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फिरोज़ शाह कोटला: इतिहास, आस्था और रहस्य से भरा दिल्ली का प्राचीन किला

फिरोज़ शाह कोटला: इतिहास, आस्था और रहस्य से भरा दिल्ली का प्राचीन किला

दिल्ली की ऐतिहासिक धरोहरों में एक नाम ऐसा है, जो समय की परतों में छिपे अनेक रहस्यों और गौरवशाली इतिहास को समेटे हुए है। यह नाम है फिरोज़ शाह कोटला। यह केवल एक किला नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास, वास्तुकला, धार्मिक मान्यताओं और रहस्यमय परंपराओं का अद्वितीय संगम है। इस लेख में हम फिरोज़ शाह कोटला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, स्थापत्य कला, धार्मिक महत्व और सामाजिक प्रभाव का विश्लेषण करेंगे।

तुगलककालीन स्थापत्य की भव्य मिसाल

फिरोज़ शाह कोटला का निर्माण 1354 ईस्वी के आसपास दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश के सुल्तान फिरोज़ शाह तुगलक ने करवाया था। इसका उद्देश्य अपनी नई राजधानी 'फिरोज़ाबाद' को सुरक्षित बनाना था। कोटला शब्द का अर्थ है 'किला' या 'गढ़', और यह स्थल यमुना नदी के किनारे बसा हुआ था, जिससे जल आपूर्ति और व्यापार में सुविधा होती थी। किले का निर्माण तुगलक शैली में हुआ है जिसमें मजबूत पत्थरों का प्रयोग, सरलता और कार्यकुशलता प्राथमिकताएं थीं। इसकी विशाल दीवारें, बुर्जियां और स्थापत्य के अन्य अवशेष तुगलक शासन की सैन्य शक्ति और स्थापत्य दृष्टिकोण को उजागर करते हैं।

अशोक स्तंभ: मौर्य युग की गूंज

फिरोज़ शाह कोटला की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक है अशोक स्तंभ। यह तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व का एक पॉलिश किया गया बलुआ पत्थर का स्तंभ है, जिसे मौर्य सम्राट अशोक ने बनवाया था। यह स्तंभ मूलतः हरियाणा के टोपरा गाँव में स्थित था। फिरोज़ शाह तुगलक ने इसे 14वीं शताब्दी में दिल्ली मंगवाया और कोटला परिसर में स्थापित किया। इस स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में शिलालेख हैं, जिन्हें बाद में अंग्रेज विद्वान जेम्स प्रिंसेप ने 1837 में डिकोड किया। इन शिलालेखों में अशोक द्वारा समाज में नैतिकता, दया, अहिंसा और धर्म के प्रचार की बातें अंकित हैं। स्तंभ की स्थापत्य और ऐतिहासिक महत्ता इसे एक राष्ट्रीय धरोहर बनाती है।

जामी मस्जिद: तुगलकी वास्तुकला की जीवंत मिसाल

फिरोज़ शाह कोटला के परिसर में स्थित जामी मस्जिद दिल्ली की सबसे पुरानी और अभी तक उपयोग में लाई जा रही मस्जिदों में से एक है। इसका निर्माण चूना पत्थर और क्वार्टजाइट पत्थर से हुआ है। यह मस्जिद ऊंचे तहखानों पर बनी है, जिनके ऊपर प्रार्थना कक्ष और विशाल प्रांगण स्थित हैं। मस्जिद का प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में है, जो अशोक स्तंभ से जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि तैमूर ने जब 1398 में दिल्ली पर आक्रमण किया, तो उसने इसी मस्जिद में नमाज़ अदा की थी और इसकी वास्तुकला से इतना प्रभावित हुआ कि उसने समरकंद में इसी की नकल पर एक मस्जिद बनवाई।

गोलाकार बावली: जल संरचना की अनूठी मिसाल

कोटला परिसर में स्थित गोलाकार बावली दिल्ली की एकमात्र ऐसी बावली है जो पूरी तरह गोल आकार में निर्मित है। यह भूमिगत है और इसका पानी एक भूमिगत नहर के माध्यम से आता था। इसमें दो स्तर थे और ऊपर एक छत थी जो अब ढह चुकी है। सुरक्षा कारणों से यह बावली अब आम जनता के लिए बंद रहती है।

रहस्यमयी जिन्नों की नगरी

फिरोज़ शाह कोटला केवल इतिहास और वास्तुकला के लिए नहीं, बल्कि जिन्नों की मान्यताओं के कारण भी प्रसिद्ध है। हर गुरुवार को सैकड़ों लोग यहां अपनी दुआएं, प्रार्थनाएं और मुरादें लेकर आते हैं। माना जाता है कि यहां रहने वाले जिन्न इन मुरादों को सुनते हैं और पूरी भी करते हैं। दीवारों पर चिपके हुए कागज़, अगरबत्तियां, फूल और ताले इन आस्थाओं के साक्षी हैं। यह परंपरा अपेक्षाकृत नई है, जिसकी शुरुआत 1977 के आसपास आपातकाल के बाद मानी जाती है। परंतु अब यह स्थान एक धार्मिक तीर्थ जैसा रूप ले चुका है, जहां आध्यात्मिक शांति की तलाश में लोग आते हैं।

सांस्कृतिक विरासत और आधुनिक उपयोग

स्वतंत्रता से पहले के दौर में फिरोज़ शाह कोटला सांस्कृतिक आयोजनों का भी प्रमुख केंद्र रहा है। शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियां और ऐतिहासिक नाटक यहां आयोजित किए जाते थे। 1964 में प्रसिद्ध नाटककार धर्मवीर भारती का नाटक "अंधा युग" यहां मंचित हुआ था, जिसमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी उपस्थित थे। आज भी यह स्थान कलाकारों, इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और पर्यटकों के लिए एक आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इसके पास ही स्थित फिरोज़ शाह कोटला स्टेडियम ने भी इस स्थान की पहचान को वैश्विक स्तर पर फैलाया है।

संरक्षण और भविष्य की चुनौतियां

फिरोज़ शाह कोटला एक संरक्षित स्मारक है, जिसकी देखरेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है। हालांकि, समय और प्रदूषण के कारण इसके कई हिस्से खंडहर में बदल चुके हैं। बढ़ती आबादी, अतिक्रमण और धार्मिक गतिविधियों की अधिकता इसके संरक्षण के लिए चुनौती बन चुकी हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि इसके महत्व को समझते हुए सरकार और आमजन मिलकर इसके संरक्षण की दिशा में कार्य करें।

फिरोज़ शाह कोटला केवल एक ऐतिहासिक किला नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति और आस्था का जीवंत प्रतीक है। इसकी दीवारें इतिहास की गवाह हैं, स्तंभ नैतिकता का संदेश देते हैं, मस्जिद धार्मिक सहिष्णुता की मिसाल है, और बावली पर्यावरणीय समझदारी का उदाहरण। आज भी यह किला न केवल दिल्ली बल्कि भारत की विविधता और एकता को दर्शाता है। ऐसे धरोहरों का महत्व केवल अतीत तक सीमित नहीं होता, ये आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत होते हैं। फिरोज़ शाह कोटला एक ऐसा ही स्थल है – जहां इतिहास बोलता है, और भविष्य सीखता है।

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