दोस्तों, हमारा देश सदियों से ही ऋषि मुनियों, कवियों, साहित्यकारों, और संगीतकरों आदि जैसे गुणों से भरपूर महापुरुषों की जन्म और कर्मभूमि रहा है। इन महापुरुषों द्वारा रचित हजारों रचनाये अनमोल हैं। आज की युवापीढ़ी इस डिजिटल युग में मानों कही खोयीं जा रही है और हम अपने धरोहर और अनमोल खजाने से कोसों दूर होते जा रहे हैं। subkuz.com की लगातार यही कोशिश रहती है की हम इन अनमोल खजानो के साथ साथ मनोरंजन कहानियां, समाचार, और देश विदेश की जानकारियां भी आप तक पहुचायें। यहाँ प्रस्तुत है आपके सामने मुंशी प्रेमचंद्र द्वारा रचित ऐसी ही एक अनमोल कहानी जो काफी प्रेरणादायक भी है।
ईर्ष्या
प्रतापचन्द्र ने विरजन के घर आना-जाना विवाह के कुछ दिन पूर्व से ही त्याग दिया था। वह विवाह के किसी भी कार्य में सम्मिलित नहीं हुआ। यहॉ तक कि महफिल में भी न गया। मलिन मन किये, मुहॅ लटकाये, अपने घर बैठा रहा, मुंशी संजीवन लाला, सुशीला, सुवामा सब बिनती करके हार गये, पर उसने बारात की ओर दृष्टि न फेरी। अंत में मुंशीजी का मन टूट गया और फिर कुछ न बोले। यह दशा विवाह के होने तक थी। विवाह के पश्चात तो उसने इधर का मार्ग ही त्याग दिया। स्कूल जाता तो इस प्रकार एक ओर से निकल जाता, मानों आगे कोई बाघ बैठा हुआ है, या जैसे महाजन से कोई ऋणी मनुष्य ऑख बचाकर निकल जाता है। विरजन की तो परछाई से भागता। यदि कभी उसे अपने घर में देख पाता तो भीतर पग न देता। माता समझाती-बेटा। विरजन से बोलता-चालता क्यों नहीं ? क्यों उससे यसमन मोटा किये हुए हो ? वह आ-आकर घण्टों रोती है कि मैने क्या किया है जिससे वह रूष्ट हो गया है। देखों, तुम और वह कितने दिनों तक एक संग रहे हो। तुम उसे कितना प्यार करते थे। अकस्मात् तुमको क्या हो गया? यदि तुम ऐसे ही रूठे रहोगे तो बेचारी लड़की की जान पर बन जायेगी। सूखकर कॉटा हो गया है। ईश्वर ही जानता है, मुझे उसे देखकर करूणा उत्पन्न होती है। तुम्हारी र्चचा के अतिरिक्त उसे कोई बात ही नहीं भाती।
प्रताप ऑखें नीची किये हुए सब सुनता और चुपचाप सरक जाता। प्रताप अब भोला बालक नहीं था। उसके जीवनरूपी वृक्ष में यौवनरूपी कोपलें फूट रही थी। उसने बहुत दिनों से-उसी समय से जब से उसने होश संभाला-विरजन के जीवन को अपने जीवन में र्शकरा क्षीर की भॉति मिला लिया था। उन मनोहर और सुहावने स्वप्नों का इस कठोरता और निर्दयता से धूल में मिलाया जाना उसके कोमल हृदय को विदीर्ण करने के लिए काफी था, वह जो अपने विचारों में विरजन को अपना सर्वस्व समझता था, कहीं का न रहा, और अपने विचारों में विरजन को अपना सर्वस्व समझता था, कहीं का न रहा, और वह, जिसने विरजन को एक पल के लिए भी अपने ध्यान में स्थान न दिया था, उसका सर्वस्व हो गया। इस विर्तक से उसके हृदय में व्याकुलता उत्पन्न होती थी और जी चाहता था कि जिन लोगों ने मेरी स्वप्नवत भावनाओं का नाश किया है और मेरे जीवन की आशाओं को मिटटी में मिलाया है, उन्हें मैं भी जलाउं। सबसे अधिक क्रोध उसे जिस पर आता था वह बेचारी सुशीला थी।
