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पंचायत 4 रिव्यू: क्या चौथे सीजन में गुम हो गई ‘फुलेरा’ की सादगी और हंसी? फैंस बोले- इमोशन है, पंच गायब हैं

पंचायत 4 रिव्यू: क्या चौथे सीजन में गुम हो गई ‘फुलेरा’ की सादगी और हंसी? फैंस बोले- इमोशन है, पंच गायब हैं

'पंचायत 4' में इमोशन तो हैं लेकिन पहले जैसी हंसी और सादगी कम हो गई है, जिससे फैंस थोड़ा निराश हैं।

Review: लंबे इंतज़ार के बाद प्राइम वीडियो पर ‘पंचायत सीजन 4’ रिलीज़ हो गया है। ‘फुलेरा’ गांव के सीधे-सादे लोगों की ज़िंदगी और उनकी छोटी-बड़ी टकराहटों पर आधारित यह वेब सीरीज़ अब एक ब्रांड बन चुकी है। लेकिन जब किसी शो से उम्मीदें आसमान छूने लगें, तो संतुष्ट करना आसान नहीं होता। पंचायत के चौथे सीजन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है।

इस बार कहानी, भावनाओं और राजनीति के इर्द-गिर्द घूमती है, लेकिन जिन पंचों ने इस शो को ‘क्लासिक’ बनाया था — वो हास्य, वो सरलता और वो सहज संवाद — कहीं न कहीं इस सीजन में फीके से नजर आए।

कहानी की दिशा बदली, भावनाएं बढ़ीं लेकिन रफ्तार हुई धीमी

सीज़न 4 की कहानी वहीं से शुरू होती है, जहां पिछली किस्त ने छोड़ा था — सचिव जी (जितेंद्र कुमार), प्रधान जी (रघुबीर यादव), मनोज (चंदन रॉय), रिंकी (संजिका), प्रह्लाद (फैसल मलिक) और बाकी गांववालों के साथ फुलेरा की सियासत और संबंधों की परतें और गहराई से खोली गई हैं।

लेकिन इस बार, कहानी की गति धीमी है। राजनीति के विस्तार में जाने की कोशिश अच्छी है, पर कई बार स्क्रिप्ट खुद को दोहराती सी लगती है। गांव की मासूमियत और हल्के-फुल्के हास्य की जगह भारी भावनाएं और राजनीतिक द्वंद्व ने ले ली है।

फैंस की मिली-जुली प्रतिक्रिया: 'फुलेरा की रूह तो है, पर पंच गायब है'

सोशल मीडिया पर शो को लेकर रिएक्शन काफी मिश्रित हैं।

एक यूज़र ने लिखा, 'पंचायत 4 में वो जादू नहीं है जो पहले था। हर सीजन में हम हंसते थे, यहां हम सोचते ज्यादा हैं।'

वहीं, दूसरे ने कहा, ‘आशीर्वाद’ एपिसोड ने दिल छू लिया, लेकिन बाकी सीजन में कई बार लगा कि कहानी को खींचा गया है।'

ऐसा लग रहा है कि शो इस बार अपनी ‘सिंपलनेस’ को थोड़ा खो बैठा है। जहां पहले संवाद चुटीले होते थे, अब कई बार संवाद बोझिल महसूस होते हैं। हालांकि इमोशनल हिस्से अब भी दर्शकों को कनेक्ट करते हैं।

एक्टिंग पर अब भी भरोसा कायम, फैसल मलिक का अभिनय रहा शानदार

अगर किसी चीज़ ने इस बार शो को सहारा दिया है, तो वह है एक्टिंग।

फैसल मलिक (प्रह्लाद) की परफॉर्मेंस खासतौर पर ‘आशीर्वाद’ एपिसोड में दर्शकों को भावुक कर गई। जितेंद्र कुमार ने हमेशा की तरह एक सहज और जिम्मेदार सचिव की भूमिका निभाई है।

नीना गुप्ता और रघुबीर यादव की केमिस्ट्री में वही पुराना स्वाद है, लेकिन स्क्रिप्ट में सीमित स्पेस के कारण वे उतना नहीं चमक पाए।

चंदन रॉय (मनोज उर्फ विकास) ने फिर एक बार दर्शकों को अपने भोलेपन और सहजता से हंसाया, पर इस बार उनका स्क्रीन टाइम कम रहा।

क्या कहानी अब अपने मूल से भटक रही है?

शुरुआती सीजनों में ‘पंचायत’ एक नॉन-ग्लैमरस, असली गांव की झलक देती थी — जहां एक दिल्ली से पढ़ा-लिखा लड़का गांव की समस्याओं में उलझता है और वहीं मानवीय रिश्तों से जुड़ता है।

अब यह शो धीरे-धीरे पॉलिटिकल ड्रामा की ओर झुक रहा है। कुछ हद तक यह ट्रैक सही लगता है, क्योंकि गांवों की राजनीति भी यथार्थ का हिस्सा है, लेकिन अगर कॉमिक बैलेंस न मिले तो यह भारीपन शो की आत्मा को डगमगा सकता है।

आगे क्या?

सीजन 4 का अंत एक बार फिर ऐसे किया गया है कि दर्शक बेसब्री से सीजन 5 का इंतजार करें। लेकिन फैंस अब यह भी चाह रहे हैं कि अगली किस्त में शो अपने जड़ों की ओर लौटे — वो हल्के-फुल्के मज़ाक, गुदगुदाने वाले पल और देसी सरलता, जो ‘पंचायत’ को बाकी सीरीज से अलग बनाती थी।

एक यूज़र ने एक्स पर लिखा, 'अगर पंचायत 5 में भी इतना ही गंभीर माहौल रहा, तो शायद हम उसे ‘पॉलिटिकल पंचायत’ कहना शुरू कर दें।'

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