अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने H-1B वीजा पर बड़ा फैसला लिया है। अब कंपनियों को हर विदेशी कर्मचारी पर 1 लाख डॉलर शुल्क देना होगा। इस बदलाव से भारतीय आईटी प्रोफेशनल्स की अमेरिका में नौकरी पाने की राह कठिन हो सकती है।
H-1B Visa Rule: अमेरिका में नौकरी करने का सपना देखने वाले भारतीय आईटी प्रोफेशनल्स के लिए बड़ी खबर आई है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने H-1B वीजा से जुड़ा नया आदेश जारी किया है जिसके तहत अब कंपनियों को हर साल 100,000 डॉलर (लगभग 83 लाख रुपये) का शुल्क देना होगा। यानी अगर कोई कंपनी किसी विदेशी कर्मचारी को H-1B वीजा पर अमेरिका बुलाना चाहती है तो उसे पहले यह राशि अमेरिकी सरकार को चुकानी होगी। इस बदलाव का सीधा असर भारतीयों पर पड़ेगा क्योंकि H-1B वीजा धारकों में सबसे बड़ा हिस्सा भारतीयों का है।
H-1B वीजा क्यों है खास
H-1B वीजा अमेरिका का एक विशेष प्रोग्राम (program) है जो कंपनियों को ऐसे विदेशी कर्मचारियों को नियुक्त करने की अनुमति देता है जिनके पास टेक्नोलॉजी (technology), साइंस (science), इंजीनियरिंग (engineering) और मैथमेटिक्स (mathematics) जैसे क्षेत्रों में विशेष कौशल हो। हर साल लगभग 85,000 H-1B वीजा लॉटरी सिस्टम (lottery system) के जरिए जारी किए जाते हैं और इनमें से 71 प्रतिशत भारतीयों को मिलते हैं जबकि करीब 12 प्रतिशत चीनी नागरिकों को। यह वीजा आम तौर पर 3 से 6 साल के लिए दिया जाता है। गूगल, अमेजन, माइक्रोसॉफ्ट और एप्पल जैसी कंपनियां हर साल सबसे ज्यादा H-1B वीजा का उपयोग करती हैं।
ट्रंप प्रशासन का तर्क
ट्रंप प्रशासन का कहना है कि इस शुल्क का उद्देश्य H-1B प्रोग्राम (program) का दुरुपयोग रोकना है। व्हाइट हाउस के स्टाफ सेक्रेटरी विल शार्फ ने कहा कि यह वीजा उन अत्यधिक योग्य कर्मचारियों के लिए है जो ऐसे क्षेत्रों में काम करते हैं जहां अमेरिकी कर्मचारियों की कमी है। लेकिन हकीकत यह है कि कई कंपनियां इस वीजा का इस्तेमाल केवल कम वेतन पर विदेशी कर्मचारियों को लाने के लिए करती हैं। वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक ने कहा कि अब कंपनियों को विदेशी कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने से पहले सोचना होगा क्योंकि पहले उन्हें 100,000 डॉलर सरकार को देना होगा और फिर कर्मचारी की सैलरी। उनके मुताबिक अमेरिकी ग्रेजुएट्स को नौकरियां मिलनी चाहिए, न कि विदेशियों को लाकर अमेरिकी कर्मचारियों की नौकरियां छीनी जाएं।
क्यों होती है H-1B वीजा की आलोचना
लंबे समय से H-1B वीजा की आलोचना होती रही है। आलोचकों का कहना है कि यह प्रोग्राम (program) कंपनियों के लिए लागत कम करने का जरिया बन गया है। उदाहरण के तौर पर, जहां अमेरिकी टेक कर्मचारी को छह अंकों की सैलरी (salary) मिलती है, वहीं H-1B पर आए विदेशी कर्मचारियों को कई बार 60,000 डॉलर से भी कम भुगतान किया जाता है। इससे घरेलू कर्मचारियों को नुकसान होता है और अमेरिकी नौकरी बाजार (job market) प्रभावित होता है। अब 100,000 डॉलर का शुल्क कंपनियों को यह सोचने पर मजबूर करेगा कि वे विदेशी कर्मचारियों को वास्तव में उनकी स्किल्स (skills) के कारण लाना चाहती हैं या केवल कम खर्च की वजह से।
भारतीय कर्मचारियों पर असर
नए नियम से सबसे ज्यादा भारतीय प्रभावित होंगे क्योंकि H-1B वीजा धारकों में उनकी हिस्सेदारी सबसे अधिक है। भारत के हजारों आईटी प्रोफेशनल्स हर साल इस वीजा पर अमेरिका जाते हैं और बड़ी टेक कंपनियों का अहम हिस्सा बनते हैं। लेकिन अब कंपनियों को हर कर्मचारी पर अतिरिक्त 100,000 डॉलर देना होगा जिससे कई कंपनियां केवल जरूरी और उच्चस्तरीय स्किल्स (skills) वाले कर्मचारियों को ही प्राथमिकता देंगी। बड़ी कंपनियां इस शुल्क को वहन कर सकती हैं, लेकिन छोटे और मध्यम स्तर की कंपनियों के लिए यह कठिन होगा। इसका सीधा असर नए भारतीय आवेदकों पर पड़ेगा और अमेरिका जाने के अवसर सीमित हो सकते हैं।
'गोल्ड कार्ड' आदेश
H-1B शुल्क बढ़ाने के साथ ही ट्रंप ने एक नया आदेश भी जारी किया है जिसे 'गोल्ड कार्ड' कहा जा रहा है। इस प्रोग्राम (program) के तहत अगर कोई विदेशी व्यक्ति अमेरिकी खजाने में 10 लाख डॉलर (लगभग 8.4 करोड़ रुपये) का योगदान करता है तो उसे जल्दी वीजा और ग्रीन कार्ड मिल सकता है। वहीं अगर कोई कंपनी किसी कर्मचारी को स्पॉन्सर करती है तो उसे 20 लाख डॉलर (करीब 16.8 करोड़ रुपये) का भुगतान करना होगा। ट्रंप ने कहा कि इससे अमेरिका को अरबों डॉलर की आमदनी होगी और इसका इस्तेमाल टैक्स कम करने तथा राष्ट्रीय कर्ज (national debt) घटाने में किया जाएगा।
अमेरिकी पॉलिसी में बदलाव
ट्रंप प्रशासन की यह नीति अचानक नहीं आई है। पिछले महीने ही अमेरिका ने एक पायलट प्रोग्राम (pilot program) शुरू किया था जिसमें टूरिस्ट और बिजनेस वीजा पर 15,000 डॉलर तक का बॉन्ड (bond) लागू किया गया। यह नियम उन देशों पर लागू हुआ है जहां से लोग वीजा खत्म होने के बाद भी अमेरिका में ठहर जाते हैं। साफ है कि अमेरिका अब अपने इमिग्रेशन (immigration) नियमों को लगातार सख्त बना रहा है और विदेशी कर्मचारियों पर निर्भरता घटाना चाहता है।