शनै:-शनै: उसकी यह दशा हो गई कि जब स्कूल से आता तो कमलाचरण के सम्बन्ध की कोई घटना अवश्य वर्णन करता। विशेष कर उस समय जब सुशीला भी बैठी रहती। उस बेचारी का मन दुखाने में इसे बडा ही आनन्द आता। यद्यपि अव्यक्त रीति से उसका कथन और वाक्य-गति ऐसी हृदय-भेदिनी होती थी कि सुशीला के कलेजे में तीर की भांति लगती थी। आज महाशय कमलाचरण तिपाई के ऊपर खड़े थे, मस्तक गगन का स्पर्श करता था। परन्तु निर्लज्ज इतने बड़े कि जब मैंने उनकी ओर संकेत किया तो खड़े-खड़े हॅसने लगे। आज बडा तमाशा हुआ। कमला ने एक लड़के की घडी उड़ा दी। उसने मास्टर से शिकायत की। उसके समीप वे ही महाशय बैठे हुए थे। मास्टर ने खोज की तो आप ही फेटें से घडी मिली। फिर क्या था ? बडे मास्टर के यहॉ रिपोर्ट हुई। वह सुनते ही झ्ल्ला गये और कोई तीन दर्जन बेंतें लगायीं, सड़ासड़। सारा स्कूल यह कौतूहल देख रहा था। जब तक बेंतें पड़ा की, महाश्य चिल्लाया किये, परन्तु बाहर निकलते ही खिलखिलानें लगे और मूंछों पर ताव देने लगे। चाची। नहीं सुना ? आज लडको ने ठीक सकूल के फाटक पर कमलाचरण को पीटा। मारते-मारते बेसुध कर दिया। सुशीला ये बातें सुनती और सुन-सुसनकर कुढती। हॉ। प्रताप ऐसी कोई बात विरजन के सामने न करता। यदि वह घर में बैठी भी होती तो जब तक चली न जाती, यह चर्चा न छेडता। वह चाहता था कि मेरी बात से इसे कुछ दुख: न हो।
समय-समय पर मुंशी संजीवन लाल ने भी कई बार प्रताप की कथाओं की पुष्टि की। कभी कमला हाट में बुलबुल लड़ाते मिल जाता, कभी गुण्डों के संग सिगरेट पीते, पान चबाते, बेढंगेपन से घूमता हुआ दिखायी देता। मुंशीजी जब जामाता की यह दशा देखते तो घर आते ही स्त्री पर क्रोध निकालते- यह सब तुम्हारी ही करतूत है। तुम्ही ने कहा था घर-वर दोनों अच्छे हैं, तुम्हीं रीझी हुई थीं। उन्हें उस क्षण यह विचार न होता कि जो दोषारोपण सुशील पर है, कम-से-कम मुझ पर ही उतना ही है। वह बेचारी तो घर में बन्द रहती थी, उसे क्या ज्ञात था कि लडका कैसा है। वह सामुद्रिक विद्या थोडी ही पढी थी ? उसके माता-पिता को सभ्य देखा, उनकी कुलीनता और वैभव पर सहमत हो गयी। पर मुंशीजी ने तो अकर्मण्यता और आलस्य के कारण छान-बीन न की, यद्यपि उन्हें इसके अनेक अवसर प्राप्त थे, और आलस्य के कारण छान-बीन न की, यद्यपि उन्हें इसके अनेक अवसर प्राप्त थे, और मुंशीजी के अगणित बान्धव इसी भारतवर्ष में अब भी विद्यमान है जो अपनी प्यारी कन्याओं को इसी प्रकार नेत्र बन्द करके कुए में ढकेल दिया करते हैं।
