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राजा भारमल: आमेर के कूटनीतिज्ञ राजा जिन्होंने अकबर से गठबंधन कर रचा इतिहास  

राजा भारमल: आमेर के कूटनीतिज्ञ राजा जिन्होंने अकबर से गठबंधन कर रचा इतिहास  

भारत का इतिहास अनेक वीर योद्धाओं, बुद्धिमान शासकों और नीतिकारों से भरा पड़ा है। इन राजाओं में कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए सिर्फ तलवार नहीं, बल्कि कूटनीति, साहस और दूरदर्शिता का भी बेजोड़ परिचय दिया। ऐसे ही एक ऐतिहासिक शख्सियत थे – आमेर के राजा भारमल। जिन्हें बिहारी मल या बिहार मल के नाम से भी जाना जाता है। 16वीं सदी में जब भारत पर मुगलों का प्रभाव बढ़ रहा था, तब राजा भारमल ने अपने समझदारी भरे निर्णयों से न केवल आमेर की गद्दी को बचाया बल्कि उसे एक सशक्त राजनीतिक केंद्र में तब्दील कर दिया।

प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि

राजा भारमल का जन्म 1498 में आमेर के शाही परिवार में हुआ था। वे कछवाहा वंश के शासक पृथ्वीराज के चौथे पुत्र थे। उनकी माता बाला बाई राठौड़ वंश की थीं, जिनका संबंध बीकानेर के शाही परिवार से था। बचपन से ही उन्होंने पारिवारिक राजनीति, प्रशासन और युद्धनीति का गहरा अभ्यास किया। उनके पूर्वजों ने आमेर की नींव को मजबूत किया, लेकिन भारमल को वह राजा कहा जा सकता है जिसने आमेर को भविष्य के जयपुर राज्य की ओर अग्रसर किया।

गद्दी प्राप्ति और आंतरिक संघर्ष

राजा भारमल की सत्ता यात्रा आसान नहीं रही। पिता की मृत्यु के बाद गद्दी उनके बड़े भाई पूरनमल को मिली, जिनकी युद्ध में मृत्यु के बाद परिवार में उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष शुरू हो गया। उनके भतीजों रतन सिंह और आसकरण के बीच गद्दी को लेकर भारी टकराव हुआ। भारमल ने सूझबूझ और अवसरवादी राजनीति का सहारा लिया और अंततः 1547 में आमेर के राजा बने। हालांकि यह सत्ता उन्हें अपने भतीजे की हत्या और षड्यंत्रों के रास्ते मिली, लेकिन आगे चलकर उन्होंने राज्य के हित में जो फैसले लिए, वे उन्हें एक दूरदर्शी शासक की श्रेणी में ले आए।

संकटों से भरा शासनकाल

राजा भारमल का शासनकाल लगातार राजनीतिक दबावों और बाहरी आक्रमणों से घिरा रहा। उनके खिलाफ उनके ही भतीजे, पुराने राजपरिवार के सदस्य और मुगलों के स्थानीय गवर्नर खड़े हो जाते थे। कभी सलीम शाह सूरी की सेना, तो कभी अकबर द्वारा नियुक्त मिर्जा सरफुद्दीन जैसे लोग आमेर को हड़पने की योजना बनाते। इन सभी संकटों से निपटने के लिए राजा भारमल ने चतुराई और समझदारी से न केवल समझौते किए बल्कि अपनी कुर्बानियों से राज्य को स्थिरता भी दी। उन्होंने कई बार अपने पुत्रों और रिश्तेदारों को बंधक के रूप में भेजा, ताकि युद्ध को टाला जा सके।

