मुंशी प्रेमचंद की अनमोल कहानी : भ्रम The priceless story of Munshi Premchand: Illusion
दोस्तों, हमारा देश सदियों से ही ऋषि मुनियों, कवियों, साहित्यकारों, और संगीतकारों आदि जैसे गुणों से भरपूर महापुरुषों की जन्म और कर्मभूमि रहा है। इन महापुरुषों द्वारा रचित हजारों रचनाये अनमोल है।
आज की युवापीढ़ी इस डिजिटल युग में मानों कही खोई जा रही है और हम अपने धरोहर और अनमोल खजाने से कोसों दूर होते जा रहे हैं। subkuz.com की कोशिश है की हम इन अनमोल खजानो के साथ साथ मनोरंजन कहानियां, समाचार, और देश विदेश की जानकारियां भी आप तक पहुचायें।
यहाँ प्रस्तुत है आपके सामने मुंशी प्रेमचंद्र द्वारा रचित ऐसी ही एक अनमोल कहानी जिसका शीर्षक है।
* भ्रम Illusion
वृजरानी की विदाई के पश्चात सुवामा का घर ऐसा सूना हो गया, मानो पिंजरे से सुआ उड़ गया। वह इस घर का दीपक और शरीर की प्राण थी। घर वही है, पर चारों ओर उदासी छायी हुई है। रहने वाला वे ही है। पर सबके मुख मलिन और नेत्र ज्योतिहीन हो रहे है। वाटिका वही है, पर ऋतु पतझड़ की है। विदाई के एक मास पश्चात्र मुंशी संजीवनलाल भी तीर्थयात्र करने चले गये। धन-संपत्ति सब प्रताप को समर्पित कर दी। अपने सग मृगछाला, भगवद् गीता और कुछ पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ न ले गये।
प्रताचन्द्र की प्रेमाकांक्षा बड़ी प्रबल थीं पर इसके साथ ही उसे दमन की असीम शक्ति भी प्राप्त थी। घर की एक-एक वस्तु उसे विरजन का स्मरण कराती रहती थी। यह विचार एक क्षण के लिए भी दूर न होता था यदि विरजन मेरी होती, तो ऐसे सुख से जीवन व्यतीत होता। परन्तु विचार को वह हटाता रहता था। पढ़ने बैठता तो पुस्तक खुली रहती और ध्यान अन्यत्र जा पहुंचता। भोजन करने बैठता तो विरजन का चित्र नेत्रों में फिरने लगता। प्रेमाग्नि को दमन की शक्ति से दबाते-दबाते उसकी अवस्था ऐसी हो गयी, मानो वर्षों का रोगी है प्रेमियों को अपनी अभिलाषा पूरी होने की आशा हो या न हो, परन्तु वे मन-ही-मन अपनी प्रेमिकाओं से मिलने का आनन्द उठाते रहते है। वे भाव-संसार मे अपने प्रेम-पात्र से वार्तालाप करते है, उसे छोड़ते है, उससे रुठते है, उसे मनाते है और इन कथाओं में उन्हें तृप्ति होती है और मन को एक सुखद और रसमय कार्य मिल जाता है। परन्तु यदि कोई शक्ति उन्हें इस भावोद्यान की सैर करने से रोके, यदि कोई शक्ति ध्यान में भी उस प्रियतम का चित्र न देखने दे, तो उन अभागों प्रेमियों की क्या दशा होगी? प्रताप इन्ही अभागों में था। इसमें संदेह नहीं कि यदि वह चाहता तो सुखद भावों का आनन्द भोग सकता था। भाव-संसार का भ्रमण अतीव सुखमय होता है, पर कठिनता तो यह थी कि वह विरजन का ध्यान भी कुत्सित वासनाओं से पवित्र रखना चाहता था। उसकी शिक्षा ऐसे पवित्र नियमों से हुई थी और उसे ऐसे पवित्रत्माओं और नीतिपरायण मनुष्यों की संगति से लाभ उठाने क अवसर मिले थे कि उसकी दृष्टि में विचार की पवित्र्ता की भी उतनी ही प्रतिष्ठा थी जितनी आचार की पवित्रता की।
यह कब संभव था कि वह विरजन को-जिसे कई बार बहिन कह चुका था और जिसे अब भी बहिन समझने का प्रयत्न करता रहता था- ध्यानावस्था में भी ऐसे भावों का केंद्र बनाता, जो कुवासनाओं से भले ही शुद्व हो, पर मन की दूषित आवेगों से मुक्त नहीं हो सकते थे जब तक मुन्शीजी संजीवनलाल विद्यमान थे, उनका कुछ-न-कुछ समय उनके संग ज्ञान और धर्म-चर्चा में कट जाता था, जिससे आत्मा को संतोष होता था! परन्तु उनके चले जाने के पश्चात आत्म-सुधार का यह अवसर भी जाता रहा।
