मुंशी प्रेमचंद की प्रेरक कहानी : शेख मखगूर Inspirational story of Munshi Premchand: Sheikh Makhgur
दोस्तों, हमारा देश सदियों से ही ऋषि मुनियों, कवियों, साहित्यकारों, और संगीतकारों, आदि जैसे गुणों से भरपूर महापुरुषों की जन्म और कर्मभूमि रहा है। इन महापुरुषों द्वारा रचित हजारों रचनाये अनमोल है।
आज की युवापीढ़ी इस डिजिटल युग में मानों कही खोई जा रही है और हम अपने धरोहर और अनमोल खजाने से कोसों दूर होते जा रहे हैं। subkuz.com की कोशिश है की हम इन अनमोल खजानो के साथ साथ मनोरंजन कहानियां, समाचार, और देश विदेश की जानकारियां भी आप तक पहुचायें।
यहाँ प्रस्तुत है आपके सामने मुंशी प्रेमचंद्र द्वारा रचित ऐसी ही एक अनमोल कहानी जिसका शीर्षक है।
* शेख मखगूर
मुल्के जन्नतनिशॉँ के इतिहास में वह अँधेरा वक्त था जब शाह किशवर की फतहों की बाढ़ बड़े जोर-शोर के साथ उस पर आयी। सारा देश तबाह हो गया। आजादी की इमारतें ढह गयीं और जानोमाल के लाले पड़ गए। शाह बामुराद खूब जी तोड़कर लड़ा, खूब बहादुरी का सबूत दिया और अपने खानदान के तीन लाख सूरमाओं को अपने देश पर चढ़ा दिया मगर विजेता की पत्थर काट देनेवाली तलवार के मुकाबले में उसकी यह मर्दाना जॉँबाजियॉँ बेअसर साबित हुईं। मुल्क पर शाह किशवरकुशा की हुकूमत का सिक्का जम गया और शाह बामुराद अकेला तनहा बेयारो मददगार अपना सब कुछ आजादी के नाम पर कुर्बान करके एक झोंपड़ें में जिन्दगी बसर करने लगा।
यह झोंपड़ा पहाड़ी इलाके में था। आस-पास जंगली कौमें आबाद थीं और दूर-दूर तक पहाड़ों के सिलसिले नजर आते थे। इस सुनसान जगह में शाह बामुराद मुसीबत के दिन काटने लगा। दुनिया में अब उसका कोई दोस्त न था। वह दिन भर आबादी से दूर एक चट्टान पर अपने ख्याल में मस्त बैठा रहता था। लोग समझते थे कि यह कोई ब्रह्मज्ञान के नशे में चूर सूफी है। शाह बामुराद को यों बसर करते एक जमाना बीत गया और जवानी की विदाई और बुढ़ापे के स्वागत की तैयारियाँ होने लगी।
तब एक रोज शाह बामुराद बस्ती के सरदार के पास गया और उससे कहा-मै। अपनी शादी करना चाहता हूँ। उसकी तरफ से पैगाम सुनकर वह अचम्भे में आ गया। मगर चूँकि दिल में शाह साहब के कमाल और फकीरी मे गहरा विश्वास रखता था, पलटकर जवाब न दे सका और अपनी कुँआरी नौजवान बेटी उनको भेंट की। तीसरे साल इस युवती की कामनाओं की वाटिका में एक नौरस पौधा उगा। शाह साहब खुशी के मारे जामे में फूले न समाये। बच्चे को गोद में उठा लिया और हैरत में डूबी हुई मॉँ के सामने जोश-भरे लहजे में बोले—‘खुदा का शुक्र है कि मुल्के जन्नतनिशॉँ का वारिस पैदा हुआ।’
बच्चा बढ़ने लगा। अक्ल और जहानत में, हिम्मत और ताकत में, वह अपनी दुगनी उमर के बच्चों से बढ़कर था। सुबह होते ही गरीब रिन्दा बच्चे का बनाव-सिंगार करके और उसे नाश्ता खिलाकर अपने काम-धन्धों मे लग जाती थी और शाह साहब बच्चे की उँगली पकड़कर उसे आबादी से दूर चट्टान पर ले जाते। वहॉँ कभी उसे पढ़ाते, कभी हथियार चलाने की मश्क कराते और कभी उसे शाही कायदे समझाते। बच्चा था तो कमसिन, मगर इन बातों में ऐसा जी लगाता और ऐसे चाव से लगा रहता गोया उसे अपना वंश का हाल मालूम है। मिजाज भी बादशाहों जैसा था। गांव का एक-एक लड़का उसके हुक्म का फरमाबरदार था। मॉँ उस पर गर्व करती, बाप फूला न समाता और सारे गॉँव के लोग समझते कि यह शाह साहब के जप-तप का असर है।
बच्चा मसऊद देखते-देखते एक सात साल का नौजवान शहजादा हो गया। देखकर देखनेवाले के दिल को एक नशा-सा होता था। एक रोज शाम का वक्त था, शाह साहब अकेले सैर करने गये और जब लौटे तो उनके सर पर एक जड़ाऊ ताज शोभा दे रहा था। रिन्दा उनकी यह हुलिया देकर सहम गयी और मुँह से कुछ न बोल सकी। तब उन्होंने नौजवान मसऊद को गले से लगाया, उसी वक्त उसे नहलाया-धुलाया और जब लौटे और एक चट्टान के तख्त पर बैठाकर दर्द-भरे लहजे में बोले-मसऊद, मैं आज तुमसे रूखसत होता हूँ और तुम्हारी अमानत तुम्हें सौंपता हूँ। यह उसी मुल्के जन्नतनिशॉँ का ताज है। कोई वह जमाना था कि यह ताज तुम्हारे बदनसीब बाप के सर पर जेब देता था, अब वह तुम्हें मुबारक हो। रिन्दा! प्यारी बीवी! तेरा बदकिस्मत शौहर किसी जमाने में इस मुल्क का बादशाह था और अब तू उसकी मलिका है। मैंने यह राज तुमसे अब तक छिपाया था, मगर हमारे अलग होने का वक्त बहुत पास है। अब छिपाकर क्या करूँ। मसऊद, तुम अभी बच्चे हो, मगर दिलेर और समझदार हो।
