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दहेज के कर्ज़ में डूबा एक परिवार: एक शादी ने जो छीन लिया, वो कभी लौट नहीं सका

दहेज के कर्ज़ में डूबा एक परिवार: एक शादी ने जो छीन लिया, वो कभी लौट नहीं सका

भारत में बेटी की शादी करना आज भी किसी परीक्षा से कम नहीं। शादी अब केवल दो लोगों का बंधन नहीं रह गया, बल्कि यह समाज की उम्मीदों, दिखावे की परंपराओं और दहेज जैसी कुप्रथाओं से जकड़ा हुआ एक बोझ बन गया है। एक गरीब परिवार के लिए यह बोझ इतना बड़ा होता है कि वह पीढ़ियों तक उसकी कीमत चुकाता रहता है।

यह कहानी है एक ऐसे बेटे की, जिसने अपनी बहन की शादी के दिन सिर्फ इसलिए हिस्सा नहीं लिया क्योंकि उसके पास घर जाने का किराया नहीं था। और वह शादी, जो कभी घर में खुशियां लेकर आने वाली थी, आज 20 साल बाद भी पूरे परिवार के लिए अभिशाप बनी हुई है।

शुरुआत हुई एक बहन की शादी से

साल था 2004, जब बिहार के एक छोटे से गांव में रहने वाले एक परिवार ने अपनी बड़ी बेटी की शादी तय की। यह शादी धूमधाम से हो, समाज में किसी को कहने-सुनने का मौका न मिले – इस सोच ने पिता को साहूकारों से उधार लेने पर मजबूर कर दिया। बेटी को दहेज में देने के लिए पैसा चाहिए था, बारातियों के स्वागत-सत्कार में कोई कमी न रह जाए, इसके लिए हर जरूरी खर्च का इंतजाम किया गया।

शादी के लिए पिता ने करीब 15 लाख रुपये का कर्ज़ लिया। वो भी ऐसे साहूकारों से जो 5 से 10% मासिक ब्याज पर पैसा देते हैं। परिवार की सालाना आय मुश्किल से 5 लाख के करीब थी, फिर भी पिता को उम्मीद थी कि एक दिन बेटा नौकरी में लग जाएगा और धीरे-धीरे सब कुछ संभल जाएगा।

जब बेटा कुछ कर नहीं पाया

इस परिवार का सबसे बड़ा सहारा बनने का सपना देख रहा था बेटा, जो उस वक्त कर्नाटक में पढ़ाई कर रहा था। कॉलेज में प्लेसमेंट नहीं हुआ और पढ़ाई पूरी करने के बाद भी उसे नौकरी नहीं मिल सकी। यही बेटा बहन की शादी में शामिल भी नहीं हो सका क्योंकि उसके पास घर जाने तक के पैसे नहीं बचे थे। उसने अपनी बहन की विदाई को सिर्फ फोन पर महसूस किया, और वो भी आंसुओं के साथ।

आज भी जब वह युवक उस दिन को याद करता है, तो उसकी आंखें नम हो जाती हैं। जिस बहन की शादी के लिए उसके पिता ने सब कुछ दांव पर लगा दिया, उसकी शादी में वह खुद शरीक नहीं हो सका।

20 साल का सफर और आज भी बाकी है कर्ज़

आज उस शादी को हुए पूरे 20 साल हो चुके हैं। लेकिन उस दिन का कर्ज़ अब तक नहीं चुकाया जा सका। युवक के पिता अब वृद्ध हो चुके हैं, मेहनत करने की शक्ति नहीं बची। मां गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं और उनका इलाज दिल्ली के एम्स में होना है। पिछले दो दशकों में इस परिवार ने न जाने कितनी तकलीफें सही हैं। कई बार दो वक्त का खाना भी मयस्सर नहीं हुआ।

युवक की आंखें तब भर आईं जब उसकी छोटी बहन ने फोन कर बताया कि उनके पास खाने को कुछ नहीं है। रात के खाने में सिर्फ मुरमुरा बचा था, और वह कर्नाटक में बैठा खुद खाना खा रहा था। यह एहसास इतना पीड़ादायक था कि उसने अपने दोस्तों से पैसे उधार लेकर घर भेजे।

छोटे भाई-बहनों की भूख और मां की बीमारी

युवक के छोटे भाई-बहन गांव में ही रहकर जैसे-तैसे जीवन चला रहे हैं। मां के इलाज के लिए पिता उन्हें लेकर दिल्ली आ गए हैं, लेकिन इलाज की भारी लागत ने उन्हें लगभग टूट जाने के कगार पर पहुंचा दिया है। युवक खुद कर्नाटक में नौकरी की तलाश में भटक रहा है और हर संभव कोशिश कर रहा है कि किसी तरह से कुछ कमा सके और परिवार का सहारा बन सके।

इस कहानी से क्या सीखें?

  1. शादी को साधन बनाएं, साधनहीनता का प्रतीक नहीं: सामाजिक दबाव में आकर खर्च करने से बेहतर है कि उतना ही करें जितना संभव हो।
  2. दहेज जैसी कुप्रथाओं को खत्म करें: बेटी की शादी में दहेज देना आज भी एक बड़ी सामाजिक बुराई है। इसे बंद करना हर परिवार की जिम्मेदारी है।
  3. ऋण लेने से पहले सोचें: शादी जैसे आयोजनों के लिए कर्ज़ लेना भविष्य को बर्बाद कर सकता है।
  4. बेटे-बेटियों में भेद न करें: बेटा नौकरी करेगा तो घर संभलेगा – यह सोच अब बदलनी चाहिए। बेटी भी सहारा बन सकती है।
  5. समाज को जागरूक बनाएं: यह कहानी एक आइना है – जहां समाज की परंपराएं एक परिवार को खत्म कर देती हैं।

यह केवल एक युवक की कहानी नहीं है, बल्कि ऐसे हजारों परिवारों की आवाज है जो आज भी बेटी की शादी को इज्जत का सवाल मानते हुए अपनी आर्थिक स्थिति को नजरअंदाज कर देते हैं। हमें सोचने की जरूरत है – क्या इज्जत के नाम पर खुद को बर्बाद करना वाकई ज़रूरी है?

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