रामनगर में शंकर नाम का एक कंजूस सुनार रहता था। वह अपनी पत्नी और बेटे के साथ छोटे से घर में रहता था। एक समय ऐसा आया कि शंकर पर भारी कर्ज हो गया। कर्ज चुकाने का कोई रास्ता नहीं दिखा तो उसने सोचा कि अपनी पत्नी के गहने बेचकर उधार चुका दिया जाए। मगर अपनी पत्नी के गहने बेचना उसके लिए आसान नहीं था।
एक दिन शंकर ने चालाकी से अपनी पत्नी से कहा, "तुम्हारे गहने पुराने हो गए हैं। क्यों न हम इन्हें बदलकर नए बनवा लें?" उसकी पत्नी ने सहमति दे दी। शंकर ने असली गहने बेचकर पैसे जमा किए और नकली गहने खरीदकर अपनी पत्नी को दे दिए। कुछ समय बाद शंकर की मृत्यु हो गई। घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया। छिपाए हुए पैसों की जानकारी उसकी पत्नी को नहीं थी।
एक दिन, शंकर की पत्नी ने अपने बेटे से कहा, "बेटा, ये गहने लेकर पारस चाचा के पास जाओ और गिरवी रखकर पैसे ले आओ।" बेटा गहने लेकर पारस चाचा के पास गया। पारस चाचा ने गहने देखकर कहा, "बेटा, अभी मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं। ये गहने वापस ले जाओ और ये थोड़े से पैसे रख लो। साथ ही तुम मेरे पास काम भी कर सकते हो, जिससे तुम्हें काम भी सीखने मिलेगा और थोड़ी मदद भी हो जाएगी।"
छल, संघर्ष और सच का सामना
लड़का पारस चाचा के पास काम सीखने लगा और धीरे-धीरे असली और नकली गहनों की पहचान करने लगा। कुछ साल बाद पारस चाचा ने उससे उसकी माँ के गहने फिर से लाने को कहा। अगली सुबह वह लड़का गहने लेकर आया। पारस चाचा ने कहा, "इन गहनों को ध्यान से देखो और असली-नकली की पहचान करो।"
लड़के ने गहनों को देखा और सन्न रह गया। उसके मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे। उसने धीरे से पूछा, "चाचा, जब मैं पहली बार ये गहने लाया था, तब आपने बताया क्यों नहीं कि ये नकली हैं?"
सच की समय पर समझदारी
पारस चाचा मुस्कुराते हुए बोले, "बेटा, अगर उस समय मैं सच बता देता, तो तुम्हारी माँ को गहरा सदमा लगता। हो सकता था कि लोग ये भी सोचते कि मैं तुम्हारी मजबूरी का फायदा उठा रहा हूँ। मुझे लगा, सच को समझने का समय आएगा, और आज वह समय आ गया है।" लड़का घर जाकर माँ को सब बताता है। माँ समझ जाती है कि शंकर ने उससे कैसे छल किया था। अगली सुबह, लड़का और उसकी माँ पारस चाचा के पास जाकर उनका आभार व्यक्त करते हैं। पारस चाचा की समझदारी और संवेदनशीलता ने उस परिवार को टूटने से बचा लिया।
नैतिक शिक्षा
सच्चाई कभी छिपती नहीं, सही समय पर सामने आ ही जाती है। किसी की मजबूरी का मजाक नहीं बनाना चाहिए, बल्कि उसे सहारा देना चाहिए।