मुझे यकीन है कि तुम अपने बूढ़े बाप की आखिरी वसीयत पर ध्यान दोगे और उस पर अमल करने की कोशिश करोगे। यह मुल्क तुम्हारा है, यह ताज तुम्हारा है और यह रिआया तुम्हारी है। तुम इन्हें अपने कब्जे में लाने की मरते दम तक कोशिश करते रहना और अगर तुम्हारी तमाम कोशिशें नाकाम हो जायें और तुम्हें भी यही बेसरोसामानी की मौत नसीब हो तो यहीं वसीयत तुम अपने बेटे से कर देना और यह ताज, जो उसकी अमानत होगी, उसके सुपुर्द करना। मुझे तुमसे और कुछ नहीं कहना है। खुदा तुम दोनों को खुशोखुर्रम रखे और तुम्हें मुराद को पहुँचाये।
यह कहते-कहते शाह साहब की आँखें बन्द हो गयीं। रिन्दा दौड़कर उनके पैरों से लिपट गयी और मसऊद रोने लगा। दूसरे दिन सुबह को गॉँव के लोग जमा हुए और एक पहाड़ी गुफा की गोद में लाश रख दी।
शाह किशवरकुशा ने आधी सदी तक खूब इन्साफ के साथ राज किया मगर किशवरकुशा दोयम ने सिंहासन पर आते ही अपने अक्लमन्द बाप के मंत्रियों को एक सिरे से बर्खास्त कर दिया और अपनी मर्जी के मुआफिक नये-नये वजीर और सलाहकार नियुक्त किये। सल्तनत का काम रोज-ब-रोज बिगड़ने लगा। सरदारों ने बेइन्साफी पर कमर बॉँधी और हुक्काम रिआया पर जोर-जबर्दस्तरी करने लगे। यहॉँ तक कि खानदाने मुरादिया के एक पुराने नमकखोर ने मौका अच्छा देखकर बगावत का झंडा बुलन्द कर दिया। आसपास से लोग उसके झंडे के नीचे जमा होने वाले और कुछ ही हफ्तों में एक बड़ी फौज कायम हो गयी और मसऊद भी नमकखोर सरदार की फौज में आकर मामूली सिपाहियों का काम करने लगा।
मसऊद का अभी यौवन का आरम्भ था। दिल में मर्दाना जोश और बाजुओं मे शेरों की कूवत मौजूद थी। ऐसा लम्बा-तड़ंगा, सुन्दर नौजवान बहुत कम किसी ने देखा होगा। शेरों के शिकार का उसे इश्क था। दूर-दूर तक के जंगल दरिन्दों से खाली हो गये। सवेरे से शाम तक सैरो-शिकार के सिवा कोई धंधा न था। लबोलहजा ऐसा दिलकश पाया था कि जिस वक्त मस्ती में आकर कोई कौमी गीत छेड़ देता तो राह चलते मुसाफिरों और पहाड़ी औरतों का टट लग जाता था। कितने ही भोले-भाले दिलों पर उसकी मोहिनी सूरत नक्श थी, कितनी ही आँखें उसे देखने को तरसती और कितनी ही जानें उसकी मुहब्बत की आग में घुलती थीं। मगर मसऊद पर अभी तक किसी का जादू न चला था। हाँ, अगर उसे मुहब्बत थी तो अपनी आबदार शमशीर से जो उसने बाप से विरसे में पायी थी। इस तेग को वह जान से ज्यादा प्यार करता। बेचारा खुद नंगे बदन रहता मगर उसके लिए तरह-तरह के मियान बनवाये थे। उसे एक दम के लिए अपने पहलू से अलग न करता।
सच है दिलेर सिपाही की तलवार उसकी निगाहों में दुनिया की तमाम चीजों से ज्यादा प्यारी होती है। खासकर वह आबदार खंजर जिसका जौहर बहुत-से मौकों पर परखा जा चुका हो। इसी तेग से मसऊद ने कितने ही जंगली दरिन्दों को मारा था, कितने ही लुटेरों और डाकुओं को मौत का मजा चखाया था और उसे पूरा यकीन था कि यही तलवार किसी दिन किशवरकुशा दोयम के सर पर चमकेगी और उसकी शहरग के खून से अपनी जबान तर करेगी।
एक रोज वह एक शेर का पीछा करते-करते बहुत दूर निकल गया। धूप सख्त थी, भूख और प्यास से जी बेताब हुआ, मगर वहॉँ न कोई मेवे का दरख्त नजर आया न कोई बहता हुआ पानी का सोता जिससे भूख और प्यास की आग बुझाता। हैरान और परेशान खड़ा था। सामने से एक चांद जैसी सुन्दर युवती हाथ में बर्छी लिए और बिजली की तरह तेज घोड़े पर सवार आती हुई दिखाई दी। पसीने की मोती जैसी बूँदें माथे पर झलक रही थीं और अम्बर की सुगन्ध में बसे हुए बाल दोनों कंधों पर एक सुहानी बेतकल्लुफी से बिखरे हुए थे। दोनों की निगाहें चार हुईं और मसऊद का दिल हाथ से जाता रहा। उस गरीब ने आज तक दुनिया को जला डालने वाला ऐसा हुस्न न देखा था, उसके ऊपर एक सकता-सा छा गया। यह जवान औरत उस जंगल मे मलिका शेर अफ़गान के नाम से मशहूर थी।
मलिका ने मसऊद को देखकर घोड़े की बाग खींच ली और गर्म लहजे में बोली—क्या तू वही नौजवान है, जो मेरे इलाके के शेरों का शिकार किया करता है?, बतला तेरी इस गुस्ताखी की क्या सजा दूँ?
