मुंशी प्रेमचंद की कहानी : धिक्‍कार

मुंशी प्रेमचंद की कहानी : धिक्‍कार
Last Updated: 14 मई 2023

मुंशी प्रेमचंद की कहानी : धिक्‍कार   Story of Munshi Premchand: Damnation

दोस्तों, हमारा देश सदियों से ही ऋषि मुनियों, कवियों, साहित्यकारों, और संगीतकारों आदि जैसे गुणों से भरपूर महापुरुषों की जन्म और कर्मभूमि रहा है। इन महापुरुषों द्वारा रचित हजारों रचनाएँ अनमोल है। 

आज की युवापीढ़ी इस डिजिटल युग में मानों कही खोई जा रही है और हम अपने धरोहर और अनमोल खजाने से कोसों दूर होते जा रहे हैं। subkuz.com की कोशिश है की हम इन अनमोल खजानो के साथ साथ मनोरंजन कहानियां, समाचार, और देश विदेश की जानकारियां भी आप तक पहुचायें। 

यहाँ प्रस्तुत है आपके सामने मुंशी प्रेमचंद्र द्वारा रचित ऐसी ही एक अनमोल कहानी जिसका शीर्षक है।

*. धिक्‍कार

अनाथ और विधवा मानी के लिए जीवन में अब रोने के सिवा दूसरा अवलम्‍ब न था । वह पांच वर्ष की थी, जब पिता का देहांत हो गया। माता ने किसी तरह उसका पालन किया । सोलह वर्ष की अवस्‍था में मोहल्ले वालों की मदद से उसका विवाह भी हो गया पर साल के अंदर ही माता और ‍पति दोनों विदा हो गए। इस विपति में उसे उपने चाचा वंशीधर के सिवा और कोई नज़र न आया, जो उसे आश्रय देता । वंशीधर ने अब तक जो व्‍यवहार किया था, उससे यह आशा न हो सकती थी कि वहां वह शांति के साथ रह सकेगी पर वह सब कुछ सहने और सब कुछ करने को तैयार थी । वह गाली, झिड़की, मारपीट सब सह लेगी, कोई उस पर संदेह तो न करेगा, उस पर मिथ्‍या लांछन तो न लगेगा, शोहदों और लुच्‍चों से तो उसकी रक्षा होगी । वंशीधर को कुल मर्यादा की कुछ चिन्‍ता हुई । मानी की याचना को अस्‍वीकार न कर सके ।

लेकिन दो चार महीने में ही मानी को मालूम हो गया कि इस घर में बहुत दिनों तक उसका निबाह न होगा । वह घर का सारा काम करती, इशारों पर नाचती, सबको खुश रखने की कोशिश करती पर न जाने क्‍यों चाचा और चाची दोनों उससे जलते रहते । उसके आते ही महरी अलग कर दी गई । नहलाने-धुलाने के लिए एक लौंडा था उसे भी जवाब दे दिया गया पर मानी से इतना उबार होने पर भी चाचा और चाची न जाने क्‍यों उससे मुंह फुलाए रहते । कभी चाचा घुड़कियां जमाते, कभी चाची कोसती, यहां तक कि उसकी चचेरी बहन ललिता भी बात-बात पर उसे गालियां देती ।

घर-भर में केवल उसके चचेरे भाई गोकुल ही को उससे सहानुभूति थी । उसी की बातों में कुछ स्‍नेह का परिचय मिलता था । वह अपनी माता का स्‍वभाव जानता था। अगर वह उसे समझाने की चेष्‍टा करता, या खुल्‍लमखुल्‍ला मानी का पक्ष लेता, तो मानी को एक घड़ी घर में रहना कठिन हो जाता, इसलिए उसकी सहानुभुति मानी ही को दिलासा देने तक रह जाती थी। वह कहता-बहन, मुझे कहीं नौकर हो जाने दो, ‍फिर तुम्‍हारे कष्‍टों का अंत हो जाएगा । तब देखूंगा, कौन तुम्‍हें तिरछी आंखों से देखता है । जब तक पढ़ता हूं, तभी तक तुम्‍हारे बुरे दिन हैं। मानी यह स्‍नेह में डूबी हुई बात सुनकर पुलकित हो जाती और उसका रोआं-रोआं गोकुल को आशीर्वाद देने लगता ।

आज ललिता का विवाह है। सबेरे से ही मेहमानों का आना शुरू हो गया है। गहनों की झनकार से घर गूंज रहा है । मानी भी मेहमानों को देख-देखकर खुश हो रही है। उसकी देह पर कोई आभूषण नहीं है और न ठसे सुन्‍दर कपड़े ही दिए गए हैं, फिर भी उसका मुख प्रसन्‍न है।

आधी रात हो गई थी। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया था। जनवासे से पहनावे की चीजें आईं। सभी औरतें उत्‍सुक हो-होकर उन चीजों को देखने लगीं। ललिता को आभूषण पहिनाए जाने लगे। मानी के हदय में बड़ी इच्‍छा हुई कि जाकर वधू को देखे। अभी कल जो बालिका थी, उसे आज वधू वेश में देखने की इच्‍छा न रोक सकी। वह मुस्‍काती हुई कमरे में घुसी। सहसा उसकी चाची ने झिड़ककर कहा-तुझे यहां किसने बुलाया था, निकल जा यहां से।

मानी ने बड़ी-बड़ी यातनाएं सही थीं, पर आज की वह झिड़की उसके हदय में बाण की तरह चुभ गई। उसका मन उसे धिक्‍कारने लगा। ‘तेरे छिछोरेपन का यही पुरस्‍कार है। यहां सुहागिनों के बीच में तेरे आने की क्‍या जरूरत थी ‘ वह खिसियाई हुई कमरे से निकली और एकांत में बैठकर रोने के लिए ऊपर जाने लगी । सहसा जीने पर उसी इंद्रनाथ से मुठभेड़ हो गई। इंद्रनाथ गोकुल का सहपाठी और परम मित्र था वह भी न्योते  में आया हुआ था । इस वक्‍त गोकुल को खोजने के लिए ऊपर आया था । मानी को वह दो-बार देख चुका था और यह भी जानता था कि यहां बड़ा दुर्व्‍यवहार किया जाता है । चाची की बातों की भनक उसके कान में भी पड़ गई थी । मानी को ऊपर जाते देखकर वह उसके चित का भाव समझ गया और उसे सांत्‍वना देने के लिए ऊपर आया, मगर दरवाजा भीतर से बंद था। उसने किवाड़ की दरार से भीतर झांका। मानी मेज के पास खड़ी रो रही थी ।

उसने धीरे से कहा-मानी, द्वार खोल दो।

मानी उसकी आवाज सुनकर कोने में छिप गई और गम्‍भीर स्‍वर में बोली-क्‍या काम है ?

