दोस्तों, हमारा देश सदियों से ही ऋषि मुनियों, कवियों, साहित्यकारों, और संगीतकरों आदि जैसे गुणों से भरपूर महापुरुषों की जन्म और कर्मभूमि रहा है। इन महापुरुषों द्वारा रचित हजारों रचनाये अनमोल हैं। आज की युवापीढ़ी इस डिजिटल युग में मानों कही खोयीं जा रही है और हम अपने धरोहर और अनमोल खजाने से कोसों दूर होते जा रहे हैं। subkuz.com की लगातार यही कोशिश रहती है की हम इन अनमोल खजानो के साथ साथ मनोरंजन कहानियां, समाचार, और देश विदेश की जानकारियां भी आप तक पहुचायें। यहाँ प्रस्तुत है आपके सामने मुंशी प्रेमचंद्र द्वारा रचित ऐसी ही एक अनमोल कहानी जो काफी प्रेरणादायक भी है।
विरजन की विदा
राधाचरण रूड़की कालेज से निकलते ही मुरादाबाद के इंजीनियर नियुक्त हुए और चन्द्रा उनके संग मुरादाबाद को चली। प्रेमवती ने बहुत रोकना चाहा, पर जानेवाले को कौन रोक सकता है। सेवती कब की ससुराल आ चुकी थी। यहां घर में अकेली प्रेमवती रह गई। उसके सिर घर का काम-काज पडा। निदान यह राय हुई कि विरजन के गौने का संदेशा भेजा जाए। डिप्टी साहब सहमत न थे, परन्तु घर के कामों में प्रेमवती ही की बात चलती थी।
संजीवनलाल ने संदेशा स्वीकार कर लिया। कुछ दिनों से वे तीर्थयात्रा का विचार कर रहे थे। उन्होंने क्रम-क्रम से सांसारिक संबंध त्याग कर दिये थे। दिन-भर घर में आसन मारे भगवदगीता और योगवाशिष्ठ आदि ज्ञान-संबन्धिनी पुस्तकों का अध्ययन किया करते थे। संध्या होते ही गंगा-स्नान को चले जाते थे। वहां से रात्रि गये लौटते और थोड़ा-सा भोजन करके सो जाते। प्राय: प्रतापचन्द्र भी उनके संग गंगा-स्नान को जाता। यद्यपि उसकी आयु सोलह वर्ष की भी न थी, पर कुछ तो यनिज स्वभाव, कुछ पैतृक संस्कार और कुछ संगति के प्रभाव से उसे अभी से वैज्ञानिक विषयों पर मनन और विचार करने में बडा आनन्द प्राप्त होता था। ज्ञान तथा ईश्वर संबन्धिनी बातें सुनते-सुनते उसकी प्रवृति भी भक्ति की ओर चली थी, और किसी-किसी समय मुन्शीजी से ऐसे सूक्ष्म विषयों पर विवाद करता कि वे विस्मित हो जाते। वृजरानी पर सुवामा की शिक्षा का उससे भी गहरा प्रभाव पड़ा था जितना कि प्रतापचन्द्र पर मुन्शीजी की संगति और शिक्षा का। उसका पन्द्रहवा वर्ष था। इस आयु में नयी उमंगें तरंगित होती है और चितवन में सरलता चंचलता की तरह मनोहर रसीलापन बरसने लगता है। परन्तु वृजरानी अभी वही भोली-भाली बालिका थी। उसके मुख पर हृदय के पवित्र भाव झलकते थे और वार्तालाप में मनोहारिणी मधुरता उत्पन्न हो गयी थी। प्रात:काल उठती और सबसे प्रथम मुन्शीजी का कमरा साफ करके, उनके पूजा-पाठ की सामग्री यथोचित रीति से रख देती। फिर रसोई घर के धन्धे में लग जाती। दोपहर का समय उसके लिखने-पढने का था। सुवामा पर उसका जितना प्रेम और जितनी श्रद्वा थी, उतनी अपनी माता पर भी न रही होगी। उसकी इच्छा विरजन के लिए आज्ञा से कम न थी।
सुवामा की तो सम्मति थी कि अभी विदाई न की जाए। पर मुन्शीजी के हठ से विदाई की तैयारियां होने लगीं। ज्यों-ज्यों वह विपति की घडी निकट आती, विरजन की व्याकुलता बढ़ती जाती थी। रात-दिन रोया करती। कभी पिता के चरणों में पड़ती और कभी सुवामा के पदों में लिपट जाती। पार विवाहिता कन्या पराये घर की हो जाती है, उस पर किसी का क्या अधिकार।