यह सुनते ही मसऊद की आंखें लाल हो गयीं और बरबस हाथ तलवार की मूठ पर जा पहुँचा मगर जब्त करके बोला-इस सवाल का जवाब खूब देता, अगर आपके बजाय यह किसी दिलेर मर्द की जबान से निकलता!
इन शब्दों ने मलिका के गुस्से की आग का और भी भड़का दिया। उसने घोड़े को चमकाया और बर्छी उछालती सर पर आ पहुँची और वार पर वार करने शुरू किये। मसऊद के हाथ-पॉँव बेहद थकान से चूर हो रहे थे। और मलिका शेर-अफगन बर्छी चलाने की कला में बेजोड़ थी। उसने चरके पर चरके लगाये, यहॉँ तक कि मसऊद घायल होकर घोड़े से गिर पड़ा। उसने अब तक मलिका के वारों को काटने के सिवाय खुद एक हाथ भी न चलाया था।
तब मलिका घोड़े से कूदी और अपना रुमाल फाड़-फाड़कर मसऊद के जख्म बॉँधने लगी। ऐसा दिलेर और गैरतमन्द जवॉँमर्द उसकी नजर से आज तक न गुजरा था। वह उसे बहुत आराम से उठवाकर अपने खेमे में लायी और पूरे दो हफ्ते तक उसकी परिचर्या में लगी रही। यहॉँ तक कि घाव भर गया और मसऊद का चेहरा फिर पूरनमासी के चॉँद की तरह चमकने लगा। मगर हसरत यह थी कि अब मलिका ने उसके पास आना-जाना छोड़ दिया।
एक रोज मलिका शेर अफगान ने मसऊद को दरबार मे बुलाया और यह बोली- ऐ घमण्डी नौजवान! खुदा का शुक्र है कि तू मेरी बर्छी की चोट से अच्छा हो गया, अब मेरे इलाके से जा, तेरी गुस्ताखी माफ करती हूँ। मगर आइन्दा मेरे इलाके मे शिकार के लिए आने की हिम्मत न करना। फिलहाल ताकीद के तौर पर तेरी तलवार छीन ली जाएगी। ताकि तू घंमड के नशे से चूर होकर फिर इधर कदम बढ़ाने की हिम्मत न करे।
मसऊद ने नंगी तलवार मियान से खींच ली और कड़ककर बोला—जब तक मेरे दम में दम हैं, कोई यह तलवार मुझसे नहीं ले सकता। यह सुनते ही एक देव जैसा लम्बा तगड़ा हैकल पहलवान ललकार कर बढ़ा और मसऊद की कलाई पर तेगे का तुला हुआ हाथ चलाया। मसऊद ने वार खाली दिया और सम्हलकर तेगे का वार किया तो पहलवान की गर्दन की पट्टी तक बाकी न रही। यह कैफियत देखते ही मलिका की आंखों से चिनगारियां उड़ने लगीं। भयानक गुस्से के स्वर में बोली—खबरदार, यह शख्स यहॉँ से जिन्दा न जाने पावे। चारों तरफ से आजमाये हुए मजबूत सिपाही पिल पड़े और मसऊद पर तलवारों और बर्छियों की बौछार पड़ने लगी।
मसऊद का जिस्म जख्मों से छलनी हो गया। खून के फव्वारे जारी थे और खून की प्यासी तलवारें जबान खोले बार-बार उसकी तरफ लपकती थीं और उसका खून चाटकर अपनी प्यास बुझा लेती थीं। कितनी ही तलवारें उसकी ढाल से टकराकर टूट गयीं, कितने ही बहादुर सिपाही जख्मी होकर तड़पने लगे और कितने ही उस दुनिया को सिधारे। मगर मसऊद के हाथ में वह आबदार शमशीर ज्यों की त्यों बिजली की तरह कौंधती और सुथराव करती रही। यहॉँ तक कि इस फन के कमाल को समझने वाली मलिका ने खुद उसकी तारीफ का नारा बुलन्द किया। और उस तेग को चूमकर बोली—मसऊद! तू बहादुरी के समन्दर का मगर है। शेरों के शिकार में वक्त बर्बाद मत कर। दुनिया में शिकार के अलावा और भी ऐसे मौंके हैं जहां तू अपने आबदार तेग का जौहर दिखा सकता है। जा और मुल्कोकौम की खिदमत कर। सैरोशिकार हम जैसी औरतों के लिए छोड़ दे।
मसऊद के दिल ने गुदगुदाया, प्यार की बानी जबान तक आयी मगर बाहर निकल न सकी और उसी वक्त वह अपने दिल में किसी की पलकों की टीस लिये हुए तीन हफ्तों के बाद अपनी बेकरार मां के कदमों पर जा गिरा।
नमकखोर सरदार की फौज रोज ब रोज बढ़ने लगी। पहले तो वह अंधेरे के पर्दे में शाही खजानों पर हाथ बढ़ाता रहा, धीरे-धीरे एक बाकायदा फौज तैयार हो गयी, यहॉँ तक कि सरदार को शाही फौजों के मुकाबले में अपनी तलवार आजमाने का हौसला हुआ, और पहली लड़ाई में चौबीस किले इस नयी फौज के हाथ आ गये। शाही फौज ने लड़ने में जरा भी कसर न की। मगर वह ताकत, वह जोश, वह जज्बा, जो सरदार नमकखोर और उसके दोस्तों के दिलों को हिम्मत के मैदान में आगे बढ़ाता रहता था, किशवरकुशा दोयम के सिपाहियों में गायब था। लड़ाई के कलाकौशल, हथियारों की खूबी और ऊपर दिखाई पड़ने वाली शान-शौकत के लिहाज से दोनों फौजों का कोई मुकाबला न था।