इंद्रनाथ ने गदगद स्‍वर में कहा-तुम्‍हारे पैरों पड़ता हूं मानी, खोल दो ।

यह स्‍नेह में डूबा हुआ हुआ विनय मानी के लिए अभूतपूर्व था । इस निर्दय संसार में कोई उससे ऐसे विनती भी कर सकता है, इसकी उसने स्‍वप्‍न में भी कल्‍पना न की थी । मानी ने कांपते हुए हाथों से द्वारा खोल दिया । इंद्रनाथ झपटकर कमरे में घुसा, देखा कि छत से पखे के कड़े से एक रस्‍सी लटक रही है । उसका हदय कांप उठा। उसने तुरन्‍त जेब से चाकू निकालकर रस्‍सी काट दी और बोला-क्‍या करने जा रही थीं मानी ? जानती हो, इस अपराध का क्‍या दंड है ?

मानी ने गर्दन झुकाकर कहा-इस दंड से कोई और दंड कठोर हो सकता है ? जिसकी सूरत से लोगों का घृणा है, उसे मरने के लिए भी अगर कठोर दंड दिया जाए, तो मैं यही कहूंगी कि ईश्‍वर के दरबार में न्‍याय का नाम भी नहीं है ।

इन्द्रनाथ की आंखे सजल हो गईं । मानी की बातों में कितना कठोर सत्‍य भरा हुआ था । बोला-सदा ये दिन नहीं रहेंगे मानी । अगर तुम यह समझ रही हो कि संसार में तुम्‍हारा कोई नहीं है, तो यह तुम्‍हार भ्रम है । संसार में कम-से-कम एक मनुष्‍य ऐसा है, जिसे तुम्‍हारे प्राण अपने प्राणों से भी प्‍यारे है ।

सहसा गोकुल आता हुआ दिखाई दिया । मानी कमरे से निकल गई  इन्‍द्रनाथ के शब्‍दों से उसके मन में एक तूफान-सा उठा दिया । उसका क्‍या आशय है, यह उसकी समझ में न आया । फिर भी आज उसे अपना जीवन सार्थ्‍क मालूम हो रहा था । उसके अन्‍धकारमय जीवन में एक प्रकाश का उदय हो गया था ।

इन्‍द्रनाथ को वहां बैठे और मानी को कमरे से जाते देखकर गोकुल को कुछ खटक गया । उसकी त्‍योरियां बदल गईं । कठोर स्‍वर में बोला-तुम यहां कब  आए ?

इद्रंनाथ ने अविचलित भाव से कहा-तुम्‍हीं को खोजता हुआ यहां आया था। तुम यहां न मिले तो नीचे लौटा जा रहा था, अगर चला गया होता तो इस वक्‍त तुम्‍हें यह कमरा बन्‍द मिलता और पंखे के कड़े में एक लाश लटकती हुई नजर आती ।

गोकुल ने समझा, यह अपने अपराध के छिपाने के लिए कोई बहाना निकाल रहा है । ती‍व्र कंठ से बोला-तुम यह विश्‍वासघात करोगे, मुझे ऐसी आशा न थी ।

इन्‍द्रनाथ का चेहरा लाल हो गया। वह आवेश में आकार खड़ा हो गया और बोला-न मुझे यह आशा थी कि तुम मुझ पर इतना बड़ा लांछन रख दोगे । मुझे ये  मालुम नहीं था कि तुम मुझे इतना नीच और कुटिल समझते हो । मानी तुम्‍हारे लिए तिरस्‍कार की वस्‍तु हो, मेरे लिए वह श्रद्धा की वस्‍तु है और रहेगी । मुझे तुम्‍हारे सामने अपनी सफाई देने की जरूरत नहीं है, लेकिन मानी मेरे लिए उससे कहीं पवित्र है, जितनी तुम समझते हो। मैं नहीं चाहता था कि इस वक्‍त ‍तुमसे उससे ये बातें कहूं । इसके लिए और अनूकूल परि‍‍स्‍थतियों की राह देख रहा था, लेकिन मामला आ पड़ने पर कहना ही पड़ रहा है । मैं यह तो जानता था कि मानी का तुम्‍हारे घर में कोई आदर नहीं, लेकिन तुम लोग उसे इतना नीच और त्‍याज्‍य समझते हो, यह कि आज तुम्‍हारी माताजी की बातें सुनकर मालूम हुआ । केवल इतनी-सी बात के लिए वह चढ़ावे के गहने देखने चली गयी थी, तुम्‍हारी माता ने उसे इस बुरी तरह झिड़का, जैसे कोई कुत्‍ते को भी न भिड़केगा । तुम कहोगे, इसमें मैं क्‍या करूं, मैं कर ही क्‍या सकता हूं । जिस घर में एक अनाथ स्‍त्री पर इतना अत्‍याचार हो, उस घर का पानी पीना भी हराम है। अगर तुमने अपनी माता को पहले ही दिन समझा दिया होता, तो आज यह नौबत न आती । तुम इस इलजाम से नहीं बच सकते । तुम्‍हारे घर में आज उत्‍सव है, मैं तुम्‍हारे माता-पिता से कुछ नहीं बातचीत नहीं कर सकता, लेकिन तुमसे कहने में संकोच नहीं हे कि मानी को को मैं अपनी जीवन सहचरी बनाकर अपने को धन्‍य समझूंगा । मैंने समझा था, अपना कोई ठिकाना करके तब यह प्रस्‍ताव करूंगा पर मुझे भय है कि और विलम्‍ब करने में शायद मानी से हाथ धोना पड़े, इसलिए तुम्‍हें और तुम्‍हारें घर वालों को चिन्‍ता से मुक्‍त करने के लिए मैं आज ही यह प्रस्‍ताव किए देता हूं ।

