हिंदू पंचांग के अनुसार, आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इस साल यह तिथि 6 जुलाई 2025 को पड़ रही है। इस दिन से चातुर्मास की शुरुआत मानी जाती है और भगवान विष्णु क्षीर सागर में योगनिद्रा में चले जाते हैं। यह समय चार महीने तक रहता है, जब सभी शुभ कार्यों पर रोक लग जाती है।
देवशयनी एकादशी का व्रत विशेष पुण्य देने वाला माना गया है। मान्यता है कि इस व्रत को श्रद्धा और नियम से करने पर अनजाने में किए गए पाप भी कट जाते हैं। इसके साथ ही जीवन में सुख-समृद्धि और मानसिक शांति का अनुभव होता है।
व्रत का धार्मिक महत्व
देवशयनी एकादशी को लेकर शास्त्रों में उल्लेख है कि इस दिन व्रत करने से मनुष्य को सभी लोकों में सुख प्राप्त होता है। यह व्रत जीवन के बड़े से बड़े संकटों को भी शांत करने वाला बताया गया है। इसे करने वाला व्यक्ति न सिर्फ सांसारिक सुख पाता है बल्कि परलोक में भी उसे विशेष स्थान मिलता है।
कहा जाता है कि जब स्वयं भगवान विष्णु ही चार महीने के लिए विश्राम में चले जाते हैं तो इस दिन उनका पूजन और व्रत कर लेने से उनकी कृपा संपूर्ण वर्ष भर बनी रहती है। साथ ही यह भी माना गया है कि यह व्रत पुराने पापों से छुटकारा दिलाने वाला होता है।
देवशयनी एकादशी की कथा
पुराणों में इस एकादशी से जुड़ी एक प्रसिद्ध कथा मिलती है, जो सूर्यवंशी राजा मान्धाता से जुड़ी है। राजा मान्धाता एक धर्मनिष्ठ, तपस्वी और प्रजा के कल्याण में लगे रहने वाले राजा थे। उनके राज्य में हर प्रकार से सुख-शांति का माहौल था। न कोई कष्ट था, न कोई अकाल। लेकिन एक समय ऐसा आया जब उनके राज्य में भयंकर अकाल पड़ गया। न खेतों में अन्न उपजा, न जल की पर्याप्त व्यवस्था रही।
अकाल से त्रस्त प्रजा राजा के पास पहुंची और प्रार्थना करने लगी कि कोई उपाय करें जिससे वर्षा हो और सबका जीवन फिर से सामान्य हो सके। राजा ने इस समस्या का हल ढूंढने का निश्चय किया और कुछ विद्वानों व पुरोहितों को साथ लेकर वन की ओर निकल पड़े।
ऋषि अंगिरा से मिला समाधान
वन में भ्रमण करते हुए राजा मान्धाता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र ऋषि अंगिरा के आश्रम पहुंचे। वहां उन्होंने अपनी समस्या बताई और समाधान की याचना की। ऋषि ने ध्यान करके बताया कि राज्य में एक शूद्र तप कर रहा है, जो वेदों के अनुसार वर्जित है। इसी कारण से देवता रूष्ट हो गए हैं और वर्षा नहीं हो रही।
ऋषि ने सलाह दी कि या तो उस शूद्र का वध करवा दें या फिर देवशयनी एकादशी का व्रत करें। राजा ने पहले उपाय को अस्वीकार कर दिया क्योंकि निर्दोष की हत्या उनके धर्म के विरुद्ध थी। इसके बाद उन्होंने व्रत का संकल्प लिया।
राजा के व्रत से बदला भाग्य
राजा मान्धाता ने विधिपूर्वक देवशयनी एकादशी का व्रत रखा। उन्होंने पूरे नियमों के साथ पूजा, उपवास और भगवान विष्णु की आराधना की। इस व्रत के प्रभाव से जल्द ही उनके राज्य में वर्षा हुई और अकाल समाप्त हो गया। प्रजा को राहत मिली और राज्य में फिर से समृद्धि लौट आई।
इस कथा से यह समझ आता है कि देवशयनी एकादशी का व्रत न सिर्फ आत्मशुद्धि का माध्यम है, बल्कि इससे समाज और राष्ट्र को भी कल्याण का रास्ता मिलता है।
कथा से जुड़ी मान्यताएं
यह भी कहा जाता है कि देवशयनी एकादशी पर जो व्यक्ति कथा का श्रवण करता है और भगवान विष्णु की सच्चे मन से आराधना करता है, उसे पुण्य की प्राप्ति होती है। राजा मान्धाता की तरह, जो कोई भी इस व्रत को नियमपूर्वक करता है, उसके जीवन की कठिनाइयां स्वतः समाप्त हो जाती हैं।
देवशयनी एकादशी से जुड़ी यह कथा आज भी भारत के कोने-कोने में श्रद्धा के साथ सुनी और सुनाई जाती है। मंदिरों में भजन, कीर्तन और कथा का आयोजन होता है और भक्त पूरे दिन उपवास रखकर प्रभु की आराधना करते हैं।
व्रत के नियम और पूजन विधि
इस दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान के बाद व्रत का संकल्प लिया जाता है। फिर भगवान विष्णु की मूर्ति या चित्र पर पीले फूल, चंदन, तुलसी दल, फल और मिठाई अर्पित की जाती है। दिनभर उपवास रखा जाता है और शाम को दीप जलाकर विष्णु सहस्त्रनाम या नारायण स्तोत्र का पाठ किया जाता है।
रात को जागरण करना विशेष फलदायक माना गया है। अगले दिन द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन करवाकर व्रत का पारण किया जाता है।