सुवामा उसे यों मलिन-मन पाती तो उसे बहुत दु:ख होता। एक दिन उसने कहा- यदि तुम्हारा चित्त न लगता हो, प्रयाग चले जाओ वहाँ शायद तुम्हारा जी लग जाए। यह विचार प्रताप के मन में भी कई बार उत्पन्न हुआ था, परन्तु इस भय से कि माता को यहां अकेले रहने में कष्ट होगा, उसने इस पर कुछ ध्यान नहीं दिया था। माता का आदेश पाकर इरादा पक्का हो गया। यात्रा की तैयारियां करने लगा, प्रस्थान का दिन निश्चित हो गया। अब सुवामा की यह दशा है कि जब देखिए, प्रताप को परदेश में रहने-सहने की शिक्षाएं दे रही है-बेटा, देखों किसी से झगड़ा मत मोल लेना। झगड़ने की तुम्हारी वैसे भी आदत नहीं है, परन्तु समझा देती हूँ। परदेश की बात है फूंक-फूंककर पग धरना। खाने-पीने में असंयम न करना। तुम्हारी यह बुरी आदत है कि जाड़ों में सांयकाल ही सो जाते हो, फिर कोई कितना ही बुलाये पर जागते ही नहीं। यह स्वभाव परदेश में भी बना रहे तो तुम्हें सांझ का भोजन काहे को मिलेगा? दिन को थोड़ी देर के लिए सो लिया करना। तुम्हारी आंखों में तो दिन को जैसे नींद नहीं आती।
उसे जब अवकाश मिला, बेटे को ऐसी समयोचित शिक्षाएं दिया करती। निदान प्रस्थान का दिन आ ही गया। गाड़ी दस बजे दिन को छूटती थी। प्रताप ने सोचा- विरजन से भेंट कर लूं। परदेश जा रहा हूँ। फिर न जाने कब भेंट हो। चित को उत्सुक किया। माता से कह बैठा। सुवामा बहुत प्रसन्न हुई। सुवामा बहुत प्रसन्न हुई। एक थाल में मोदक समोसे और दो-तीन प्रकार के मुरब्बे रखकर रधियाको दिये कि लल्लू के संग जा। प्रताप ने बाल बनवाये, कपड़े बदले। चलने को तो चला, पर ज्यों-ज्यों पग आगे उठाता है, दिल बैठा जाता है। भांति-भांति के विचार आ रहे है। विरजन न जाने क्या मन में समझे, क्या सन समझे। चार महीने बीत गये, उसने एक चिट्ठी भी तो मुझें अलग से नहीं लिखी। फिर क्योंकर कहूं कि मेरे मिलने से उसे प्रसन्नता होगी। अजी, अब उसे तुम्हारी चिन्ता ही क्या है? तुम मर भी जाओ तो वह आंसू न बहाये। यहां की बात और थी। वह अवश्य उसकी आँखों में खटकेगा। कहीं यह न समझे कि लालाजी बन-ठनकर मुझे रिझाने आये है। इसी सोच-विचार में गढ़ता चला जाता था। यहाँ तक कि श्यामाचरण का मकान दिखाई देने लगा। कमला मैदान टहल रहा था उसे देखते ही प्रताप की वह दशा हो गई कि जो किसी चोर की दशा सिपाही को देखकर होती है झट एक घर कर आड़ में छिप गया और रधिया से बोला- तू जा, ये वस्तुएँ दे आ। मैं कुछ काम से बाजार जा रहा हूँ। लौटता हुआ जाऊँगा। यह कह कर बाजार की ओर चला, परन्तु केवल दस ही डग चला होेगा कि फिर महरी को बुलाया और बोला- मुझे शायद देर हो जाय, इसलिए न आ सकूँगा। कुछ पूछे तो यह चिट्ठी दे देना, कहकर जेब से पेन्सिल निकाली और कुछ पंक्तियां लिखकर दे दी, जिससे उसके हृदय की दशा का भली-भंति परिचय मिलता है।
“मैं आज प्रयाग जा रहा हूँ, अब वहीं पढूंगा। जल्दी के कारण तुमसे नहीं मिल सका। जीवित रहूँगा तो फिर आऊँगा। कभी-कभी अपने कुशल-क्षेम की सूचना देती रहना।
तुम्हारा
प्रताप”
प्रताप तो यह पत्र देकर चलता हुआ, रधिया धीरे-धीरे विरजन के घर पहुँची। वह इसे देखते ही दौड़ी और कुशल-क्षेम पूछने लगी-लाला की कोई चिट्ठी आयी थी?