प्रतापचन्द्र और विरजन कितने ही दिनों तक भाई-बहन की भांति एक साथ रहें। पर जब विरजन की आंखे उसे देखते ही नीचे को झुक जाती थीं। प्रताप की भी यही दशा थी। घर में बहुत कम आता था। आवश्यकतावश आया, तो इस प्रकार दृष्टि नीचे किए हुए और सिमटे हुए, मानों दुलहिन है। उसकी दृष्टि में वह प्रेम-रहस्य छिपा हुआ था, जिसे वह किसी मनुष्य-यहां तक कि विरजन पर भी प्रकट नहीं करना चाहता था।
एक दिन सन्ध्या का समय था। विदाई को केवल तीन दिन रह गये थे। प्रताप किसी काम से भीतर गया और अपने घर में लैम्प जलाने लगा कि विरजन आयी। उसका अंचल आंसुओं से भीगा हुआ था। उसने आज दो वर्ष के अनन्तर प्रताप की ओर सजल-नेत्र से देखा और कहा-लल्लू। मुझसे कैसे सहा जाएगा ?
प्रताप के नेत्रों में आंसू न आये। उसका स्वर भारी न हुआ। उसने सुदृढ भाव से कहा-ईश्वर तुम्हें धैर्य धारण करने की शक्ति देंगे।
विरजन का सिर झुक गया। आंखें पृथ्वी में पड़ गयीं और एक सिसकी ने हृदय-वेदना की यह अगाध कथा वर्णन की, जिसका होना वाणी द्वारा असंभव था।
विदाई का दिन लडकियों के लिए कितना शोकमय होता है। बचपन की सब सखियों-सहेलियों, माता-पिता, भाई-बन्धु से नाता टूट जाता है। यह विचार कि मैं फिर भी इस घर में आ सकूंगी, उसे तनिक भी संतोष नहीं देता। क्यों अब वह आयेगी तो अतिथिभाव से आयेगी। उन लोगों से विलग होना, जिनके साथ जीवनोद्यान में खेलना और स्वातंद्त्रय-वाटिका में भ्रमण करना उपलब्ध हुआ हो, उसके हृदय को विदीर्ण कर देता है। आज से उसके सिर पर ऐसा भार पडता है, जो आमरण उठाना पडेगा।
विरजन का श्रृगांर किया जा रहा था। नाइन उसके हाथों व पैरों में मेंहदी रचा रही थी। कोई उसके बाल गूंथ रही थी। कोई जुडे में सुगन्ध बसा रही थी। पर जिसके लिये ये तैयारियां हो रही थी, वह भूमि पर मोती के दाने बिखेर रही थी। इतने में बारह से संदेशा आया कि मुर्हूत टला जाता है, जल्दी करों। सुवामा पास खडी थी। विरजन, उसके गले लिपट गयी और अश्रु-प्रवाह का आंतक, जो अब तक दबी हुई अगिन की नाई सुलग रहा था, अकस्मात् ऐसा भडक उठा मानों किसी ने आग में तेल डाल दिया है।
थोडी देर में पालकी द्वार पर आयी। विरजन पडोस की स्त्रियों से गले मिली। सुवामा के चरण छुए, तब दो-तीन स्त्रियों ने उसे पालकी के भीतर बिठा दिया। उधर पालकी उठी, इधर सुवामा मूर्च्छित हो भूमि पर गिर पडी, मानों उसके जीते ही कोई उसका प्राण निकालकर लिये जाता था। घर सूना हो गया। सैकंडों स्त्रियों का जमघट था, परन्तु एक विरजन के बिना घर फाडे खाता था।
तो ये थी महान लेखक मुंशी प्रेमचंद जी की एक प्रेरणादायक कहानी I इस कहानी से हमें बहुत सी नयी चीजे सिखने को मिलती है I subkuz की पूरी टीम इसी प्रयास में रहती है की अपने विजिटर्स के लिए रोज प्रेरणादायक कहानिया देखने को मिले I ऐसी ही प्रेरणादायक, ज्ञानवर्धक कहानियां पढ़ते रहिये subkuz.com पर।