गोकुल के हदय में इंद्रनाथा के प्रति ऐसी श्रद्धा कभी न हुई थी । उस पर ऐसा सन्‍देह करके वह बहुत ही लज्जित  हुआ । उसने यह अनुभव भी किया कि माता के भय से मैं मानी के विषय में तटस्‍थ रहकर कायरता का दोषी हुआ हूं । यह केवल कायरता थी और कुछ नहीं । कुछ झेंपता हुआ बोला-अगर अम्‍मां ने मानी को इस बात पर झिड़का तो वह उनकी मूर्खता है। मैं उनसे अवसर मिलते ही पूछूँगा ।

इन्‍द्रनाथ-अब पूछने-पाछने का समय निकल गया। मैं चाहता हूं कि तुम मानी से इस विषय में सलाह करके मुझे बतला दो । मैं नहीं चाहता कि अब वह यहां क्षण-भर भी रहे । मुझे आज मालूम हुआ कि वह गर्विणी प्रकति की स्‍त्री है और सच पूछो तो मैं उसके स्‍वभाव पर मुग्‍ध हो गया हूं । ऐसी स्‍त्री अत्‍याचार नहीं सह सकती ।

गोकुल ने डरते-डरते कहा-लेकिन तुम्‍हें मालूम है, वह विधवा है ?

जब हम किसी के हाथों अपना असाधारण हित होते देखते हैं, तो हम अपनी सारी बुराइयों उसके सामने खोलकर रख देते हैं । हम उसे दिखाना चाहते हैं कि हम आपकी इस कृपा के सर्वथा योग्‍य नहीं है ।

इन्‍द्रनाथ ने मुस्‍कराकर कहा-जानता हूं सुन चुका हूं और इसीलिए तुम्‍हारे बाबूजी से कुछ कहने का मुझे अब तक साहस नहीं हुआ। लेकिन न जानता तो भी इसका मेरे निश्‍चय पर कोई अवसर न पड़ता। मानी विधवा ही नहीं, अछूत हो, उससे भी गयी-बीती अगर कुछ अगर कुछ हो सकती है, वह भी हो, ‍‍ फिर भी मेरे लिए वह रमणी-रत्‍न है । हम छोटे-छोटे कामों के लिए तजुर्बेकार आदमी खोजते हैं, जिसके साथ हमें जीवन-यात्रा करनी है, उसमें तजुर्बे का होना ऐब समझते है। मैं न्‍याय का गला घोटनेवालो में नहीं। विपति से बढ़कर तजुर्बा सिखाने वाला कोई विद्यालय आज तक नही खुला। जिसने इस विद्यालय में डिग्री ले ली, उसके हाथों में हम होकर जीवन की बागडोर दे सकते हैं । किसी रमणी का विधा होना मेरी आंखों में दोष नहीं, गुण है।

गोकुल ने पूछा-अगर तुम्‍हारे घरवाले आप‍ति करें तो ?

इन्‍द्रनाथ ने प्रसन्‍न होकर कहा-मैं अपने घरवालों को इतना मुर्ख नहीं समझता कि इस विषय में आपति करें, लेकिन वे आपति करें भी तो मैं अपनी किस्‍मत अपने हाथ में ही रखना पसंद करता हूं । मेरे बड़ों को मुझपर अनेकों अधिकार हैं । बहुत-सी बातों में मैं उनकी इच्‍छा को कानून समझता हूं, लेकिन जिस बात को मैं अपनी आत्‍मा के विकास के लिए शुभ समझता हूं, उसमें मैं किसी से दबना नहीं चाहता । मैं इस गर्व का आनन्‍द

उठाना चाहता हूं कि मैं स्‍वयं अपने जीवन का निर्माता हूं ।

गोकुल ने कुछ शंकित होकर कहा-और मानी न मंजूर करे ।

इन्‍द्रनाथ को यह शंका बिलकुल निर्मल जान पड़ी। बोले-तुम इस समय बच्‍चों की-सी बात कर रहे हो गोकुल। यह मानी हुई बात है मानी आसानी से मंजूर न करेगी । वह इस घर में ठोकरे, झिड़कियॉं सहेगी गालियॉं सुनेगी, पर इसी घर में रहेगी। युगों के संस्‍कारों को ‍मिटा देना आसान नहीं है, लेकिन हमें उसको राजी करना पड़ेगा। उसके मन से संचित संस्‍कारों को निकालना पड़ेगा । में विधवाओं के पुनर्विवाह के पक्ष में नहीं हूँ। मेरा ख्‍याल है कि पतिव्रत का यह अलौकिक आदर्श संसार का अमूल्‍य रत्‍न है और हमें बहुत सोच-समझकर उस पर आघात करना चाहिए, लेकिन मानी के विषय में यह बात नहीं उठती । प्रेम और भक्ति नाम से नहीं, व्‍यक्‍ति से होती है । जिस पुरूष से उसने सूरत भी नीं देखी, उससे उसे प्रेम नहीं हो सकता । केवल रस्‍म की बात है। इस आडम्‍बर की, इस दिखावे की, हमें परवाह नहीं करनी चाहिए । देखो, शायद कोई तुम्‍हें ‍बुला रहा है । मैं भी जा रहा हूं । दो-तीन दिन में ‍फिर मिलूंगा, मगर ऐसा न हो कि तुम संकोच में पड़कर सोचते-विचारते रह जाओ और दिन निकलते चले जाएं ।

गोकुल ने उसके गले में हाथ डालकर कहा-मैं परसों खुद ही आऊंगा।

बारात ‍विदा हो गई थी। मेहमान भी रूखसत हो गए। रात के नौ बज गए ‍थे। विवाह के बाद की नींद मशहूर है। घर के सभी लोग सरेशाम से सो रहे थे । कोई चरपाई पर, कोई तख्‍त पर, कोई जमीन पर, जिसे जहां जगह मिल गई, वहीं सो रहा था। केवल मानी घर की देखभाल कर रही थी और ऊपर गोकुल अपने कमरे में बैठा हुआ समाचार पढ़ रहा था।

सहसा गोकुल ने पुकारा-मानी, एक ग्‍लास ठंडा पानी तो लाना, प्‍यास लगी है।

मानी पानी लेकर ऊपर गई और मेज पर पानी रखकर लौटना ही चाहती थी कि गोकुल ने कहा-जरा ठहरो मानी, तुमसे कुछ कहना है ।

मानी ने कहा-अभी फुरसत नहीं है भाई, सारा घर सो रहा है। कहीं कोई घुस आए तो लोटा-थाली भी न बचे ।

गोकुल ने कहा-घुस आने दो, मैं तुम्‍हारी जगह होता, तो चोरों से मिलकर चोरी करवा देता। मुझे इसी वक्‍त इन्‍द्रनाथ से मिलना है। मैंने उससे आज मिलने का वचन दिया है-देखो संकोच मत करना, जो बात पूछ रहा हूं, उसका जल्द उतर देना । देर होगी तो वह घबराएगा । इन्‍द्रनाथ को तुमसे प्रेम है, यह तुम जानती हो न ?

