बॉम्बे हाई कोर्ट ने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश ए.एस. गडकरी और न्यायमूर्ति नीला गोखले की खंडपीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है।
मुंबई: बॉम्बे हाईकोर्ट ने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी UAPA (Unlawful Activities Prevention Act) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश ए. एस. गडकरी और न्यायमूर्ति नीला गोखले की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा कि UAPA अपने वर्तमान स्वरूप में पूरी तरह संवैधानिक रूप से वैध है। ऐसे में इसके प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
इस महत्वपूर्ण फैसले के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि UAPA के तहत की जा रही कार्यवाहियों और इसके प्रावधानों को लेकर उठाई गई संवैधानिक शंकाओं को बॉम्बे हाईकोर्ट ने ठोस आधार नहीं माना।
क्या था मामला?
यह याचिका महाराष्ट्र के अनिल बाबूराव बैले नामक व्यक्ति ने वर्ष 2021 में दायर की थी। याचिकाकर्ता बैले का नाम चर्चित एल्गार परिषद मामले (Elgar Parishad Case) से जुड़ा हुआ है। उन्हें वर्ष 2020 में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) द्वारा नोटिस भेजा गया था। इसी के बाद उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर कर UAPA और भारतीय दंड संहिता (IPC) की अब निलंबित की जा चुकी धारा 124A (देशद्रोह) को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की थी।
बैले ने याचिका में यह दलील दी थी कि UAPA के प्रावधानों के जरिए केंद्र सरकार अथवा कार्यपालिका को यह अधिकार मिल जाता है कि वे किसी भी व्यक्ति या संगठन को 'गैरकानूनी' घोषित कर सकते हैं, जबकि कानून में 'गैरकानूनी गतिविधि' की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है।
याचिका में रखे गए मुख्य तर्क
अनिल बाबूराव बैले ने अपनी याचिका में यह भी कहा कि वर्ष 2001 में किए गए संशोधनों के जरिये UAPA में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) के प्रस्तावों को लागू करने का प्रावधान किया गया, जिसके आधार पर सरकार को यह अधिकार मिल जाता है कि वह किसी भी भारतीय नागरिक या संगठन को 'आतंकवादी' घोषित कर सकती है, यदि वह अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का समर्थन करता हो।
याचिकाकर्ता का तर्क था कि भारत का संविधान कार्यपालिका को ऐसा कोई विशेषाधिकार नहीं देता कि वह अपनी मर्जी से किसी संगठन या व्यक्ति को गैरकानूनी या आतंकवादी करार दे सके। उन्होंने यह भी कहा कि संसद को भी इस प्रकार का 'असीमित अधिकार' नहीं दिया जा सकता, जिससे किसी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो।
याचिका में उठाई गईं अन्य मांगें
अनिल बाबूराव बैले ने कोर्ट से यह भी आग्रह किया था कि उन्हें 10 जुलाई 2020 को भेजे गए एनआईए के नोटिस को रद्द किया जाए। उनका कहना था कि यह नोटिस भी असंवैधानिक प्रावधानों के आधार पर ही भेजा गया था और इस आधार पर नोटिस को भी अमान्य करार दिया जाना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ए. एस. गडकरी और न्यायमूर्ति नीला गोखले की पीठ ने स्पष्ट कहा कि UAPA की वैधता को लेकर याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत किए गए सभी तर्क संविधान के प्रावधानों और वर्तमान कानून के ढांचे में स्वीकार्य नहीं हैं।
कोर्ट ने कहा कि UAPA राष्ट्रपति की मंजूरी से पारित एक केंद्रीय कानून है और इसकी वैधता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। कोर्ट ने यह भी कहा कि UAPA देश की आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद से लड़ने के लिए जरूरी कानून है। इसके तहत दिए गए अधिकार असंवैधानिक नहीं माने जा सकते क्योंकि ये देशहित में बनाए गए हैं और इनका दुरुपयोग रोकने के लिए भी पर्याप्त न्यायिक व्यवस्थाएं मौजूद हैं।
कोर्ट ने अपने फैसले में यह दोहराया कि UAPA संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) के विपरीत नहीं है। इस कानून के तहत कार्यपालिका को कुछ विशेषाधिकार दिए गए हैं, लेकिन वह भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आते हैं।