बादशाह के सिपाही लहीम-शहीम, लम्बे-तड़ंगे और आजमाये हुए थे। उनके साज-सामान और तौर-तरीके से देखने वालों के दिलों पर एक डर-सा छा जाता था और वहम भी यह गुमान न कर सकता था कि इस जबर्दस्त जमात के मुकाबले में निहस्थी-सी, अधनंगी और बेकायदा सरदारी फौज एक पल के लिए भी पैर जमा सकेगी। मगर जिस वक्त ‘मारो’ की दिल बढ़ानेवाली पुकार हवा में गूंजी, एक अजीबोगरीब नजारा सामने आया। सरदार के सिपाही तो नारे मारकर आगे धावा करते थे और बादशाह की फौज भागने की राह पर दबी हुई निगाहें डालती थी। दम के दम में मोर्चे गुबार की तरह फट गए और जब मस्कात के मजबूत किले में सरदार नमकखोर शाही किलेदार की मसनद पर अमीराना ठाट-बाट से बैठा और अपनी फौज की कारगुजारियों और जॉँबाजियों का इनाम देने के लिए एक तश्त में सोने के तमंगे मँगवाकर रखे तो सबसे पहले जिस सिपाही का नाम पुकारा गया वह नौजवान मसऊद था।
मसऊद पर इस वक्त उसकी फौज घमंड करती थी। लड़ाई के मैदान में सबसे पहले उसी की तलवार चमकती थी और धावे के वक्त सबसे पहले उसी के कदम उठाते थे। दुश्मन के मोर्चों में ऐसा बेधड़क घुसता था जैसे आसमान में चमकता हुआ लाल तारा। उसकी तलवार के वार कयामत थे और उसके तीर का निशाना मौत का संदेश।
मगर टेढ़ी चाल की तकदीर से उसका यह प्रताप, यह प्रतिष्ठा न देखी गई। कुछ थोड़े-से आजमाये हुए अफसर, जिनके तेगों की चमक मसऊद के तेग के सामने मन्द पड़ गई थी, उससे खार खाने लगे और उसे मिटा देने की तदबीरें सोचने लगे। संयोग से उन्हें मौका भी जल्द हाथ आ गया। किशवरकुशा दोयम ने बागियों को कुचलने के लिए अब की एक जबर्दस्त फौज रवाना की और मीर शुजा को उसका सिपहसालार बनाया जो लड़ाई के मैदान में अपने वक्त का इसफंदियार था। सरदार नमकखोर ने यह खबर पायी तो हाथ-पांव फूल गये।
मीर शुजा के मुकाबले में आना अपनी हार को बुलाना था। आखिरकार यह राय तय पायी कि इस जगह से आबादी का निशान मिटाकर हम लोग किलेबन्द हो जाएं। उस वक्त नौजवान मसऊद ने उठकर बड़े पुरजोश लहजे में कहा:
‘नहीं, हम किलेबंद न होंगे, हम मैदान में रहेंगे और हाथोंहाथ दुश्मन का मुकाबला करेंगे। हमारे सीनों की हड्डियां ऐसी कमजोर नहीं हैं कि तीर-तुपुक के निशाने बर्दाश्त न कर सकें। किलेबन्द होना इस बात का ऐलान है कि हम आमने-सामने नहीं लड़ सकते। क्या आप लोग, जो शाह बामुराद के नामलेवा हैं, भूल गये कि इसी मुल्क पर उसने अपने खानदान के तीन लाख सपूतों को फूल की तरह चढ़ा दिया? नहीं, हम हरगिज किलेबन्द न होंगे। हम दुश्मन के मुकाबले में ताल ठोंककर आयेंगे और अगर खुदा इन्साफ करने वाला है तो जरूर हमारी तलवारें दुश्मनों से गले मिलेंगी और हमारी बर्छियां उनके पहलू में जगह पायेंगी।‘
सैंकड़ों निगाहे मसऊद के पुरजोश चेहरे की तरफ उठ गयी। सरदारों की त्योरियों पर बल पड़ गये और सिपाहियों के सीने जोश से धड़कने लगे। सरदार नमकखोर ने उसे गले से लगा लिया और बोले-मसऊद, तेरी हिम्मत और हौसले की दाद देता हूँ। तू हमारी फौज की शान है। तेरी सलाह मर्दाना सलाह है। बेशक हम किलेबंद न होंगे। हम दुश्मन के मुकाबले में ताल ठोंककर आयेंगे और अपने प्यारे जन्नतनिशॉँ के लिए अपना खून पानी की तरह बहायेंगे। तू हमारे लिए आगे-आगे चलनेवाली मशाल है और हम सब आज इसी रोशनी में कदम आगे बढ़ायेंगे।
मसऊद ने चुने हुए सिपाहियों का एक दस्ता तैयार किया और कुछ इस दमखम और कुछ इस जोशखरोश से मीर शुजा पर टूटा कि उसकी सारी फौज में खलबली पड़ गयी। सरदार नमकखोर ने जब देखा कि शाही फौज के कदम डगमगा रहे हैं, तो अपनी पूरी ताकत से बादल और बिजली की तरह लपका और तेगों से तेगें और बर्छियों से बर्छियॉँ खड़कने लगीं। तीन घंटे तक बला का शोर मचा रहा, यहॉँ तक कि शाही फौज के कदम उखड़ गये और वह सिपाही जिसकी तलवार मीर शुजा से गले मिली मसऊद था।