मानी ने मुंह फेरकर कहा-यही बात कहने के लिए मुझे बुलाया था ? मैं कुछ नहीं जानती।

गोकुल-खैर, यह वह जाने या तुम जानो । वह तुमसे विवाह करना चाहता है। वैदिक रीति से विवाह होगा । तुम्‍हें स्‍वीकार है ?

मानी की गर्दन शर्म से झुक गई। वह कुछ जवाब न दे सकी।

गोकुल ने ‍‍फिर कहा-दादा और अम्‍मां से यह बात नहीं कही गई, इसका कारण तुम जानती ही हो । वह तुम्‍हें घुड़कियां दे-देकर जला-जलाकर चाहे मार डालें, पर विवाह करने की सम्‍मति कभी नहीं देंगे। इससे उनकी नाक कट जाऐगी, इसलिए अब इसका निर्णय तुम्‍हारे ही ऊपर है । मैं तो समझता हूं, तुम्‍हें स्‍वीकार कर लेना चाहिए । इंद्रनाथ तुमसे प्रेम करता ही है, यों भी निष्‍कलंक चरित्र आदमी और बला का दिलेर है । भय तो उसे छू ही नहीं गया । तुम्‍हें सुखी देखकर मुझे सच्‍चा आन्‍नद होगा ।

मानी के हदय में एक वेग उठ रहा था, मगर मुंह से आवाज न निकली ।

गोकुल ने अबी खीझकर कहा-देखो मानी, यह चुप रहने का समय नहीं है । क्‍या सोचती हो ?मानी ने कांपते स्‍वर में कहा-हां ।

गोकुल के हदय का बोझ हल्‍का हो गया । मुस्कुराने लगा । मानी शर्म के मारे वहा भाग गई ।

शाम को गोकुल ने अपनी मां से कहा-अम्‍मा, इंद्रनाथ के घर आज कोइ उत्‍सव है । उसकी माता अकेली घबड़ा रही थी कि कैसे सब काम होगा, मैंने कहा, मैं मानी को कल भेज दूंगा । तुम्‍हारी आज्ञा हो, तो मानी को पहुंचा दूँ। कल-परसों तक चली आयेगी।

मानी उसी वक्‍त वहां आ गई, गोकुल ने उसकी ओर कनखियों से ताका । मानी लज्‍जा से गड़ गई । भागने का रास्‍ता न मिला ।

मां ने कहा-मुझसे क्‍या पूछती हो, वह जाय, ले जाओ ।

गोकुल ने मानी से कहा-कपड़े पहनकर तैयार हो जाओ, तुम्‍हें इंद्रनाथ के घर चलना है ।

मानी ने आपत्ति की-मेरा जी अच्‍छा नहीं है, मैं न जाऊंगी।

गोकुल की मां ने कहा-चली क्‍यों नहीं जाती, क्‍या वहां कोई पहाड़ खोदना है?

मानी एक सफेद साड़ी पहनकर तांगे पर बैठी, तो उसका हदय कांप रहा था और बार-बार आंखों में आंसू भर आते थे । उकसा हदय बैठा जाता था, मानों नदी में डूबने जा रही हो।

तांगा कुछ दुर निकल गया तो उसने गोकुल से कहा-भैया, मेरा जी न जाने केसा हो रहा है। घर चलो, तुम्‍हारे पैर पड़ती ।

गोकुल ने कहा-तू पागल है। वहां सब लोग तेरी राह देख रहे है और तू कहती है लौट चलो।

मानी-मेरा मन कहता है, कोई अनिष्‍ट होने वाला है ।

गोकुल-और मेरा मन कहता है तू रानी बनने जा रही है ।

मानी-दस-पांच दिन ठहर क्‍यों नहीं जाते ? कह देना, मानी बीमार है।

गोकुल-पागलों की-जैसी बातें न करो।

मानी-लोग कितना-हंसेंगे।

गोकुल-मैं शुभ कार्य कें किसी की हंसी की परवाह नहीं करता।

मानी-अम्मा तुम्‍हें घर में घुसने न देंगी। मेरे कारण तुम्‍हें भी झिड़कियां  मिलेंगी ।

गोकुल-इसकी कोई परवाह नहीं है । उसकी तो यह आदत ही है ।

तांगा पहुंच गया। इंद्रनाथ की माता विचारशील महिला थीं। उन्‍होंन आकर वधू को उतारा और भीतर ले गयी।

गोकुल वहां से घर चला तो ग्‍यारह बज रहे थे। एक ओर तो शुभ कार्य के पूरा करने का आनंद था, दूसरी ओर भय था कि कल मानी न जाएगी, तो लोगों को क्‍या जवाब दूंगा । उसने निश्‍चय किया, चलकर साफ-साफ कह दूं। छिपाना व्‍यर्थ है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों तो सब-कुछ कहना ही पड़ेगा। आज ही क्‍यों न कह दूं।

यह निश्‍चय करके घर में दाखिल हुआ ।

माता ने किवाड़ खोलते हुए कहा-इतनी रात तक क्‍या करने लगे ? उसे भी क्‍यों न लेते आये ? कल सवेरे चौका-बर्तन कौन करेगा ?

गोकुल ने सिर झुकाकर कहा-वह तो अब शायद लोटकर न आये अम्‍मा, उसके वहीं रहने का प्रबंध हो गया है।

माता ने आंखे फाड़कर कहा-क्‍या बकता है, भला वह वहां कैसे रहेगी?

