Lachit Diwas 2024: लाचित बोरफुकन की वीरता को सलाम, असम के योद्धा की विरासत और योगदान का महत्व

Lachit Diwas 2024: लाचित बोरफुकन की वीरता को सलाम, असम के योद्धा की विरासत और योगदान का महत्व
Last Updated: 1 घंटा पहले

हर साल 24 नवंबर को असम और पूरे देश में लाचित दिवस मनाया जाता है। यह दिन असम के बहादुर सेनापति लाचित बोरफुकन की जयंती को समर्पित है। लाचित बोरफुकन 17वीं शताब्दी के अहोम साम्राज्य के सेनापति थे, जिन्होंने अपनी अद्वितीय रणनीति और साहस से मुगल सेना को हराया था। उनकी वीरता और देशभक्ति आज भी असम के गौरवशाली इतिहास का हिस्सा हैं।

लाचित बोरफुकन का जीवन परिचय

लाचित बोरफुकन का जन्म 24 नवंबर, 1622 को हुआ था। वे असम के ताई-अहोम समुदाय से थे। उनके पिता मोमाई तमुली बरबरुआ एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और अहोम साम्राज्य में ऊंचे पद पर थे। लाचित ने बचपन से ही शास्त्र, मानविकी और सैन्य कौशल में गहरी रुचि दिखाई। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्हें अहोम राजा चक्रध्वज सिंह के दरबार में सोलधर बरुआ (ध्वजवाहक) का पद मिला।

अपनी बुद्धिमत्ता और कर्तव्यनिष्ठा के चलते, लाचित को घोड़ बरुआ (शाही घुड़साल के प्रभारी), सिमुलगढ़ किले के प्रमुख और शाही रक्षक दल के प्रमुख जैसे महत्वपूर्ण पद सौंपे गए। राजा चक्रध्वज सिंह ने लाचित बोरफुकन को गुवाहाटी को मुगलों के चंगुल से मुक्त कराने की जिम्मेदारी दी।

सराईघाट की लड़ाई: वीरता की मिसाल

1671 में हुई सराईघाट की लड़ाई लाचित बोरफुकन की सबसे बड़ी विजय मानी जाती है। यह युद्ध असम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था।

मुगल सेना, जिसका नेतृत्व राम सिंह कर रहे थे, असम पर कब्जा करने के इरादे से 30,000 पैदल सैनिकों, 15,000 तीरंदाजों, 18,000 घुड़सवारों, और हजारों तोपों के साथ ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते गुवाहाटी की ओर बढ़ी। उनके पास नौकाओं का विशाल बेड़ा भी था।

लाचित बोरफुकन और उनकी सेना ने मुगलों का डटकर मुकाबला किया। एक बार, जब असमिया सैनिक कमजोर पड़ने लगे और युद्ध छोड़ने की तैयारी करने लगे, तो लाचित ने अपनी गंभीर बीमारी के बावजूद एक नाव में बैठकर सैनिकों का नेतृत्व किया। उन्होंने कहा, "यदि आप भागना चाहते हैं, तो भाग जाएं। लेकिन मैं अपने महाराज के आदेश का पालन करूंगा और आखिरी सांस तक लड़ूंगा।"

उनकी इस बात से सैनिकों का हौसला बढ़ा, और उन्होंने मुगलों को हराने के लिए पूरी ताकत लगा दी। आखिरकार, लाचित बोरफुकन की रणनीति और साहस के चलते मुगल सेना को पीछे हटना पड़ा।

मुगल सेनापति राम सिंह ने लाचित की वीरता का सम्मान करते हुए लिखा,

"मैं, राम सिंह, असमिया सेनापति लाचित बोरफुकन की वीरता और उनकी सेना की बहादुरी को सलाम करता हूं।"

लाचित बोरफुकन की मृत्यु और विरासत

सराईघाट की विजय के कुछ महीनों बाद, 1672 में लाचित बोरफुकन का बीमारी के कारण निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार जोरहाट के पास हूलुंगपारा में किया गया, जहां आज उनका स्मारक बना हुआ है।

लाचित बोरफुकन की कोई तस्वीर उपलब्ध नहीं है, लेकिन इतिवृत्तों में उनका वर्णन किया गया है: "उनका चेहरा पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह चमकता था। उनकी आँखों में इतनी ताकत थी कि कोई भी उन्हें सीधे देख नहीं सकता था।"

लाचित दिवस का महत्व

लाचित दिवस असम और भारत के लिए वीरता, देशभक्ति और नेतृत्व का प्रतीक है। यह दिन न केवल लाचित बोरफुकन की बहादुरी को याद करने का अवसर है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करने का भी एक जरिया है।

राष्ट्रीय सम्मान

लाचित बोरफुकन की स्मृति में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) में हर साल सर्वश्रेष्ठ कैडेट को "लाचित मेडल" से सम्मानित किया जाता है। यह मेडल युवाओं को उनकी निष्ठा और समर्पण के लिए प्रोत्साहित करता है।

लाचित बोरफुकन का संदेश

लाचित बोरफुकन का जीवन हमें सिखाता है कि अपने कर्तव्यों का पालन पूरी ईमानदारी और साहस के साथ करना चाहिए। उनके बलिदान और नेतृत्व ने असम और भारत के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी हैं।

लाचित बोरफुकन असम और भारत के लिए गौरव हैं। उनकी जयंती पर, हम उनके अद्वितीय साहस, नेतृत्व और देशभक्ति को सलाम करते हैं। लाचित दिवस न केवल असम की संस्कृति और इतिहास का उत्सव है, बल्कि हर भारतीय के लिए प्रेरणा का स्रोत भी हैं।

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