दिल्ली के जाने-माने व्यापारी सेठ मनोहरदास अपनी मेहनत और समझदारी के बल पर एक विशाल कारोबार खड़ा कर चुके थे। उनकी फैक्ट्री में हजारों लोग काम करते थे, घर में ऐश्वर्य की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उनका जीवन एक अधूरी कसक के साथ चल रहा था—उनकी पत्नी का देहांत बहुत पहले हो चुका था। उनके इकलौते बेटे, दुष्यंत, को उन्होंने इंग्लैंड पढ़ने भेजा था ताकि वह भी समझदार और काबिल बने।
अंतिम वचन
समय किसी के लिए नहीं रुकता। अचानक एक दिन सेठ मनोहरदास की तबीयत गंभीर हो गई। डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए। उन्होंने तुरंत अपने सबसे विश्वसनीय मित्र जानकीदास को बुलाया।
"मित्र, मेरा समय अब समाप्त हो रहा है," मनोहरदास ने कमजोर आवाज में कहा।
"ऐसा मत कहो, तुम ठीक हो जाओगे!" जानकीदास ने ढांढस बंधाया।
"नहीं, अब बस एक आखिरी इच्छा है। किसी भी तरह मेरे बेटे को बुला दो। मैं उसे एक बार देखना चाहता हूँ और उसे अपनी अंतिम सीख देना चाहता हूँ।"
जल्द ही दुष्यंत आ गया। जैसे ही उसने अपने पिता का हाथ पकड़ा, मनोहरदास की आँखों में सुकून आ गया।
"बेटा, मैं तुम्हें तीन बातें सिखाना चाहता हूँ, इन्हें हमेशा याद रखना," उन्होंने कांपती आवाज़ में कहा।
कभी किसी गरीब पर तरस मत खाना।
कभी किसी अमीर से दोस्ती मत करना।
अंधेरे में घर से बाहर मत निकलना।
इतना कहकर उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली। घर में शोक का माहौल छा गया।
पिता की सीख का पहला अर्थ
समय बीता, और जानकीदास ने दुष्यंत को संभालने की पूरी कोशिश की। उन्होंने उसे व्यापार सिखाया, और जल्द ही दुष्यंत ने कारोबार संभाल लिया।
कुछ दिनों बाद दिवाली का समय आया। फैक्ट्री के मजदूरों को हर साल की तरह बोनस मिलना था। लेकिन दुष्यंत को पिता की बात याद आई—गरीबों पर तरस मत खाना।
"अगर मैंने इन्हें बोनस दिया, तो यह दया दिखाने जैसा होगा," उसने सोचा।
उसने बोनस देने से मना कर दिया। मजदूरों को लगा कि नया मालिक निष्ठुर है। वे काम में ढिलाई बरतने लगे, और धीरे-धीरे उत्पादन घटने लगा।
दूसरी सीख का गलत मतलब
कुछ ही महीनों बाद, व्यापारियों का एक समूह दुष्यंत से मिलने आया। वे उसके पिता के समय से ही बिजनेस पार्टनर थे।
लेकिन दुष्यंत को पिता की दूसरी बात याद आई—अमीर से दोस्ती मत करना।
"पापा ने कहा था अमीर लोगों से दूर रहो, ये अपना फायदा उठाते हैं," उसने सोचा और उन व्यापारियों को अपमानित कर बाहर निकाल दिया।
परिणाम यह हुआ कि बड़े ऑर्डर बंद हो गए और बिजनेस नीचे जाने लगा।
तीसरी सीख का असर
अब व्यापार में घाटा होने लगा। दुष्यंत को लगातार मीटिंग्स और काम के लिए बाहर जाना पड़ता। लेकिन उसे पिता की तीसरी सीख याद थी—अंधेरे में बाहर मत निकलना।
इसलिए वह सिर्फ दिन में ही व्यापारिक यात्राएँ करता और शाम होते ही घर लौट आता। कई बड़े सौदे जो रात के समय तय होते थे, वह खोने लगा। धीरे-धीरे व्यापार की हालत खराब हो गई।
सच्चाई का उजाला
अब दुष्यंत घबरा चुका था। उसने जानकीदास को बुलाया और सारा हाल बताया।
"चाचा जी, मैंने पिताजी की हर सीख मानी, लेकिन फिर भी सब कुछ बर्बाद हो रहा है।"
जानकीदास मुस्कराए और बोले, "बेटा, तुमने बातों को समझा नहीं, बस शब्दों पर ध्यान दिया। चलो, मैं तुम्हें इनका असली अर्थ बताता हूँ।"
वह उसे एक गली में लेकर गए, जहाँ कुछ गरीब लोग बैठे थे। पास ही एक आदमी समोसे बेच रहा था।
"अगर तुम इन गरीबों को समोसे खरीदकर खिला दो, तो वे रोज़ मांगने आएंगे। लेकिन अगर तुम इन्हें समोसे बनाना सिखा दो, तो वे मेहनत से कमा सकेंगे। तुम्हारे पिता का मतलब यह था कि गरीबों को दया नहीं, अवसर दो।"
दुष्यंत को पहली सीख का सही अर्थ समझ आ गया।
दूसरी सीख का रहस्य
"अब दूसरी सीख समझो," जानकीदास बोले।
"तुम्हारे पिता का मतलब था कि व्यापार करो, लेकिन अपनी गोपनीयता बनाए रखो। व्यापारियों को दुश्मन मत बनाओ, लेकिन इतना भी नज़दीक मत जाओ कि वे तुम्हारी रणनीति जान जाएँ।"
दुष्यंत को अब अपनी गलती का अहसास हुआ।
तीसरी सीख का सच
"और तीसरी बात," जानकीदास ने कहा, "तुम्हारे पिता का मतलब था कि अंधेरे में घर से मत निकलना यानी परिवार और स्वास्थ्य को समय दो। अगर तुम हर रात व्यापार में लगे रहोगे, तो अपने अपनों से दूर हो जाओगे और दुश्मनों के लिए आसान शिकार बन जाओगे।"
अब दुष्यंत को पिता की सीख का असली मतलब समझ आ गया था।
नई शुरुआत
अगले दिन से दुष्यंत ने व्यापार के सारे फैसले सही तरीके से लेने शुरू किए। मजदूरों को बोनस दिया, जिससे वे फिर मेहनत से काम करने लगे। व्यापारियों से संतुलन बनाकर सौदे किए, और धीरे-धीरे बिजनेस फिर से फलने-फूलने लगा।
कुछ ही समय में, दुष्यंत न सिर्फ एक सफल व्यापारी बना बल्कि एक अच्छा इंसान भी।
शिक्षा: शब्दों का नहीं, उनके सही अर्थ का अनुसरण करो, तभी सफलता और सुख दोनों तुम्हारे होंगे।