गोकुल-इंद्रनाथ से उसका विवाह हो गया है।

माता मानो आकाश से गिर पड़ी। उन्‍हें कुछ सुध न रही कि मेंरे मुंह से क्‍या निकल रहा है, कुलांगार, भड़वा, हरामजादा, न जाने क्‍या-क्‍या कहा। यहां तक कि गोकुल का धैर्य चरन सीमा का उल्‍लंघन कर गया । उसका मुंह लाल हो गया, त्‍योरियॉ चढ़ गई, बोला-अम्‍मा, बस करो। अब, मुझमें इससे ज्‍यादा सुनने की सामर्थ्‍य नहीं है । अगर मेने कोई अनुचित कर्म किया होता, तो आपकी  जूतियां खाकर  भी सिर न उठाता, मगर मैंने कोई अनुचित कर्म नहीं किया । मैंने वही किया जो ऐसी दशा में मेंरा कर्तव्‍य था और जो हर एक भले आदमी को  करना चाहिए । तुम मुर्ख हो, तुम्‍हें नहीं मालूम कि समय की क्‍या प्रगति । इसीलिए अब तक मैनें धैर्य के साथ् तुम्‍हारी गालियां सुनी । तुमने, और मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि पिताजी ने भी, मानी के जीवन का नारकीय बना रखा था । तुमने उसे ऐसी-ऐसी ताड़नाऍ दीं, जो कोई अपने शत्रु को भी न देगा । इसीलिए न कि वह तुम्‍हारी आश्रित थी ? इसी लिए न कि वह अनाथिन थी ? अब वह तुम्‍हारी गालियां खाने न आएगी । जिस दिन तुम्‍हारे घर विवाह का उत्‍सव हो रहा था, तुम्‍हारे ही एक कठोर वाक्‍य से आहत होकर वह आत्‍महत्‍या करने जा रही थी। इंद्रनाथ उस समय ऊपर न पहुंच जाते तो आज हम, तुम, सारा घर हवालात में बैठा होता ।

माता ने आंखे मटकाकर कहा-आहा । कितने सपूत बेटे हो तुम, कि सारे घर को संकट से बचा लिया । क्‍यों न हो ? अभी बहन की बारी है । कुछ दिन में मुझे ले जाकर किसी के गले में बांध आना। ‍फिर तुम्‍हारी चांदी हो जायेगी। यह रोजगार सबसे अच्‍छा है। पढ़ लिखकर क्‍या करोगे?

गोकुल मर्म-वेदना से तिलमिला उठा । व्‍यथित कंठ से बोला-ईश्‍वर न करे कि कोई बालक तुम जैसी माता के गर्भ से जन्‍म ले । तुम्‍हारा मुंह देखना भी पाप है ।

यह कहता हुआ वह घर से निकल पड़ा और उन्‍मत्तों की तरह एक तरफ चल खड़ा हुआ । जोर से झोंके चल रहे थे, पर उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि साँस  लेने ‍के लिए हवा नहीं है ।

एक सप्‍ताह बीत गया पर गोकुल का कहीं पता नहीं। इंद्रनाथ को बम्‍बई में एक जगह मिल गई थी। वह वहां चला गया था। वहां रहने का प्रबंध करके वह अपनी माता को तार देगा और तब सास और बहू चली जाएगी । वंशीधर को पहले संदेह हुआ कि गोकुल इंद्रनाथ के घर छिपा होगा, पर जब वहां पता न चला तो उन्‍होंने सारे शहर में खोज-पूछ शुरू की। जितने मिलने वाले, मित्र, स्‍नेही, सम्‍बन्‍धी थे, सभी के घर गए, पर सब जगह से साफ जवाब ‍पाया। दिन-भर दौड़-धूप कर शाम को घर आते, तो स्‍त्री के आड़े हाथों लेते-और कोसो लड़के को, पानी पी-पीकर कोसो। न जाने तुम्‍हें कभी बु‍द्धि आयेगी भी या नहीं। गयी थी चुड़ैल, जाने देती। एक बोझ सिर से टला। एक महरी रख लो, काम चल जाएगा। जब वह न थी, तो घर क्‍या भूखों मरता था ? विधवाओं के पुनर्विवाह चारों ओर तो हो रहे हैं, यह कोई अनहोनी बात नहीं है। हमारे बस की बात होती, तो विधवा-विवाह के पक्षपातियों को देश से निकाल देते, शाप देकर जला देते, लेकिन यह हमारे बस की बात नहीं। फिर तुमसे इतना भी न हो सका कि मुझसे तो पूछ लेतीं। मैं जो उचित समझता, करता। क्‍या तुमने समझा था, मैं दफ्तर से लौटकर आऊंगा ही नहीं, वहीं अत्ये‍षिट हो जाएगी ? बस, लड़के पर टूट पड़ी। अब रोओ, खूब दिल खोलकर।

संध्या हो गई थी। वंशीधर स्त्री को फटकारें सुनाकर द्वार पर उद्वेग की दशा में टहल रहे थे। रह-रहकर मानी पर क्रोध आता था। इसी राक्षसी के कारण मेरे घर का सर्वनाश हुआ न जाने किस बुरी साइत में आई कि घर को मिटाकर छोड़ा। वो न  आई  होती, तो आज क्‍यों यह बुरे दिन ‍देखने पड़ते । ‍कितना होनहार, कितना प्रतिभाशाली लड़का था । न जाने कहां गया ?

एकाएक एक बुढिया उनके समीप आयी और बोली-बाबू साहब, यह खत लायी हूं, ले लीजिए ।

वंशीधर ने लपककर बुढिया के हाथ से पत्र ले लिया, उनकी छाती आशा से धक-धक करने लगी । गोकुल ने शायद यह पत्र लिखा होगा । अंधेरे में कुछ ने सुझा । पूछा-कहाँ से आयी है ?

