Columbus

ISRO की बड़ी सफलता: स्पेस में दो सैटेलाइट्स को दूसरी बार जोड़ने में मिली कामयाबी

🎧 Listen in Audio
0:00

इसरो ने स्पेडेक्स मिशन के तहत चेजर और टारगेट उपग्रहों को सफलतापूर्वक डॉक कर एक बड़ी सफलता हासिल की, जिससे भविष्य की स्पेस तकनीक को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।
 
भारत की अंतरिक्ष एजेंसी ISRO (इसरो) ने एक और बड़ी कामयाबी हासिल की है। इसरो ने अंतरिक्ष में अपने दो उपग्रहों (सैटेलाइट्स) को दूसरी बार एक-दूसरे से जोड़ने (Docking) में सफलता पाई है। यह एक बहुत ही खास उपलब्धि है, जो भारत के लिए भविष्य में अंतरिक्ष से जुड़ी कई नई संभावनाओं के रास्ते खोलती है।
 
इसरो का यह मिशन SPADEX (Space Docking Experiment) के नाम से जाना जाता है। इस मिशन में दो छोटे सैटेलाइट – चेज़र (Chaser) और टारगेट (Target) – को अंतरिक्ष में भेजा गया था। इनका मकसद था एक-दूसरे से मिलकर जुड़ना, यानी ‘डॉक’ करना।
 
क्या होता है 'Docking' और क्यों है यह खास?
 
डॉकिंग’ एक ऐसी तकनीक है, जिसमें दो अंतरिक्ष यान या सैटेलाइट एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं। ये काम अंतरिक्ष में किया जाता है और यह बहुत ही मुश्किल होता है। स्पेस में चीजें बहुत तेज़ी से चलती हैं, वहां गुरुत्वाकर्षण नहीं होता, और सब कुछ सटीक टाइमिंग पर होना जरूरी होता है।
 
इसी वजह से, यह तकनीक दुनिया के कुछ गिने-चुने देशों के पास ही है। अब भारत भी उन देशों में शामिल हो गया है, जो स्पेस में सैटेलाइट्स को आपस में जोड़ने की तकनीक में माहिर हैं।
 
क्या है ISRO का स्पैडेक्स (SPADEX) मिशन?
 
ISRO के इस मिशन का नाम है SPADEX, यानी Space Docking Experiment। इस मिशन के अंतर्गत दो छोटे उपग्रह – Chaser और Target – को स्पेस में एक-दूसरे से जुड़ने के लिए भेजा गया है।
 
इसरो का मकसद इस प्रयोग के जरिए यह जांचना है कि क्या भारत की स्पेस टेक्नोलॉजी दो सैटेलाइट्स को स्पेस में स्वतः (autonomously) जोड़ने में सक्षम है या नहीं।
 
ISRO का दूसरा सफल प्रयास
 
पहली बार इसरो ने यह प्रयोग कुछ महीने पहले किया था, जिसमें दोनों सैटेलाइट 3 मीटर की दूरी से एक-दूसरे से जुड़े थे। लेकिन उस समय कुछ काम हाथ से (मैन्युअल) किया गया था।
 
दूसरी बार, यानी अब, ISRO ने और भी चुनौती भरा काम किया है:
 
• इस बार सैटेलाइट्स 15 मीटर की दूरी से एक-दूसरे से जुड़े।
 
• पूरी प्रक्रिया स्वचालित (Autonomous) रही, यानी किसी भी इंसान ने बीच में दखल नहीं दिया।
 
• डॉकिंग पूरी तरह से खुद-ब-खुद हुई, जो तकनीकी तौर पर बहुत बड़ी बात है।
 
डॉकिंग के बाद हुआ पावर ट्रांसफर भी
 
केवल डॉकिंग ही नहीं, ISRO ने इसके बाद दोनों सैटेलाइट्स के बीच बिजली का आदान-प्रदान (Power Transfer) भी सफलतापूर्वक किया। यानी एक सैटेलाइट ने दूसरे को अपनी ऊर्जा दी और फिर इसके विपरीत भी।
 
यह प्रयोग दर्शाता है कि अगर भविष्य में किसी सैटेलाइट की बैटरी खत्म हो जाती है, तो दूसरा सैटेलाइट उसे चार्ज कर सकता है। ISRO ने बताया कि यह पावर ट्रांसफर लगभग 4 मिनट तक चला और इस दौरान हीटर एलिमेंट्स का संचालन भी किया गया।
 
यह तकनीक भारत के लिए क्यों जरूरी है?
 
ISRO का यह मिशन केवल एक टेक्निकल प्रयोग नहीं है। यह भारत के भविष्य के स्पेस मिशनों के लिए बहुत जरूरी साबित हो सकता है। आइए समझते हैं क्यों:
 
1. स्पेस स्टेशन बनाने में मदद मिलेगी – जैसे अमेरिका और रूस के पास स्पेस स्टेशन हैं, भारत भी भविष्य में अपना स्पेस स्टेशन बना सकता है। उसके लिए यह तकनीक बेहद जरूरी है।
 
2. सैटेलाइट की मरम्मत और चार्जिंग स्पेस में ही की जा सकेगी – अगर कोई सैटेलाइट खराब हो जाए या उसकी बैटरी खत्म हो जाए, तो इस तकनीक से उसे ठीक या चार्ज किया जा सकता है।
 
3. गगनयान मिशन और इंटरप्लैनेट मिशनों में मदद मिलेगी – अगर भारत को भविष्य में चांद या मंगल पर इंसान भेजना है, तो डॉकिंग जैसी तकनीक बहुत जरूरी होगी।
 
कैसे तैयार हुआ यह मिशन?
 
SPADEX मिशन को ISRO ने लंबे समय की प्लानिंग और तकनीकी विकास के बाद तैयार किया। इसमें छोटे सैटेलाइट्स को खासतौर पर डॉकिंग के लिए डिजाइन किया गया।
 
इन सैटेलाइट्स में सेंसर, कैमरे और नेविगेशन सिस्टम लगे थे ताकि वे एक-दूसरे को पहचान सकें और सही दूरी पर जुड़ सकें।
 
भविष्य की योजनाएं क्या हैं?
 
ISRO के चेयरमैन ने बताया कि इस प्रयोग के बाद अब आगे की योजनाओं पर काम शुरू किया जाएगा। इसका मतलब है कि ISRO जल्द ही और उन्नत डॉकिंग मिशन प्लान कर सकता है। साथ ही इस टेक्नोलॉजी को बड़े और क्रू-बेस्ड मिशनों में इस्तेमाल किया जा सकता है।

Leave a comment