अकबर से गठबंधन: एक ऐतिहासिक मोड़

भारतीय इतिहास में राजा भारमल का सबसे बड़ा योगदान था – मुगल बादशाह अकबर से किया गया रणनीतिक गठबंधन। जब भारमल पर मुगलों का खतरा मंडरा रहा था, तब उन्होंने अपनी सबसे बड़ी बेटी हीरा कुंवारी (जो बाद में मरियम-उज़-ज़मानी बनीं) का विवाह अकबर से करने का प्रस्ताव रखा। 6 फरवरी 1562 को यह विवाह सम्पन्न हुआ, जिसने इतिहास की दिशा बदल दी। यह पहला अवसर था जब किसी राजपूत राजा ने अपनी पुत्री का विवाह मुगल सम्राट से किया और इसके पीछे कोई मजबूरी नहीं, बल्कि एक गहरी राजनीतिक सोच थी।

यह विवाह न केवल आमेर के लिए सुरक्षा कवच बना, बल्कि इससे मुगलों और राजपूतों के बीच एक नए प्रकार के संबंधों की शुरुआत हुई। इस विवाह के बाद राजा भारमल को 5000 की मनसबदारी दी गई और वे अकबर के प्रमुख दरबारियों में शामिल हो गए।

नीति और निष्ठा का प्रतीक

राजा भारमल की छवि इतिहास में एक ऐसे नरेश की रही है, जिसने अपने व्यक्तिगत भावनाओं से ऊपर उठकर राज्य के हितों को सर्वोपरि रखा। जहां एक ओर उनका यह विवाह अनेक राजपूतों के लिए विवाद का विषय बना, वहीं दूसरी ओर इस निर्णय ने आमेर को मजबूत और स्थायी बना दिया। उन्होंने दिखा दिया कि कभी-कभी युद्ध की बजाय समझौता और रणनीति भी उतना ही प्रभावशाली हथियार हो सकता है। उनकी नीतियों का असर यह हुआ कि उनके बेटे भगवंत दास और पोते मान सिंह प्रथम मुगल साम्राज्य में शीर्ष स्थान तक पहुंचे। मान सिंह को अकबर ने अपने नौ रत्नों में स्थान दिया और उन्हें कई अहम युद्धों की जिम्मेदारी दी।

धार्मिक सहिष्णुता और संस्कृति

राजा भारमल एक धार्मिक, सहिष्णु और परंपरागत राजा थे। उन्होंने आमेर में कई मंदिरों और भवनों का निर्माण करवाया। अपने शासनकाल में उन्होंने राजपूती शौर्य और परंपरा को जीवित रखा, साथ ही एक आधुनिक और व्यावहारिक नीति के माध्यम से राज्य का संचालन किया।

मृत्यु और विरासत

27 जनवरी 1574 को राजा भारमल का निधन आगरा में हुआ। उनके उत्तराधिकारी बने उनके सबसे बड़े पुत्र राजा भगवंत दास, जिन्होंने अपने पिता की नीति को आगे बढ़ाया। राजा भारमल की सबसे बड़ी विरासत थी – वह स्थायी संबंध जो उन्होंने मुगलों के साथ स्थापित किया। इससे न केवल आमेर, बल्कि अन्य राजपूत राज्यों को भी मुगलों से संतुलन बनाने का मार्गदर्शन मिला।

राजा भारमल को इतिहास में वह स्थान अवश्य मिलना चाहिए जो अक्सर तलवार चलाने वाले राजाओं को मिलता है। उन्होंने अपनी समझदारी, संयम और दूरदर्शिता से भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति में एक अहम मोड़ लाया। उन्होंने यह साबित कर दिया कि एक सच्चा राजा वह होता है जो राज्य की भलाई के लिए अपने व्यक्तिगत भावनाओं और पारंपरिक बाधाओं से ऊपर उठकर सोच सके। आज जब हम उनके बारे में पढ़ते हैं, तो हमें एक ऐसा राजा नजर आता है, जिसने न केवल अपने राज्य को संकट से बचाया, बल्कि इतिहास को एक नई दिशा दी। राजा भारमल केवल आमेर के शासक नहीं, बल्कि एक नीतिकार, कूटनीतिज्ञ और भविष्यदृष्टा राजा थे, जिनकी विरासत सदैव स्मरणीय रहेगी।

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