बुढिया ने कहा-वह जो बाबू हुसनेगंज में रहते हैं, जो बम्‍बई में नौकर हैं, उन्‍हीं की बहु ने भेजा है ।

वंशीधर ने कमरे में जाकर लैम्‍प जलाया और पत्र पढ़ने लगे । मानी का खत था लिखा था ।

‘पूज्‍य चाचाजी, आभागिनी मानी का प्रणाम स्‍वीकार कीजिए।

मुझे यह सुनकर अत्‍यन्‍त दु:ख हुआ कि गोकुल भैया कहीं चले गए और अब तक उनका पता नहीं है । मैं ही इसका कारण हूं । यह कलंक मेरे ही मुख पर लगना था वह भी लग गया । मेरे कारण आपको इतना शोक हुआ, इसका मुझे बहुत दु:ख है, मगर भैया आएंगे अवश्‍य, इसका मुझे विश्‍वास है। मैं भी नौ बजे वाली गाड़ी से बम्‍बई जा रही हूं।  मुझसे जो कुछ अपराध हुआ है, उसे क्षमा कीजिएगा और चाची से मेरा प्रणाम कहिएगा। मेरी ईश्‍वर से यही प्रार्थना है कि शीघ्र ही गोकुल भैया सकुशल घर लौट आए। ईश्‍वर की इच्छा  हुई तो भैया के विवाह में आपके चरणों के दर्शन करूंगी ।

वंशीधर ने पत्र को फाड़कर पुर्जे-पुर्जे कर डाला । घड़ी में देखा तो आठ बज रहे थे । तुरन्‍त कपड़े पहने, सड़क पर आकर एक्‍का किया और स्‍टेशन चले ।

बम्‍बई मेल प्‍लेटफार्म पर खड़ा था । मुसा‍फिरों में भगदड़ मची हुई थी। खोमचे वालों की चीख-पुकार से कान पड़ी आवाज न सुनाई देती थी। गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर थी मानी और उसकी सास एक जनाने कमरे में ‍बैठी हुई थी । मानी सजल नेत्रों से सामने ताक रही थी । अतीत चाहे दुख:द ही क्‍यों न हो, उसकी स्मृतियाँ मधुर होती हैं । मानी आज बुरे दिनों को स्‍मरण करके दु:खी हो रही थी । गोकुल से अब न जाने कब भेंट होगी। चाचाजी आ जाते तो उनके दर्शन कर लेती । कभी-कभी बिगड़ते थे तो क्‍या, उसके भले ही के लिए तो डांटते थे। वह आवेंगे नहीं। अब तो गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर है । कैसे आये, समाज में हलचल न मच जाएगी। भगवान की इच्‍छा होगी, तो अबकी जब यहाँ  आऊंगी, तो जरूर उनके दर्शन करूंगी ।

एकाएक उसने लाला वंशीधर को आते देखा । वह गाड़ी से निकलकर बाहर खड़ी हो गई और चाचाजी की ओर बढ़ी । चरणों पर गिरना चाहती थी कि वह पीछे हट गए और आँखे  निकालकर बोले-मुझे मत छू, दूर रह, अभगिनी कहीं की । मुंह की कालिख लगाकर मुझे पत्र लिखती है । तुझे मौत नहीं आती। तूने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया। आज तक गोकुल का पता नहीं है । तेरे कारण वह घर से निकला और तू अभी तक मेरी छाती पर मूंग दलने को बैठी है । तेरे लिए क्‍या गंगा में पानी नहीं है ? मैं तुझे कुलटा, ऐसी हरजाई समझता, तो पहले दिन तेरा गला घोंट देता । अब मुझे अपनी भक्‍ति दिखलाने चली है । तेरे जैसी पापिष्‍ठाओं का मरना ही अच्‍छा है, पृथ्वी का बोझ कम हो जाएगा ।

प्‍लेटफार्म पर सैकड़ो आदमियों की भीड़ लग गई थी और वंशीधर निर्लज्‍ज भाव से गालियों की बौछार कर रहे थे । किसी की समझ में न आता था, क्‍या माजरा है, पर मन से सब लाला को ‍धिक्‍कार रहे ‍थे ।

मानी पाषाण-मूर्ति के सामान खड़ी थी, मानो वहीं जम गई हो । उसका सारा अभिमान चूर-चूर हो गया । ऐसा जी चाहता था, धरती फट जाए और मैं समा जाऊं, कोई वज्र गिरकर उसके जीवन-अधम जीवन-का अन्‍त कर दे । इतने आदमियों के सामने उसका पानी उतर गया। उसी आंखों से पानी की एक बूंद भी न निकला । हदय में आंसू न थे । उसकी जग एक दावनल-सा दहक रहा था, जो मानो वेग से मस्‍तिष्‍क की ओर बढ़ता चला जाता था । संसार में कौन जीवन इतना अधम होगा ।

सास ने पुकारा-बहू, अन्‍दर आ जाओ ।

गाड़ी चली तो माता ने कहा-ऐसा बेशर्म आदमी नहीं देखा । मुझे तो ऐसा क्रोध आ रहा था कि उसका मुंह नोच लूं ।

मानी ने सिर ऊपर न उठाया।

माता ‍फिर बोली-न जाने इन सडियलों ‍को बुद्धि कब आएगी, अब तो मरने के दिन भी आ गए। पूछो, तेरा लड़का भागा तो हम क्‍या करें; अगर ऐसे पापी ने होते तो यह वज्र क्‍यों गिरता।

मानी ने फिर भी मुंह न खोला। शायद उसे कुछ सुनाई ही न दिया था। शायद उसे अपने असित्‍तव का ज्ञान भी न था । वह टकटकी लगाए खिड़की की ओर ताक रही थी। उस अंधकार में जाने क्‍या सूझ रहा था।

कानपुर आया। माता ने पूछा-बेटी, कुछ खाओगी ? थोड़ी-सी मिठाई खा लो; दस कब के बज गए।

मानी ने कहा-अभी तो भूख नहीं है अम्‍मा, फिर खा लूंगी।

माताजी सोई। मानी भी लेटी; पर चचा की वह सूरत आंखों के सामने खड़ी थी और उनकी बातें कानों में गूंज रही थीं-आह, मैं इतनी नीच हूं, ऐसी पतित, कि मेरे मर जाने से पृथ्वी  का भार हल्‍का हो जाएगा ? क्‍या कहा था, तू अपने माँ-बाप की बेटी है तो फिर मुंह मत दिखाना । न दिखाऊंगी, जिस मुंह पर ऐसी कालिमा लगी हुई है, उसे किसी को दिखाने की इच्‍छा भी नहीं है ।

गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी । मानी ने अपना ट्रंक खोला और अपने आभूषण निकालकर उसमें रख दिए। ‍फिर इंद्रनाथ का चित्र निकालकर उसे देर तक देखती रही । उसकी आखों से गर्व की एक झलक-सी दिखाई दी। उसने तस्वीर रख दी और आप-ही-आप बोली-नहीं-नहीं, मैं तुम्‍हारे जीवने को कलंकित नहीं कर सकती । तुम देवतुल्‍य हो, तुमने मुझ पर दया की है। मैं अपने पूर्व संस्‍कारों का प्रायश्‍चित कर रही थी । तुमने मुझे उठाकर हदय से लगा लिया; लेकिन मैं तुम्‍हें कलंकित न करूंगी । तुमने मुझसे प्रेम है । तुम मेरे लिए अनादर, अपमान, निन्‍दा सब स‍ह लोगे; पर मैं तुम्‍हारे जीवन का भार न ‍बनूंगी ।

गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी। मानो आकाश की ओर इतनी देर तक देखती रही कि सारे तारे अदय हो गए और उस अन्‍धकार में उसे अपनी माता का स्‍वरूप दिखाई दिया-ऐसा प्रत्‍यक्ष कि उसने चौंककर आंखें बन्‍द कर लीं।

न जाने कितनी रात गुजर चुकी थी। दरवाजा खुलने की आहट से माता जी की आंखें खुल गईं। गाड़ी तेजी से चलती जा रही थी; मगर बहू का पता न था वह आखें मलकर उठ बैठी और पुकारा-बहू। बहू। कोई जवाब न मिला।

उसका हदय धक-धक करने लगा । ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, पेशाबखान में देखा, बेंचों के नीचे देखा, बहू कहीं न थी । तब वह द्वार पर आकर खड़ी हो गई । बहू का क्‍या हुआ, यह द्वार किसने खोला ? कोई गाड़ी में तो नहीं आया । उसका जी घबराने लगा । उसने किवाड़ बन्‍द कर दिया और जोर-जोर से रोने लगी । किससे पूछे ? डाकगाड़ी अब न जाने कितनी देर में रूकेगी । कहती थी, बहू, मरदानी गाड़ी में बैठें । मेरा कहना न माना । कहने लगी, अम्‍माजी, आपको सोने की तकलीफ होगी । यही आराम दे गई।

सहसा उसे खतरे की जंजीर याद आई । उसने जोर-जोर से कई बार जंजीर खींची । कई मिनट के बाद गाड़ी रूकी । गार्ड आया । पड़ोस के कमरे से दो-चार आदमी और भी आये । फिर लोगों ने सारा कमरा तलाश किया। नीचे तख्‍ते को ध्‍यान से देखा । रक्‍त का कोई चिन्‍ह न था । असबाब की जांच की । बिस्‍तर, संदूक, संदुकची, बरतन सब मौजूद थे । ताले भी सबसे बंद थे । कोई चीज गायब न थी । अगर बाहर से कोई आदमी आता, तो चलती गाड़ी से जाता कहाँ? एक स्‍त्री को लेकर गाड़ी से कूदना असम्‍भव था । सब लोग इन लक्षणों से इसी नतीजे पर पहुचे कि मानी द्वार खोलकर बाहर झाकने लगी होगी और मुठिया हाथ से छूट जाने के कारण गिर पड़ी होगी । गार्ड भला आदमी था । उसने नीचे उतरकर एक मील तक सड़क के दोनों तरफ तलाश किया । मानी को कोई निशान न मिला । रात को इससे ज्‍यादा और क्‍या किया जा सकता था ? माताजी को कुछ लोग आग्रहपूर्वक एक मरदाने डब्‍बे में ले गए । यह निश्‍चय हुआ कि माताजी अगले स्‍टेशन पर उतर पड़े और सबेरे इधर-उधर दूर तक देख-भाल की जाए ।

विपत्ति में हम परमुखपेक्षी हो जाते हैं । माताजी कभी इसका मुंह देखती, कभी उसका । उसकी याचना से भरी हुई आंखें मानो सबसे कह रही थीं-कोई मेरी बच्‍ची को खोज क्‍यों नहीं लाता ? हाय, अभी तो बेचारी की चुंदरी भी नहीं मैली हुई । कैसे-कैसे साधों और अरमानों से भरी पति के पास जा रही थी । कोई उस दुष्‍ट वंशीधर से जाकर कहता क्‍यों ‍नहीं-ले तेरी मनोभिलाषा पूरी हो गई- जो तू चाहता था, वह पूरा हो गया । क्‍या अब भी तेरी छाती नहीं जुडती ।

वृद्धा  बैठी रो रही थी और गाड़ी अंधकार को चीरती चली जाती थी ।

रविवार का दिन था । संध्‍या समय इंद्रनाथ दो-तीन मित्रों के साथ अपने घर की छत पर बैठा हुआ था । आपस में हास-परिहास हो रहा था । मानी का आगमन इस परिहास का विषय था ।

एक मित्र बोले-क्‍यों इंद्र, तुमने तो वैवाहिक जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें क्‍या सलाह देते हो ? बनाए कहीं घोसला, या यों ही डालियों पर बैठे-बैठे दिन काटें ? पत्र-पत्रिकाओं को देखकर तो यही मालूम होता है कि वैवाहिक जीवन और नरक में कुछ थोड़ा ही-सा अंतर है ।

इंद्रनाथ ने मुस्‍कराकर कहा-यह तो तकदीर का खेल है, भाई, सोलहों आना तकदीर का । अगर एक दशा में वैवाहिक जीवन नरकतुल्‍य है, तो दूसरी दशा में वर्ग में कम नहीं ।

दूसरे मित्र बोलै -इतनी आजादी तो भला क्‍या रहेगी ?

इंद्रनाथ—इतनी क्या, इसका शतांश भी न रहेगी। अगर तुम रोज सिनेमा देखकर बारह बजे लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और दफ्तर से चार बजे लौटकर ताश खेलना चाहते हो, तो तुम्हें विवाह करने से कोई सुख न होगा और जो हर महीने सूट बनवाते हो, तब शायद साल-भर भी न बनवा सको।

‘श्रीमतीजी, तो आज रात की गाड़ी से आ रही है?’

‘हॉँ, मेल से। मेरे साथ चलकर उन्हें रिसीव करोगे न?’

