सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण याचिका पर सुनवाई करते हुए सवाल उठाया है कि क्या संगठित अपराध के आरोपियों के लिए विशेष सुरक्षा उपाय होने चाहिए। याचिकाकर्ता का तर्क है कि नए क्रिमिनल लॉ के तहत संगठित अपराधों को सामान्य अपराधों की श्रेणी में लाकर उन आरोपियों के लिए पहले से मौजूद सुरक्षा उपायों को खत्म कर दिया गया हैं।
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने नए क्रिमिनल लॉ को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान यह महत्वपूर्ण सवाल उठाया कि क्या संगठित अपराध के आरोपियों के लिए विशेष सुरक्षा उपाय होने चाहिए। बेंच ने इस मुद्दे पर विचार करने की आवश्यकता जताई कि क्या संगठित अपराधों में शामिल व्यक्तियों के लिए कानूनी प्रक्रिया में अतिरिक्त सुरक्षा उपायों की व्यवस्था होनी चाहिए, खासकर जब उनके खिलाफ आरोप गंभीर और संगठित अपराधों से संबंधित होते हैं।
याचिकाकर्ता ने नए क्रिमिनल लॉ के कई प्रावधानों को चुनौती दी है, जिसमें संगठित अपराधों से संबंधित आरोपियों के लिए सुरक्षा उपायों का अभाव होने का आरोप लगाया गया है। याचिकाकर्ता का तर्क है कि नए कानून ने संगठित अपराधों को सामान्य अपराधों की श्रेणी में लाकर, आरोपियों के लिए पहले से मौजूद विशेष सुरक्षा उपायों को खत्म कर दिया है, जो उनके न्यायिक अधिकारों और जीवन की सुरक्षा से संबंधित हैं।
वकील डॉ. मेनका गुरुस्वामी ने तर्क दिया कि
सुप्रीम कोर्ट में नए क्रिमिनल लॉ को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील डॉ. मेनका गुरुस्वामी ने तर्क दिया कि नई संहिताओं के माध्यम से संगठित अपराधों (जैसे मकोका) को सामान्य कानून (भारतीय न्याय संहिता, 2023 या BNS) के दायरे में लाया गया है। उनका कहना था कि ऐसा करने से उन विशेष सुरक्षा उपायों और संरक्षण को हटा दिया गया है, जो पहले संगठित अपराधों से निपटने के लिए बनाए गए थे।
डॉ. गुरुस्वामी ने अदालत में यह जोर दिया कि संगठित अपराधों की प्रकृति और उनकी जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए, इनसे संबंधित मामलों में विशेष सुरक्षा उपाय और प्रावधानों की आवश्यकता है। उनका तर्क था कि नए जनरल कानून में संगठित अपराध से जुड़े आरोपियों के लिए वह सुरक्षा उपाय नहीं दिए गए हैं, जो पहले खास कानूनों के तहत थे।
क्या है मामला?
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और भारतीय न्याय संहिता (BNS) के कई प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। इन दोनों कानूनों ने भारतीय दंड संहिता (IPC) और भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) की जगह ली है और 1 जुलाई 2023 से लागू हो गए हैं। इसके साथ ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम को भी भारतीय साक्ष्य संहिता से बदल दिया गया हैं।
चुनौती में भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा-111 और 113 को लेकर सवाल उठाए गए हैं, जो संगठित अपराध और आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए प्रावधान करते हैं। याचिका में यह तर्क दिया गया है कि इस नए कानून के तहत संगठित अपराध को सामान्य अपराधों के दायरे में लाया गया है, जबकि पहले इन अपराधों से निपटने के लिए विशेष कानून जैसे मकोका (MCOCA) और गैरकानूनी गतिविधियों के लिए अलग से प्रावधान थे। इन विशेष कानूनों में आरोपियों के लिए सुरक्षा उपाय तय थे, लेकिन नए सामान्य कानून में इन सुरक्षा उपायों की व्यवस्था नहीं की गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि यह बदलाव संगठित अपराधों के आरोपियों के लिए अन्यायकारी हो सकता है, क्योंकि पहले की तुलना में कोई विशेष सुरक्षा या सेफगार्ड प्रदान नहीं किया गया हैं।
इसके अलावा, बीएनएस की धारा-152 पर भी सवाल उठाया गया है, जिसमें राजद्रोह से संबंधित कानून को फिर से पेश किया गया है। याचिकाकर्ता का तर्क है कि पहले आईपीसी की धारा-124 ए के तहत यह परिभाषित था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने चुनौती दी थी, और अब नए कानून में इस धारा को फिर से पेश किया गया है, जिससे नागरिक स्वतंत्रताओं पर सवाल उठ सकते हैं।
याचिका में बीएनएसएएस की धारा-173(3) पर भी चिंता जताई गई है, जिसमें पुलिस को शिकायत मिलने के बाद केस दर्ज करने या न करने का विशेष अधिकार दिया गया है। इसके तहत पुलिस को प्रारंभिक जांच के आधार पर केस दर्ज करने या न करने का अधिकार दिया गया है, जो याचिकाकर्ता के अनुसार पुलिस को 'पिक एंड चूज़' का अधिकार देता हैं।