सुशीला के लिए विरजन से प्रिय जगत में अन्य वस्तु न थी। विरजन उसका प्राण थी, विरजन उसका धर्म थी और विरजन ही उसका सत्य थी। वही उसकी प्राणाधार थी, वही उसके नयनों को ज्योति और हृदय का उत्साह थी, उसकी सर्वौच्च सांसारिक अभिलाषा यह थी कि मेरी प्यारी विरजन अच्छे घर जाय। उसके सास-ससुर, देवी-देवता हों। उसके पति शिष्टता की मूर्ति और श्रीरामचंद्र की भांति सुशील हो। उस पर कष्ट की छाया भी न पडे। उसने मर-मरकर बड़ी मिन्नतों से यह पुत्री पायी थी और उसकी इच्छा थी कि इन रसीले नयनों वाली, अपनी भोली-भाली बाला को अपने मरण-पर्यन्त आंखों से अदृश्य न होने दूंगी। अपने जामाता को भी यही बुलाकर अपने घर रखूंगी। जामाता मुझे माता कहेगा, मैं उसे लडका समझूगी। जिस हृदय में ऐसे मनोरथ हों, उस पर ऐसी दारूण और हृदयविदारणी बातों का जो कुछ प्रभाव पड़ेगा, प्रकट है।
हां। हन्त। दीना सुशीला के सारे मनोरथ मिट्टी में मिल गये। उसकी सारी आशाओं पर ओस पड़ गयी। क्या सोचती थी और क्या हो गया। अपने मन को बार-बार समझाती कि अभी क्या है, जब कमला सयाना हो जाएगी तो सब बुराइयां स्वयं त्याग देना। पर एक निन्दा का घाव भरने नहीं पाता था कि फिर कोई नवीन घटना सूनने में आ जाती। इसी प्रकार आघात-पर-आघात पडते गये। हाय। नहीं मालूम विरजन के भाग्य में क्या बदा है ? क्या यह गुन की मूर्ति, मेरे घर की दीप्ति, मेरे शरीर का प्राण इसी दुष्कृत मनुष्य के संग जीवन व्यतीत करेगी ? क्या मेरी श्यामा इसी गिद्व के पाले पडेगी ? यह सोचकर सुशीला रोने लगती और घंटों रोती रहती है। पहिले विरजन को कभी-कभी डांट-डपट भी दिया करती थी, अब भूलकर भी कोई बात न कहती। उसका मुह देखते ही उसे याद आ जाती। एक क्षण के लिए भा उसे सामने से अदृश्य न होने देगी। यदि जरा देर के लिए वह सुवामा के घर चली जाती, तो स्वयं पहुंच यजाती। उसे ऐसा प्रतीत होता मानों कोई उसे छीनकर ले भागता है। जिस प्रकार वाधिक की छुरी के तले अपने बछड़े को देखकर गाय का रोम-रोम कांपने लगता है, उसी प्रकार विरजन के दुख का ध्यान करके सुशीला की आंखों में संसार सूना जाना पडता था। इन दिनों विरजन को पल-भर के लिए नेत्रों से दूर करते उसे वह कष्ट और व्याकुलता होती,जो चिडिया को घोंसले से बच्चे के खो जाने पर होती है।