‘यह भी पूछने की बात है। अब घर कौन जाता है, मगर कल दावत खिलानी पड़ेगी।‘

सहमा तार के चपरासी ने आकर इंद्रनाथ के हाथ में तार का लिफाफा रख दिया।

इंद्रनाथ का चेहरा खिल उठा। झट तार खोलकर पढ़ने लगा। एक बार पढ़ते ही उसका हृदय धक हो गया, साँस रूक गई, सिर घूमने लगा। ऑंखों की रोशनी लुप्त हो गई, जैसे विश्व पर काला परदा पड़ गया हों उसने तार को मित्रों के सामने फेंक दिया ओर दोनों हाथों से मुँह ढॉँपकर फूट-फूटकर रोने लगा। दोनों मित्रों ने घबड़ाकर तार उठा लिया और उसे पढ़ते ही हतबुद्धि-से हो दीवार की ओर ताकने लगे। क्या सोच रहे थे ओर क्या हो गया।

तार में लिखा था—मानी गाड़ी से कूद पड़ी। उसकी लाश लालपुर से तीन मील पर पाई गई। मैं लालपुर में हूँ, तुरंत आओ।

एक मित्र ने कहा—किसी शत्रु ने झूठी खबर न भेज दी हो?

दूसरे मित्र ने बोले—हॉँ, कभी-कभी लोग ऐसी शरारतें करते हें।

इंद्रनाथ ने शून्य नेत्रों से उनकी ओर देखा, पर मुँह से कुछ बोले नहीं।

कई मिनट तीनों आदमी निर्वाक् निस्पंद बैठे रहे। एकाएक इंद्रनाथ खड़े हो गए और बोले—मैं इस गाड़ी से जाऊंगा।

बम्बई से नौ बजे को गाड़ी छूटती थी। दोनों ने चटपट बिस्तर आदि बाँधकर तैयार कर दिया। एक ने बिस्तर उठाया, दूसरे ने ट्रंक। इंद्रनाथ ने चटपट कपड़े पहने और स्टेशन चले। निराशा आगे थी, आशा रोती हुई पीछे।

एक सप्ताह गुजर गया था। लाला वंशीधर दफ्तर से आकर द्वार पर बैठे ही थे कि इंद्रनाथ ने आकर प्रणाम किया। वंशीधर उसे देखकर चौंक पड़े, उसके अनपेक्षित आगमन पर नहीं, उसकी विकृत दशा पर, मानो तीतराग शोक सामने खड़ा हो, मानो कोई हृदय से निकली हुई आह मूर्तिमान् हो गई हों

वंशीधर ने पूछा—तुम तो बम्बई चले गए थे न?

इंद्रनाथ ने जवाब दिया—जी हॉँ, आज ही आया हूँ।

वंशीधर ने तीखे स्वर में कहा—गाकुल को तो तुम ले बीते! आये? तुमसे कहॉँ उसकी भेंट हुई? क्या बम्बई चला गया था?

‘जी नहीं, कल मैं गाड़ी से उतरा तो स्टेशन पर मिल गए।‘

‘तो जाकर लिवी लाओ न, जो किया अच्छा किया।‘

यह कहते हुए वह घर में दौड़े। एक क्षण में गोकुल की माता ने उसे उंदर बुलाया।

वह अंदर गया तो माता ने उसे सिर से पॉँव तक देखा—तुम बीमार थे क्या भैया?

इंद्रनाथ ने हाथ—मुँह धोते हुए कहा —मैंने तो कहा था, चलो, लेकिन डर के मारे नहीं आते।

‘और था कहॉँ इतने दिन?’

‘कहते थे, देहातों में घूमता रहा।‘

‘तो क्या तुम अकेले बम्बई से आये हो?’

‘जी नहीं, अम्मॉँ भी आयी हैं।

गोकुल की माता ने कुछ सकुचाकर पूछा— मानी तो अच्छी तरह है?

इंद्रनाथ ने हँसकर कहा—जी हॉँ, अब वह बड़े सुख से हैं। संसार के बंधनों से छूट गई।

माता ने अविश्वास करके कहा—जी हॉँ, अब वह बड़े सुख से है। संसार के बंधनों से छूट गई।

माता ने अविश्वास करके कहा—चल, नटखट कही का! बेचारी को कोस रहा है, मगर जल्दी बम्बई से लौट क्यों आये?

इंद्रनाथ ने मुस्काते हुए कहा—क्या करता! माताजी का तार बम्बई में मिला कि मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दें दिए। वह लालपुर में पड़ी हुई थी, दौड़ा हुआ आया। वहीं दाह-क्रिया कीं आज घर चला आया। अब मेरा अपराध क्षमा कीजिए।

वह और कुछ न कह सका। ऑंसुओ के वेग ने गला बंद कर दियां जेब से एक पत्र निकालकर माता के सामने रखता हुआ बोला—उसके संदूक में यही पत्र मिला है।

गोकुल की माता कई मितट तक मर्माहत—सी बैठी जमीन की ओर ताकती रही! शोक और उससे अधिक पश्चाताप ने सिर को दबा रखा था। फिर पत्र उठाकर पढ़ने लगी—

‘स्वामी,

जब यह पत्र आपके हाथों में पहुँचेगा, तब तक में इस संसार से विदा हो जाऊँगी। मैं बड़ी अभागिन हूँ। मेरे लिए संसार में स्थान नहीं हे। आपको भी मेरे कारण क्लेश और निन्दा ही मिलेगी। मैने सोचकर देखा ओर यही निश्चय किया कि मेरे लिए मरना ही अच्छा हे। मुझ पर आपने जो दया की थी, उसके लिए आपको क्या प्रतिदान करूँ? जीवन में मेंने कभी किसी वस्तु की इच्छा नहीं की, परन्तु मुझे दु:ख है कि आपके चरणों पर सिर रखकर न मर सकी। मेरी अंतिम याचना है कि मेरे लिए आप शोंक न कीजिएगा। ईश्वर आपको सदा सुखी रखे।‘

माताजी ने पत्र रख दिया और ऑंखों से ऑंसू बहने लगे। बरामदे में वंशीधर  निस्पंद खड़े थे और जैसे मानी लज्जानत उनके सामने खड़ी थी।

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