श्री अरविंदो की पुण्यतिथि 5 दिसम्बर को मनाई जाती है। उनका निधन 5 दिसंबर 1950 को पांडिचेरी में हुआ था। श्री अरविंदो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता, योगी, दार्शनिक और कवि थे, जिनकी विचारधारा और साधना पद्धतियाँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं। उनकी पुण्यतिथि पर विशेष रूप से श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है, और उनके कार्यों तथा योगदान को याद किया जाता है।
श्री अरविन्द घोष एक युगदृष्टा योगी और क्रांतिकारी
श्री अरविन्द घोष, जिन्हें हम श्री अरविन्द के नाम से भी जानते हैं, एक युगदृष्टा योगी, दार्शनिक, कवि और स्वतंत्रता सेनानी थे। उनका जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ था। उनका जीवन एक ऐसा सफर था, जिसमें उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाई, योग और साधना के माध्यम से आत्म-प्रकाश की ओर मार्गदर्शन किया, और विश्वभर में अपनी दार्शनिक विचारधारा का प्रसार किया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
श्री अरविन्द के पिता डॉ. कृष्णधन घोष एक प्रसिद्ध चिकित्सक थे, जिन्होंने अपने बेटे को उच्च शिक्षा दिलाने का सपना देखा था। यही कारण था कि अरविन्द को मात्र सात साल की उम्र में इंग्लैंड भेज दिया गया। वहां उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की और मात्र 18 वर्ष की आयु में भारतीय सिविल सेवा (ICS) की परीक्षा पास की। श्री अरविन्द ने इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान कई भाषाओं में निपुणता हासिल की, जिनमें अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक और इटालियन प्रमुख हैं।
स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी
अरविन्द घोष की युवा अवस्था देशभक्ति से प्रेरित थी। उन्होंने सिविल सेवा की नौकरी छोड़ दी और बड़ौदा नरेश की रियासत में शिक्षा कार्य में जुड़ गए। हालांकि, उनका मन हमेशा स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए ललायित रहता था। 1905 में जब बंगाल का विभाजन हुआ, तो अरविन्द ने विरोध प्रदर्शन में सक्रिय रूप से भाग लिया और अपनी क्रांतिकारी विचारधारा को फैलाया।
उन्होंने बड़ौदा राज्य में क्रांतिकारी गतिविधियों को गति दी, जहां उन्होंने कई युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम की दीक्षा दी। इसके अलावा, उन्होंने नेशनल कॉलेज की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 75 रुपये मासिक पर वहां शिक्षा दी।
अलीपुर षडयंत्र और आध्यात्मिक अनुभव
भारत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों से सरकार घबराई हुई थी और अरविन्द को 1908 में अलीपुर षडयंत्र केस के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें अलीपुर जेल में एक वर्ष तक बंद रखा गया। इसी दौरान उन्हें जेल में एक अद्वितीय आध्यात्मिक अनुभव हुआ, जो उनके जीवन की दिशा को बदलने वाला था।
अरविन्द ने अपने जीवन में धर्म, योग और भारतीय संस्कृति को एक नए दृष्टिकोण से देखा। उन्हें यह एहसास हुआ कि राष्ट्र की स्वतंत्रता का मार्ग केवल बाहरी संघर्ष से नहीं, बल्कि आत्म-प्रकाश और आध्यात्मिक उन्नति से भी जुड़ा हुआ हैं।
उत्तरपाड़ा अभिभाषण
अरविन्द के जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा में हुई, जब उन्होंने अपना प्रसिद्ध "उत्तरपाड़ा अभिभाषण" दिया। इस भाषण में उन्होंने कहा था कि भारतीय संस्कृति और धर्म में निहित शक्ति और ज्ञान ही भारतीय राष्ट्र की स्वतंत्रता का मूल आधार है। उन्होंने अपने इस अनुभव को साझा किया कि कैसे जेल में रहते हुए उन्हें ईश्वर का संदेश प्राप्त हुआ और वह संदेश उनके जीवन और कार्यों में एक नई दिशा लेकर आया।
योग और दर्शन
जेल से रिहा होने के बाद श्री अरविन्द ने पांडिचेरी में एक आश्रम स्थापित किया, जहां वे योग और साधना के माध्यम से आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की दिशा में कार्य कर रहे थे। उन्होंने भारतीय वेद, उपनिषदों, भगवद गीता, और अन्य धार्मिक ग्रंथों पर गहन विचार और अध्ययन किया, और अपनी दार्शनिक सोच को साझा किया। उनके योगदान से योग और साधना के क्षेत्र में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ।
श्री अरविन्द ने केवल भारतीय समाज को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता को एक नई दिशा दी। उन्होंने यह संदेश दिया कि केवल शारीरिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक स्वतंत्रता भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
श्री अरविन्द घोष का जीवन न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा था, बल्कि उन्होंने अपने योग, दर्शन, और आध्यात्मिक साधना के माध्यम से एक नई दिशा का सूत्रपात किया। उनका विचार और कार्य आज भी हमारे जीवन में प्रासंगिक हैं। वे एक ऐसे महान व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपने जीवन में गहरे परिवर्तन लाए और दुनिया को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया। उनका योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा, और उनकी सोच ने न केवल भारतीय समाज को, बल्कि समस्त मानवता को जागरूक किया।