भावष्यि की असाध्य चिन्ता और जलन ने उसे और भी धुला डाला। निन्दाओं ने कलेजा चली कर दिया। छ: मास भी बीतने न पाये थे कि क्षयरोग के चिहृन दिखायी दिए। प्रथम तो कुछ दिनों तक साहस करके अपने दु:ख को छिपाती रही, परन्तु कब तक ? रोग बढने लगा और वह शक्तिहीन हो गयी। चारपाई से उठना कठिन हो गया। वैद्य और डाक्टर औषघि करने लगे। विरजन और सुवामा दोनों रात-दिन उसके पांस बैठी रहती। विरजन एक पल के लिए उसकी दृष्टि से ओझल न होती। उसे अपने निकट न देखकर सुशीला बेसुध-सी हो जाती और फूट-फूटकर रोने लगती। मुंशी संजीवनलाल पहिले तो धैर्य के साथ दवा करते रहे, पर जब देखा कि किसी उपाय से कुछ लाभ नहीं होता और बीमारी की दशा दिन-दिन निकृष्ट होती जाती है तो अंत में उन्होंने भी निराश हो उद्योग और साहस कम कर दिया। आज से कई साल पहले जब सुवामा बीमार पडी थी तब सुशीला ने उसकी सेवा-शुश्रूषा में पूर्ण परिश्रम किया था, अब सुवामा बीमार पडी थी तब सुशीला ने उसकी सेवा-सुश्रूषा में पूर्ण परिश्रम किया था,अब सुवामा की बारी आयी। उसने पडोसी और भगिनी के धर्म का पालन भली-भांति किया। रूगण-सेवा में अपने गृहकार्य को भूल-सी गई। दो-दों तीन-तीन दिन तक प्रताप से बोलने की नौबत न आयी। बहुधा वह बिना भोजन किये ही स्कूल चला जाता। परन्तु कभी कोई अप्रिय शब्द मुख से न निकालता। सुशीला की रूग्णावस्थ ने अब उसकी द्वेषारागिन को बहुत कम कर दिया था। द्वेष की अग्नि द्वेष्टा की उन्नति और दुर्दशा के साथ-साथ तीव्र और प्रज्जवलित हो जाती है और उसी समय शान्त होती है जब द्वेष्टा के जीवन का दीपक बुझ जाता है।
जिस दिन वृजरानी को ज्ञात हो जाता कि आज प्रताप बिना भोजन किये स्कूल जा रहा है, उस दिन वह काम छोड़कर उसके घर दौड़ जाती और भोजन करने के लिए आग्रह करती, पर प्रताप उससे बात न करता, उसे रोता छोड बाहर चला जाता। निस्संसदेह वह विरजन को पूर्णत:निर्दोष समझता था, परन्तु एक ऐसे संबध को, जो वर्ष छ: मास में टूट जाने वाला हो, वह पहले ही से तोड़ देना चाहता था। एकान्त में बैठकर वह आप-ही-आप फूट-फूटकर रोता, परन्तु प्रेम के उद्वेग को अधिकार से बाहर न होने देता। एक दिन वह स्कूल से आकर अपने कमरे में बैठा हुआ था कि विरजन आयी। उसके कपोल अश्रु से भीगे हुए थे और वह लंबी-लंबी सिसकियां ले रही थी। उसके मुख पर इस समय कुछ ऐसी निराशा छाई हुई थी और उसकी दृष्टि कुछ ऐसी करूणोंत्पादक थी कि प्रताप से न रहा गया। सजल नयन होकर बोला-‘क्यों विरजन। रो क्यों रही हो ? विरजन ने कुछ उतर न दिया, वरना और बिलख-बिलखकर रोने लगी। प्रताप का गाम्भीर्य जाता रहा। वह निस्संकोच होकर उठा और विरजन की आंखों से आंसू पोंछने लगा। विरजन ने स्वर संभालकर कहा-लल्लू अब माताजी न जीयेंगी, मैं क्या करूं ? यह कहते-कहते फिर सिसकियां उभरने लगी।