तब सरदारी फौज और अफसर सब के सब लूट के माल पर टूटे और मसऊद जख्मों से चूर और खून में रँगा हूआ अपने कुछ जान पर खेलनेवाले दस्तों के साथ मस्कात के किले की तरफ लौटा मगर जब होश ने आंखें खोलीं और हवास ठिकाने हुए तो क्या देखता है कि वह एक सजे हुए कमरे में मखमली गद्दे पर लेटा हुआ है। फूलों की सुहानी महक और लम्बी छरहरी सुन्दरियों के जमघट से कमरा चमन बना हुआ था। ताज्जुब से इधर-उधर ताकने लगा कि इतने में एक अप्सरा-जैसी सुन्दर युवती तश्त में फूलों का हार लिये धीरे-धीरे आती हुई दिखायी दी कि जैसे बहार फूलों की डाली पेश करने आ रही है। उसे देखते ही उन लंबी छरहरी सुन्दरियों ने आंखें बिछायीं और उसकी हिनाई हथेली को चूमा। मसऊद देखते ही पहचान गया। यह मलिका शेर अफगान थी।
मलिका ने फूलों का हार मसऊद के गले में डाला। हीरे-जवाहरात उस पर चढ़ाये और सोने के तारों से टँकी हुई मसनद पर बड़ी आन-बान से बैठ गयी। साजिन्दों ने बीन ले-लेकर विजयी अतिथि के स्वागत में सुहागे राग अलापने शुरू किये।
यहॉँ तो नाच-गाने की महफिल थी, उधर आपसी डाह ने नये-नये शिगूफे खिलाये। सरदार ने शिकायत की कि मसऊद जरूर दुश्मन से जा मिला है और आज जान-बूझकर फौज का एक दस्ता लेकर लड़ने को गया था ताकि उसे खाक और खून में सुलाकर सरदारी फौज को बेचिराग कर दे। इसके सबूत में कुछ जाली खत भी दिखाये गये और इस कमीनी कोशिश में जबान की ऐसी चालाकी ने काम लिया कि आखिर सरदार को इन बातों पर यकीन आ गया। पौ फटे जब मसऊद मलिका शेर अफगन के दरबार से विजय का हार गले में डाले सरदार को बधाई देने गया तो बजाय इसके कि कद्रदानी का सिरोपा और बहादुरी का तमगा पाये, उसकी खरी-खोटी बातों के तीर का निशाना बनाया गया और हुक्म मिला कि तलवार कमर से खोलकर रख दे।
मसऊद स्तम्भित रह गया। ये तेगा मैंने अपने बाप से विरसे में पाया है और यह मेरे पिछले बड़प्पन कि आखिरी यादगार है। यह मेरी बॉँहों की ताकत और मेरा सहयोगी और मददगार है। इसके साथ कैसी स्मृतियां जुड़ी हुई है, क्या मैं जीते जी इसे अपने पहलू से अलग कर दूँ? अगर मुझ पर कोई आदमी लड़ाई के मैदान से कदम हटाने का इलजाम लगा सकता, अगर कोई शख्त इस तेगे का इस्तेमाल मेरे मुकाबिले में ज्यादा कारगुजारी के साथ कर सकता, अगर मेरी बॉँहों में तेग पकड़ने की ताकत न होती तो खुदा की कसम, मैं खुद ही तेगा कमर से खोलकर रख देता। मगर खुदा का शुक्र है कि मैं इन इल्जामों से बरी हूँ। फिर क्यों मैं इसे हाथ से जाने दूँ? क्या इसलिए कि मेरी बुराई चाहनेवाले कुछ थोड़-से डाहियों ने सरदार नमकखोर का मन मेरी तरफ से फेर दिया है? ऐसा नहीं हो सकता।
मगर फिर उसे ख्याल आया, मेरी सरकशी पर सरदार और भी गुस्सा हो जायेंगे और यकीनन मुझे तलवार शमशीर के जोर से छीन ली जायेगी। ऐसी हालत में मेरे ऊपर जान छिड़कनेवाले सिपाही कब अपने को काबू में रख सकेंगे। जरूर आपस में खून की नदियॉँ बहेंगी और भाई-भाई का सिर कटेगा। खुदा न करे कि मेरे सबब से यह दर्दनाक मार-काट हो। यह सोचकर उसने चुपके से शमशीर सदरार नमकखोर के बगल में रख दी और खुद सर नीचा किये जब्त की इन्तहाई कुवत से गुस्से को दबाता हुआ खेमे से बाहर निकल आया।
मसऊद पर सारी फौज गर्व करती थी और उस पर जानें वारने के लिए हथेली में लिये रहती थी। जिस वक्त उसने तलवार खोली है, दो हजार सूरमा सिपाही मियान पर हाथ रक्खे और शोले बरसाती हुई आँखों से ताकते कनौतियॉँ बदल रहे थे। मसऊद के एक जरा-से इशारे की देर थी और दम के दम में लाशों के ढेर लग जाते। मगर मसऊद बहादुरी ही में बेजोड़ न था, जब्त और धीरज में भी उसका जवाब न था। उसने यह जिल्लत और बदनामी सब गवार की, तलवार देना गवारा किया, बगावत का इलजाम लेना गवारा किया और अपने साथियों के सामने सर झुकाना गवारा किया मगर यह गवारा न किया कि उसके कारण फौज में बगावत और हुक्म न मानने का ख्याल पैदा हो और ऐसे नाजुक वक्त में जबकि कितने ही दिलेर, जिन्होंने लड़ाई की आजमाइश में अपनी बहादुरी का सबूत दिया था, जब्त हाथ से खो बैठते और गुस्से की हालत में एक-दूसरे के गले काटते, खामोश रहा और उसके पैर नहीं डगमगाये। उसकी बहादुरी का सबूत दिया। उसकी परेशानी पर जरा भी बल न आया, उसके तेवर जरा भी न बदले। उसने खून बरसाती हुई आँखों से दोस्तों को अलविदा कहा और हसरत भरा दिल लिये उठा और एक गुफा में छिप बैठा और जब सूरज डूबने पर वहॉँ से उठा तो उसके दिल ने फैसला कर लिया था कि बदनामी का दाग माथे से मिटाऊँगा और डाहियों को शर्मिन्दगी के गड्ढे में गिराऊँगा।
