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संत कबीरदास: भारतीय संत, समाज सुधारक और भक्ति के मार्गदर्शक

संत कबीरदास: भारतीय संत, समाज सुधारक और भक्ति के मार्गदर्शक

कबीरदास 15वीं सदी के महान संत और कवि थे, जिन्होंने जाति, धर्म और अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठाई। उनके दोहे और उपदेश सरल भाषा में जीवन और आत्मा का मार्ग बताते हैं। उनका संदेश आज भी मानवता, भक्ति और ईश्वर के प्रति समर्पण की प्रेरणा देता है।

Kabir Das: भारतीय समाज ने सदियों से संतों और महात्माओं को देखा है, जिन्होंने न केवल आध्यात्मिक जीवन में मार्गदर्शन दिया बल्कि सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वास के खिलाफ भी आवाज उठाई। ऐसे ही एक महात्मा थे कबीरदास, जिन्हें हम अक्सर सिर्फ कवि या संत के रूप में जानते हैं। कबीरदास 15वीं सदी के महान रहस्यवादी संत और कवि थे, जिनका जन्म 1398 ईस्वी में काशी में माना जाता है। उनकी रचनाएँ और उपदेश आज भी समाज में नई चेतना और आध्यात्मिक दिशा प्रदान करती हैं।

कबीरदास का जीवन और जन्म

कबीरदास का जन्म काशी के लहरतारा तालाब में हुआ था। परंपराओं के अनुसार, कबीर एक कमल पर प्रकट हुए और नीरा-नीमा नामक दंपति ने उन्हें उठाया। बाल्यावस्था से ही कबीर का जीवन साधारण नहीं था। वे जुलाहे का काम करके अपने जीवन का निर्वाह करते थे। उनके जीवन में 52 बार उन्हें मारने का प्रयास किया गया, लेकिन कोई सफल नहीं हुआ। इस तरह की घटनाएँ उनके चमत्कारी और दिव्य स्वरूप को प्रमाणित करती हैं।

कबीर का जन्म केवल शारीरिक रूप में नहीं हुआ था, बल्कि उनकी चेतना और ज्ञान ने उन्हें संपूर्ण ब्रह्म का रूप प्रदान किया। उनके अनुयायी उनके जन्मदिन को कबीर साहेब प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं।

कबीरदास और उनके गुरु रामानंद

कबीरदास ने आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाने के लिए संत रामानंद को अपना गुरु माना। कथा के अनुसार, कबीर ने रामानंद जी के सामने ढाई साल के बच्चे का रूप धारण किया। रामानंद जी ने उन्हें उठाकर रामनाम का जाप करने का आदेश दिया। इसके बाद रामानंद जी ने कबीर को दीक्षा दी और नीची जातियों से नफरत करना बंद कर दिया। यह घटना न केवल उनके आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक समरसता की ओर भी इशारा करती है।

सामाजिक सुधार और कुरीतियों के प्रति संघर्ष

कबीरदास ने अपने जीवन में समाज में फैली अंधविश्वास, पाखंड, कर्मकांड और जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने कहा कि ईश्वर एक है और सभी मनुष्य उसकी संतान हैं, इसलिए किसी भी जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव करना अनुचित है।

कबीर के समय में पंडित और मौलवी उन्हें नीचा दिखाने के लिए षड्यंत्र रचते थे। एक प्रसिद्ध घटना दिव्य धर्म यज्ञ की है, जिसमें काशी में उनके भंडारे में लाखों लोग जुट गए। भंडारे की सामग्री और भोजन तीन दिन तक पर्याप्त था। कहा जाता है कि यह सब परमात्मा की लीला थी, और इसके बाद कई लोग कबीर के ज्ञान से प्रभावित हुए।

भाषा और साहित्य

कबीरदास की भाषा अत्यंत सरल, सजीव और सबको समझ में आने वाली थी। उनकी भाषा में हिंदी की विभिन्न बोलियों के शब्दों का मिश्रण था – राजस्थानी, पंजाबी, हरियाणवी, ब्रजभाषा और अवधी। उनके पद, साखी और दोहे इस मिश्रित भाषा में लिखे गए, ताकि आम जनता तक उनका संदेश सरलता से पहुंच सके।

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:

  • कबीर साखी: इसमें कबीरदास ने दोहों और साखियों के माध्यम से आत्मा और परमात्मा के ज्ञान का सार प्रस्तुत किया।
  • कबीर बीजक: यह उनके शिष्य धर्मदास द्वारा संकलित ग्रंथ है, जिसमें पद्य भाग, रमैनी, सबद और साखी शामिल हैं।
  • कबीर शब्दावली: इसमें आत्मा और परमात्मा की जानकारी उनके अमूल्य शब्दों में व्यक्त की गई।
  • कबीर दोहवाली: यह उनके प्रसिद्ध दोहों का संग्रह है।
  • कबीर ग्रंथावली: इसमें उनके पद और दोहे सम्मिलित हैं।
  • कबीर सागर: यह सूक्ष्म वेद है जिसमें परमात्मा का विस्तृत ज्ञान दिया गया।

कबीरदास स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे। उनके दोहे और पद उनके शिष्यों, विशेषकर धर्मदास और भागोदास द्वारा संकलित किए गए। उनके 226 दोहे सिख धर्म के प्रमुख ग्रंथ “श्री गुरु ग्रंथ साहिब” में भी सम्मिलित हैं।

कबीर के विचार और धर्म दृष्टिकोण

कबीरदास ने अपने जीवन और रचनाओं में यह स्पष्ट किया कि मोक्ष और परमात्मा की प्राप्ति के लिए केवल भक्ति और ज्ञान आवश्यक हैं, न कि कर्मकांड या पूजा-पाठ।

उन्होंने कहा:

  • मूर्तिपूजा से कुछ प्राप्त नहीं होता।
  • कर्मकांड, रोज़ा, ईद, मंदिर या मस्जिद मोक्ष की गारंटी नहीं हैं।
  • परमात्मा एक ही है और सभी धर्मों के लोग उसके समान हैं।

कबीरदास ने अहिंसा, सत्य और सदाचार का मार्ग अपनाने पर जोर दिया। उन्होंने सरल जीवन, शांत मन और भक्ति को सर्वोपरि माना।

प्रमुख दोहे और उनके अर्थ

कबीरदास के दोहे उनके जीवन और दर्शन का सार प्रस्तुत करते हैं।

  1. बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
    अर्थ: पद, प्रतिष्ठा या बाहरी शक्ति का मूल्य तब ही है जब यह दूसरों के लिए लाभकारी हो।
  2. जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।
    अर्थ: असली मूल्य और सम्मान ज्ञान और सद्गुण में है, न कि जन्म या जाति में।
  3. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
    अर्थ: केवल बाहरी कर्म करने से कुछ नहीं होता। मन को बदलना आवश्यक है।
  4. मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले न बारम्बार। तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुरि न लागे डारि।
    अर्थ: मानव जीवन अनमोल है। इसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए।
  5. पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात। एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।
    अर्थ: जीवन क्षणभंगुर है। समय रहते भक्ति और अच्छे कर्मों में लगना चाहिए।

कबीरदास का सामाजिक और धार्मिक योगदान

कबीरदास का संदेश हमेशा समाज और धर्म सुधार से जुड़ा रहा। उन्होंने जाति, धर्म और सामाजिक भेदभाव की दीवारें तोड़ीं। उनके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं और केवल सच्चा ज्ञान और भक्ति ही परमात्मा तक पहुंचा सकती है।

कबीरदास ने मानवता और नैतिकता को अपने जीवन में सर्वोपरि माना। उन्होंने लोगों को सरल जीवन जीने, अहंकार त्यागने और प्रेम, सहिष्णुता, और सहयोग के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी।

कबीरदास का वैश्विक महत्व

कबीरदास की शिक्षाएं केवल भारत तक सीमित नहीं रहीं। उनके दोहों और पदों का अनुवाद दुनिया के विभिन्न भाषाओं में हुआ। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनके दोहों का अंग्रेजी में अनुवाद किया और उन्हें वैश्विक पहचान दिलाई। उनके संदेश आज भी मानवता, अहिंसा, समानता और भक्ति के आदर्श स्थापित करते हैं।

कबीरदास केवल एक संत या कवि नहीं थे, बल्कि मानवता और समाज के शिक्षक थे। उनके उपदेश आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने जाति, धर्म, अंधविश्वास और पाखंड के खिलाफ आवाज उठाई। उनके दोहे, साखियाँ और बीजक हमें जीवन का सरल, सच्चा और ईश्वर-सम्मुख मार्ग दिखाते हैं। कबीरदास का संदेश है – माया और सांसारिक फंदों से मुक्त होकर सत्संग और भक्ति के माध्यम से आत्मा को जानो और परमात्मा से मिलो।

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