रधिया- जब से गये, चिट्ठी-पत्र कुछ भी नहीं आयी।
विरजन- चाची तो सूख से है?
रधिया– लल्लू बाबू प्रयागराज जात है तीन तनिक उदास रहत है।
विरजन – (चौंककर) लल्लू प्रयाग जा रहे है।
रधिया – हां, हम सब बहुत समझाया कि परदेश मां कहां जैहो। मुदा कोऊ की सनुत है?
विरजन – कब जायेंगे?
रधीया – आज दस बजे की ट्रेन से जवय्या है। तुसे भेंट करन आवत रहेन, तवन दुवारि पर आइ के लवट गयेन।
विरजन – यहं तक आकर लौट गये। द्वार पर कोई था कि नहीं?
रधीया – द्वार पर कहां आये, सड़क पर से चले गये।
विरजन – कुछ कहा नहीं, क्यां लौटा जाता हूं?
रधीया – कुछ कहा नहीं, इतना बोले कि ‘हमार टेम छहिट जहै, तौन हम जाइत है।’
विरजन ने घड़ी पर दृष्टि डाली, आठ बजने वाले थे। प्रेमवती के पास जाकर बोली – माता! लल्लू आज प्रयाग जा रहे है, दि आप कहें तो उनसे मिलती आऊं। फिर न जाने कब मिलना हो, कब न हो। महरी कहती है कि बस मुझसेमिलने आते थे, पर सड़क के उसी पार से लौट गये।
प्रेमवती – अभी न बाल गुंथवाये, न मांग भरवायी, न कपड़े बदले बस जाने को तैयार हो गयी।
विरजन – मेरी अम्मां! आज जाने दीजिए। बाल गुंथवाने बैठूंगी तो दस यहीं बज जायेंगे।
प्रेमवती – अच्छा, तो जाओ, पर संध्या तक लौट आना। गाड़ी तैयार करवा लो, मेरी ओर से सुवामा को पालगन कह देना।
विरजन ने कपड़े बदले, माधवी को बाहर दौड़ाया कि गाड़ी तैयार करने के लिए कहो और तब तक कुछ ध्यान न आया। रधीया से पूछा – कुछ चिट्टी-पत्र नहीं दी?
रधिया ने पत्र निकालकर दे दिया। विरजन ने उसे हर्ष सेलिया, परन्तु उसे पढ़ते ही उसका मुख कुम्हला गया। सोचने लगी कि वह द्वार तक आकर क्यों लौट गये और पत्र भी लिखा तो ऐसा उखड़ा और अस्पष्ट। ऐसी कौन जल्दी थी? क्या गाड़ी के नौकर थे, दिनभर में अधिक नहीं तो पांच – छ: गाडियां जाती होंगी। क्या मुझसे मिलने के लिए उन्हे दो घंटों का विलम्ब भी असहय हो गया? अवश्य इसमें कुछ-न-कुछ भेद है। मुझसे क्या अपराध हुआ? अचानक उसे उस सय का ध्यान आया, जब वह अति व्याकुल हो प्रताप के पास गयी थी और उसके मुख से निकला था, ‘लल्लू मुझसे कैसे सहा जायेगा!’
विरजन को अब से पहिले कई बार ध्यान आ चुका कि मेरा उस समय उस दशा में जाना बहुत अनुचित था। परन्तु विश्वास हो गया कि मैं अवश्य लल्लू की दृष्टि से गिर गयी। मेरा प्रेम और मन अब उनके चित्त में नहीं है। एक ठण्डी सांस लेकर बैठ गयी और माधवी से बोली – कोचवान से कह दो, अब गाड़ी न तैयार करें। मैं न जाऊंगी।
ऐसी ही प्रेरणादायक, ज्ञानवर्धक कहानियां पढ़ते रहिये subkuz.com पर।