मसऊद ने फकीरों का भेष अख्तियार किया, सर पर लोहे की टोपी के बजाय लम्बी जटाएं बनायीं, जिस्म पर जिरहबख्तर के बजाय गेरुए रंगा का बाना सजा हाथ में तलवार के बजाय फकीरों का प्याला लिया। जंग के नारे के बजाय फकीरों की सदा बुलन्द की ओर अपना नाम शेख मखमूर रख दिया। मगर यह जोगी दूसरे जोगियों की तरह धूनी रमाकर न बैठा और न उस तरह का प्रचार शुरू किया। वह दुश्मन की फौज में जाता और सिपाहियों की बातें सुनता। कभी उनकी मोर्चेबन्दियों पर निगाह दौड़ाता, कभी उनके दमदमों और किलों की दीवारों का मुआइना करता। तीन बार सरदार नमकखोर दुश्मन के पंजे से ऐसे वक्त निकले जबकि उन्हें जान बचने की कोई आस न रही थी। और यह सब शेख मखमूर की करामात थी। मिनकाद का किला जीतना कोई आसान बात न थी। पाँच हजार बहादुर सिपाही उसकी हिफाजत के लिए कुर्बान होने को तैयार बैठे थे। तीस तोपें आग के गोले उगलने के लिये मुंह खोले हुए थी और दो हजार सधे हुए तीरन्दाज हाथों में मौत का पैगाम लिये हुए हुक्म का इन्तजार कर रहे थे। मगर जिस वक्त सरदार नमकखोर अपने दो हजार बहादुरों के साथ इस किले पर चढ़ा हो गये और तीरन्दाजों के तीर हवा में उड़ने लगे। और वह सब शेख मखमूर की करामात थी। शाह साहब वहीं मौजूद थे। सरदार दौड़कर उनके कदमों पर गिर पड़ा और उनके पैरों की धुल माथे पर लगायी।
किशवरकुशा दोयम का दरवार सजा हुआ है। अंगूरी शराब का दौर चल रहा है और दरबार के बड़े-बड़े अमीर और रईस अपने दर्जे के हिसाब से अदब के साथ घुटना मोड़े बैठे है। यकायक भेदियों ने खबर दी कि मीर शुजा की हार हुई और जान से मारे गये। यह सुनकर किशवरकुशा के चेहरे पर चिन्ता दिलेर कौन है जो इस बदमाश सरदार का सर कलम करके हमारे सामने पेश करे। इसकी गुस्ताखियॉँ अब हद से आगे बढ़ी जाती है। आप ही लोगों के बड़े-बूढ़ों ने यह मुल्क तलवार के जोर से मुरादिया खानदान से छीना था। क्या आप उन्हीं पूरखों की औलाद नही है? यह सुनते ही सरदारों में एक सन्नाटा छा गया, सबके चेहरे पर हवाइयॉँ उड़ने लगीं और किसी की हिम्मत न पड़ी कि बादशाह की दावत कबूल करे। आखिरकार शाह किशवरकुशा के बुड्ढे चचा खुद उठे और बोले-ऐ शाह जवॉँबख्त! मैं तेरी दावत कबूल करता हूँ, अगरचे मैं बुड्ढा हो गया हूँ और बाजुओं में तलवार पकड़ने की ताकत बाकी नहीं रही, मगर मेरे खून में वही गर्मी और दिल में वही जोश है जिसकी बदौलत हमने यह मुल्क शाह बामुराद से लिया था। या तो मैं इस नापाक कुत्ते की हस्ती खाक में मिला दूँगा या इस कोशिश में अपनी जान निसार कर दूँगा, ताकि अपनी ऑंखों से सल्तनत की बर्बादी न देखूँ। यह कहकर अमीर पुरतदबीर वहॉँ से उठा और मुस्तैदी से जंगी तैयारियों में लग गया।
उसे मालूम था कि यह आखिरी मुकाबिला है और अगर इसमें नाकाम रहे तो मर जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। उधर सरदार नमकखोर धीरे-धीरे राजधानी की तरफ बढ़ता आता था, यकायक उसे खबर मिली कि अमीर पुरतदबीर बीस हजार पैदल और सवारों के साथ मुकाबिले के लिए आ रहा है।
यह सुनते ही सरदार नमकखोर की हिम्मतें छुट गयी। अमीर पुरतदबीर बुढ़ापे के बावजूद अपने वक्त का एक ही सिपहसालार था। उसका नाम सुनकर बड़े-बड़े बहादुर कानों पर हाथ रख लेते थे। सरदार नमकखोर का खयाल था कि अमीर कहीं एक कोने में बैठे खुदा की इबादत करते होंगे। मगर उनको अपने मुकाबिले में देखकर उसके होश उड़ गये कि कहीं ऐसा न हो कि इस हार से हम अपनी सारी जीत खो बैठें और बरसों की मेहनत पर पानी फिर जाय। सबकी यही सलाह हुई कि वापस चलना ही ठीक है। उस वक्त शेख मखमूर ने कहा-ऐ सरदार नमकखोर ! तूने मुल्के जन्नतनिशॉँ को छुटकारा दिलाने का बीड़ा उठाया है। क्या इन्हीं हिम्मतों से तेरी