
यह विडंबना ही थी कि जो महिला दूसरों की जान बचाने के लिए डॉक्टर बनी थी, वह खुद अपनी बीमारी से लड़ते हुए दुनिया छोड़ गई।
सम्मान और विरासत
• शुक्र ग्रह पर स्थित एक गड्ढे का नाम "जोशी क्रेटर" रखा गया।
• लखनऊ स्थित "इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च एंड डॉक्यूमेंटेशन इन सोशल साइंसेज" उनके नाम से चिकित्सा विज्ञान के लिए पुरस्कार प्रदान करता है।
• 1888 में, कैरोलिन वेल्स ने उनके जीवन पर एक जीवनी लिखी।
• उनके जीवन पर एक टेलीविजन सीरियल भी बनाया गया।
एक प्रेरणा जो हमेशा जीवित रहेगी
आनंदीबाई जोशी की कहानी सिर्फ एक ऐतिहासिक उपलब्धि नहीं, बल्कि महिला शिक्षा और सशक्तिकरण की दिशा में पहला बड़ा कदम था। उन्होंने यह साबित कर दिया कि अगर इरादा मजबूत हो, तो कोई भी समाज, कोई भी बाधा, किसी भी लड़की को उसके सपनों से दूर नहीं कर सकती। आज, जब हम उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद कर रहे हैं, तो यह सिर्फ एक श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि एक प्रेरणा भी है कि अगर आनंदीबाई 19वीं सदी में यह कर सकती थीं, तो आज की लड़कियां क्या नहीं कर सकतीं?