प्रताप यह समाचार सुनकर स्तब्ध हो गया। दौड़ा हुआ विरजन के घर गया और सुशीला की चारपाई के समीप खड़ा होकर रोने लगा। हमारा अन्त समय कैसा धन्य होता है। वह हमारे पास ऐसे-ऐसे अहितकारियों को खींच लाता है, जो कुछ दिन पूर्व हमारा मुख नहीं देखना चाहते थे, और जिन्हें इस शक्ति के अतिरिकत संसार की कोई अन्य शक्ति पराजित न कर सकती थी। हां यह समय ऐसा ही बलवान है और बडे-बडे बलवान शत्रुओं को हमारे अधीन कर देता है। जिन पर हम कभी विजय न प्राप्त कर सकते थे, उन पर हमको यह समय विजयी बना देता है। जिन पर हम किसी शत्रु से अधिकार न पा सकते थे उन पर समय और शरीर के श्क्तिहीन हो जाने पर भी हमको विजयी बना देता है। आज पूरे वर्ष भर पश्चात प्रताप ने इस घर में पर्दापण किया। सुशीला की आंखें बन्द थी, पर मुखमण्डल ऐसा विकसित था, जैसे प्रभातकाल का कमल। आज भोर ही से वह रट लगाये हुए थी कि लल्लू को दिखा दो। सुवामा ने इसीलिए विरजन को भेजा था।
सुवामा ने कहा-बहिन। आंखें खोलों। लल्लू खड़ा है।
सुशीला ने आंखें खोल दीं और दोनों हाथ प्रेम-बाहुल्य से फैला दिये। प्रताप के हृदय से विरोध का अन्तिम चिहृन भी विलीन हो गया। यदि ऐसे काल में भी कोई मत्सर का मैल रहने दे, तो वह मनुष्य कहलाने का हकदार नहीं है। प्रताप सच्चे पुत्रत्व-भाव से आगे बढ़ा और सुशीला के प्रेमांक में जा लिपटा। दोनों आधे घंण्टे तक रोते रहे। सुशीला उसे अपने दोनों बांहों में इस प्रकार दबाये हुए थी मानों वह कहीं भागा जा रहा है। वह इस समय अपने को सैंकडों घिक्कार दे रहा था कि मैं ही इस दुखिया का प्राणहारी हूं। मैने ही द्वेष-दुरावेग के वशीभूत होकर इसे इस गति को पहुंचाया है। मैं ही इस प्रेम की मूर्ति का नाशक हूं। ज्यों-ज्यों यह भावना उसके मन में उठती, उसकी आंखों से आंसू बहते। निदान सुशीला बोली-लल्लू। अब मैं दो-एक दिन की और मेहमान हूं। मेरा जो कुछ कहा-सुना हो, क्षमा करो।
प्रताप का स्वर उसके वश में न था, इसलिए उसने कुछ उतर न दिया।
सुशीला फिर बोली-न जाने क्यों तुम मुझसे रूष्ट हो। तुम हमारे घर नही आते। हमसे बोलते नहीं। जी तुम्हें प्यार करने को तरस-तरसकर रह जाता है। पर तुम मेरी तनिक भी सुधि नहीं लेते। बताओं, अपनी दुखिया चाची से क्यों रूष्ट हो ? ईश्वर जानता है, मैं तुमको सदा अपना लड़का समझती रही। तुम्हें देखकर मेरी छाती फूल उठती थी। यह कहते-कहते निर्बलता के कारण उसकी बोली धीमी हो गयी, जैसे क्षितिज के अथाह विस्तार में उड़नेवाले पक्षी की बोली प्रतिक्षण मध्यम होती जाती है-यहां तक कि उसके शब्द का ध्यानमात्र शेष रह जाता है। इसी प्रकार सुशीला की बोली धीमी होते-होते केवल सांय-सांय रह गयी।
तो ये थी महान लेखक मुंशी प्रेमचंद जी की एक प्रेरणादायक कहानी I इस कहानी से हमें बहुत सी नयी चीजे सिखने को मिलती है I subkuz की पूरी टीम इसी प्रयास में रहती है की अपने विजिटर्स के लिए रोज प्रेरणादायक कहानिया देखने को मिले I ऐसी ही प्रेरणादायक, ज्ञानवर्धक कहानियां पढ़ते रहिये subkuz.com पर।