आरजुएँ पूरी होंगी? तेरे सरदार और सिपाहियों ने कभी मैदान से कदम पीछे नहीं हटाया, कभी पीठ नहीं दिखायी, तीरों की बौछार को तुमने पानी की फुहार समझा और बन्दूकों की बाढ़ को फूलों की बहार। क्या इन चीजों से इतनी जल्दी तुम्हारा जी भर गया? तुमने यह लड़ाई सल्तनत को बढ़ाने के कमीने इरादे से नहीं छेड़ी है। तुम सच्चाई और इन्साफ की लड़ाई लड़ रहे हो। क्या तुम्हारा जोश इतनी जल्द ठंडा हो गया? क्या तुम्हारी इंसाफ की तलवार की प्यास इतनी जल्द बुझ गयी? तुम खूब जानते हो कि इंसाफ और सच्चाई की जीत जरूर होगी, तुम्हारी इन बहादुरियों का इनाम खुदा के दरबार से जरूर मिलेगा। फिर अभी से क्यों हौसले छोड़े देते हो? क्या बात है, अगर अमीर पुरतदबीर बड़ा दिलेर और इरादे का पक्का सिपाही है? अगर वह शेर है तो तुम शेर मर्द हो; अगर उसकी तलवार लोहे की है तो तुम्हारा तेगा फौलाद का है; अगर उसके सिपाही जान पर खेलनेवाले हैं तो तुम्हारे सिपाही भी सर कटाने के लिए तैयार हैं। हाथों में तेगा मजबूत पकड़ो और खुदा का नाम लेकर दुश्मन पर टूट पड़ो। तुम्हारे तेवर कहे देते हैं कि मैदान तुम्हारा है।
इस पुरजोश, तकरीर ने सरदारों के हौसले उभार दिये। उनकी आंखें लाल हो गईं, तलवारें पहलू बदलने लगीं और कदम बरबस लड़ाई के मैदान की तरफ बढ़े। शेख मखमूर ने तब फकीरी बाना उतार फेंका, फकीरी प्याले को सलाम किया और हाथों में वही तलवार और ढाल लेकर, जो किसी वक्त मसऊद से छीन गये थे, सरदार नमकखोर के साथ-साथ सिपाहियों और अफसरों का दिल बढ़ाते शेरों की तरह बिफरता हुआ चला। आधी रात का वक्त था, अमीर के सिपाही अभी मंजिलें मारे चले आते थे। बेचारे दम भी न लेने पाये थे कि एकाएक सरदार नमकखोर के आ पहुँचने की खबर पाई। होश उड़ गये और हिम्मतें टूट गईं। मगर अमीर शेर की तरह गरजकर खेमे से बाहर आया और दम के दम में अपनी सारी फौज दुश्मन के मुकाबले में कतार बॉँधकर खड़ी कर दी कि जैसे माली था कि आया और इधर-उधर बिखरे हुए फूलों को एक गुलदस्ते में सजा गया।
दोनों फौजें काले-काले पहाड़ों की तरह आमने-सामने खड़ी है। और तोपों का आग बरसाना ज्वालामुखी का दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। उनकी धनगरज आवाज से बला का शोर मच रहा था। यह पहाड़ धीरे धीरे आगे बढ़ते गये। यकायक वह टकराये और कुछ इस जोर से टकराये कि जमीन कॉँप उठी और घमासान की लड़ाई शुरू हो गई। मसऊद का तेगा इस वक्त एक बला हो रहा था, जिधर पहुँचता लाशों के ढेर लग जाते और सैकड़ों सर उस पर भेंट चढ़ जाते।
पौ फटे तक तेगे यों ही खड़का किये और यों ही खून का दरिया बहता रहा। जब दिन निकला तो लड़ाई का मैदान मौत का बाजार हो रहा था। जिधर निगाह उठती थी, मरे हुओं के सर और हाथ-पैर लहू में तैरते दिखाई देते थे। यकायक शेख मखमूर की कमान से एक तीर बिजली बनकर निकला और अमीर पुरतबीर की जान के घोंसले पर गिरा और उसके गिरते ही शाही फौज भाग निकली और सरदारी फौज फतेह का झण्डा उठाये राजधानी की तरफ बढ़ी।
जब यह जीत की लहर-जैसी फौज शहर की दीवार के अन्दर दाखिल हुई तो शहर के मर्द और औरत, जो बड़ी मुद्दत से गुलामी की सख्तियॉँ झेल रहे थे, उसकी अगवानी के लिए निकल पड़े। सारा शहर उमड़ आया। लोग सिपाहियों को गले लगाते थे और उन पर फूलों की बरखा करते थे कि जैसे बुलबुलें थीं जो बहेलिये के पंजे से रिहाई पाने पर बाग में फूलों को चूम रही थीं। लोग शेख मखमूर के पैरों की धूल माथे से लगाते थे और सरदार नमकखोर के पैरों पर खुशी के ऑंसू बहाते थे।
अब मौका था कि मसऊद अपना जोगिया भेस उतार फेंके और ताजोतख्त का दावा पेश करे। मगर जब उसने देखा कि मलिका शेर अफगन का नाम हर आदमी की जबान पर है तो खामोश हो रहा। वह खूब जानता था कि अगर मैं अपने दावे को साबित कर दूँ तो मलिका का दावा खत्म हो जायेगा। मगर तब भी यह नामुमकीन था कि सख्त मारकाट के बिना यह फैसला हो सके। एक पुरजोश और आरजूमन्द दिल के लिए इस हद जब्त करना मामूली बात न थी। जब से उसने होश संभाला, यह ख्याल कि मैं इस मुल्क का बादशाह हूँ, उसके रगरेशे में घुल गया था। शाह बामुराद की वसीयत उसे एक दम को भी न भूलती थी। दिन को यह बादशाहत के मनसूबे बाँधता और रात को बादशाहत के सपने देखता। यह यकीन कि मैं बादशाह हूँ उसे बादशाह बनाये हुए था। अफसोस, आज वह मंसूबे टूट गये और वह सपना तितर बितर हो गया। मगर मसऊद के चरित्र में मर्दाना जब्त अपनी हद पर पहुँच गया था। उसने उफ तक न की, एक ठंडी आह भी न भरी, बल्कि पहला आदमी, जिसने मलिका के हाथों को चूमा और उसको सामने सर झुकाया, वह फकीर मखमूर था। हॉँ, ठीक उस वक्त जब जोकि वह मलिका के हाथ को चूम रहा था, उसकी जिन्दगी भर की लालसाएं आँसू की एक बूँद बनकर मलिका की मेंहदी-रची हथेली पर गिर पड़ी कि जैसे मसऊद ने अपनी लालसा का मोती मलिका को सौंप दिया। मलिका ने हाथ खींच लिया और फकीर मखमूर के चेहरे पर मुहब्बत से भरी हुई निगाह डाली। जब सल्तनत के सब दरबारी भेंट दे चुके, तोपों की सलामियॉँ दगने लगीं, शहर में धूमधाम का बाजार गर्म हो गया और खुशियों के जलसे चारों तरफ नजर आने लगे।
राजगद्दी के तीसरे दिन मसऊद खुदा की इबादत में बैठा हुआ था कि मलिका शेर अफगान अकेले उसके पास आयी और बोली, मसऊद, मैं एक नाचीज तोहफा तुम्हारे लिए लायी हूँ और वह मेरा दिल है। क्या तुम उसे मेरे हाथ से कबूल करोगे? मसऊद अचम्भे से ताकता रह गया, मगर जब मलिका की आँखें मुहब्बत के नशे में डूबी हुई पायी तो चाव के मारे उठा और उसे सीने से लगाकर बोला—मैं तो मुद्दत से तुम्हारी बर्छी की नोक का घायल हूँ, मेरी किस्मत है कि आज तुम मरहम रखने आयी हो।
मुल्के जन्नतनिशॉँ अब आजादी और खुशहाली का घर है। मलिका शेर अफगान को अभी गद्दी पर बैठे साल भर से ज्यादा नहीं गुजरा मगर सल्तनत का कारबार बहुत अच्छी तरह और खूबी से चल रहा है और इस बड़े काम में उसका प्यारा शौहर मसऊद, जो अभी तक फकीर मखमूर के नाम से मशहूर है, उसका सलाहकार और मददगार है।
रात का वक्त था, शाही दरबार सजा हुआ था, बड़े-बड़े वजीर अपने पद के अनुसार बैठे हुए थे और नौकर जर्क-बर्क वर्दियॉँ पहने हाथ बॉँधे खड़े थे कि एक खिदमतगार ने आकर अर्ज की-दोनों जहान की मलिका, एक गरीब औरत बाहर खड़ी है और आपके कदमों का बोसा लेने की गुजारिश करती है। दरबारी चौंके और मलिका ने ताज्जुब-भरे लहजे में कहा- अन्दर हाजिर करो। खिदमतगार बाहर चला गया और जरा देर में एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आयी और अपनी पिटारी से एक जड़ाऊ ताज निकालकर बोली तुम लोग इसे ले लो, अब यह मेरे किसी काम का नहीं रहा। मियॉँ ने मरते वक्त इसे मसऊद को देकर कहा था कि तुम इसके मालिक हो, मगर अपने जिगर के टुकड़े मसऊद को ढूँढूँ? रोते-रोते अंधी हो गयी, सारी दुनिया की खाक छानी, मगर उसका कहीं पता न लगा। अब जिंदगी से तंग आ गयी हूँ, जीकर क्या करूँगी? यह अमानत मेरे पास है, जिसका जी चाहे ले लो।
दरबार में सन्नाटा छा गया। लोग हैरत के मारे मूरत बन गये, कि जैसे एक जादूगर था जो उँगली के इशारे से सबका दम बन्द किए हुआ था। यकाएक मसऊद अपनी जगह से उठा और रोता हुआ जाकर रिन्दा के पैरों पर गिर पड़ा। रिन्दा अपने जिगर के टुकड़े को देखते ही पहचान गयी; उसे छाती से लगा लिया और वह जड़ाऊ ताज उसके सर पर रखकर बोली—साहबो, यही प्यारा मसऊद और शाहे बासुराद का बेटा है, तुम लोग इसकी रिआया हो, यह ताज इसका है, यह मुल्क इसका है और सारी खिलकत इसकी है। आज से वह अपने मुल्क का बादशाह है, अपनी कौम का खादिम।
दरबार में कयामत का शोर मचने लगा, दरबारी उठे और मसऊद को हाथों-हाथ ले जाकर तख्त पर मलिका शेर अफगन के बगल में बिठा दिया। भेंटें दी जाने लगीं, सलामियॉँ दगने लगीं, नफीरियों ने खुशी का गीत गाया और बाजों ने जीत का शोर मचाया। मगर जब जोश की यह खुशी जरा कम हुई और लोगों ने रिन्दा को देखा तो वह मर गयी थी। आरजुओं के पूरे होते ही जान निकल गयी। गोया आरजुऍं रूह बनकर उसके मिट्टी के तन को जिन्दा रखे हुए थी।
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