खगोल विज्ञानं के क्षेत्र में, आर्यभट के अहम योगदान
आर्यभट्ट प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ और खगोलशास्त्री रहे हैं। उनका जन्म 476 ईस्वी में बिहार में हुआ था। उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय से पढाई की। उनके मुख्य कार्यो में से एक “आर्यभटीय” 499 ईस्वी में लिखा गया था। इसमें बहुत सारे विषयो जैसे खगोल विज्ञान, गोलीय त्रिकोणमिति, अंकगणित, बीजगणित और सरल त्रिकोणमिति का वर्णन है। उन्होंने गणित और खगोलविज्ञान के अपने सारे अविष्कारों को श्लोको के रूप में लिखा। इस किताब का अनुवाद लैटिन भाषा में 13वीं शताब्दी में किया गया। खगोल विज्ञानं के क्षेत्र में, सर्वप्रथम आर्यभट ने ही अनुमान लगाया था कि पृथ्वी गोलाकार है और ये अपनी ही अक्ष पर घूमती है जिसके फलस्वरूप दिन और रात होते हैं। उन्होंने यह भी निष्कर्ष निकाला था कि चन्द्रमा का अपना कोई प्रकाश नहीं होता है और वो सूर्य की रोशनी की वजह से चमकता है।
उन्होंने सूर्य व चंद्र ग्रहण के सिद्धान्तों के विषय में तार्किक स्पष्टीकरण दिये थे। उन्होंने बताया था कि ग्रहणों की मुख्य वजह पृथ्वी और चन्द्रमा द्वारा निर्मित परछाई है। उन्होंने सौर प्रणाली के भूकेंद्रीय मॉडल को प्रस्तुत किया जिसमे उन्होंने बताया कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड के केंद्र में है और उन्होंने गुरुत्वाकर्षण की अवधारणा की नींव भी रखी थी। उन्होंने अपने आर्यभटीय सिघ्रोका में, जो पंचांग ( हिन्दू कैलेंडर ) बनाने में प्रयोग किया जाता था, खगोलीय गणनाओ के तरीको को प्रतिपादित किया था। जो सिद्धान्त कोपर्निकस और गैलीलियो ने प्रतिपादित किये थे उनका सुझाव आर्यभट्ट ने 1500 वर्षो पूर्व ही दे दिया था।
खगोलशास्त्र के रूप में योगदान
आर्यभट के खगोलशास्त्र के सिद्धांतों को सामूहिक रूप से Audayaka System कहते हैं। उनके बाद की कुछ रचनाओं में पृथ्वी के परिक्रमा की बात कही गयी हैं और उनका यह भी मानना था कि पृथ्वी की कक्षा गोलाकार नहीं, अपितु दीर्घवृत्तीय हैं। उदाहरण के रूप में यदि कोई व्यक्ति किसी बस या ट्रेन में बैठा हैं और बस या ट्रेन जब आगे बढती हैं तो उसे वृक्ष, मकान, आदि वस्तुएं पीछे की ओर जाती हुई प्रतीत होती हैं, जबकि ऐसा होता नहीं हैं। इसी तरह गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी विपरीत दिशा में जाते दिखाई देते हैं। हमें ऐसा इसलिए प्रतीत होता है क्योंकिं पृथ्वी अपने अक्ष पर घुमती हैं और इसकी यह गतिशीलता यह भ्रम उत्पन्न करती हैं।
सौरमंडल की गतिशीलता
आर्यभट ने यह तथ्य स्थापित किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर निरंतर रूप से घुमती रहती हैं और यहीं कारण हैं कि आकाश में तारों की स्थिति बदलती रहती हैं। यह तथ्य इसके बिल्कुल विपरीत हैं कि आकाश घूमता हैं। इसका वर्णन उन्होंने आर्यभटीय में भी किया हैं।
ग्रहण
हिन्दू मान्यता के अनुसार राहु नामक ग्रह द्वारा सूर्य और चन्द्रमा को निगल जाने के कारण क्रमशः सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण होता हैं। आर्यभट द्वारा इस धारणा को गलत सिद्ध किया गया और उन्होंने इस सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण का वैज्ञानिक ढंग से वर्णन किया है। उन्होंने ये बताया कि चाँद एवं अन्य ग्रह सूर्य के प्रकाश परावर्तित [ Reflection ] होने के कारण प्रकाशमान होते हैं, वास्तव में उनका अपना कोई प्रकाश नहीं होता। आर्यभट ने स्पष्ट किया कि ये ग्रहण नामक घटना पृथ्वी पर पड़ने वाली छाया हैं अथवा पृथ्वी की छाया हैं।
सूर्यग्रहण
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती हैं और चन्द्रमा अपने अक्ष पर घूमते हुए पृथ्वी की परिक्रमा के साथ ही सूर्य की भी परिक्रमा करता हैं और इस दौरान जब पृथ्वी और सूर्य के बीच जब चन्द्रमा आ जाता हैं तो चंद्रमा के बीच में आने से सूर्य का उतना हिस्सा छुप जाता हैं और वह हमें काला या प्रकाशहीन दिखाई देता हैं और यह घटना सूर्यग्रहण कहलाती हैं।
चंद्रग्रहण
चन्द्रमा अपने अक्ष पर घूमते हुए पृथ्वी की परिक्रमा के साथ ही सूर्य की भी परिक्रमा करता हैं और इस दौरान सूर्य और चन्द्रमा के बीच पृथ्वी आ जाती है तो पृथ्वी की परछाई चन्द्रमा पर पड़ती हैं और वह सूर्य प्रकाश प्राप्त नहीं कर पाता है। यह घटना चंद्रग्रहण कहलाती हैं। पृथ्वी की छाया जितनी बड़ी होती है, ग्रहण भी उतना ही बड़ा कहलाता हैं।
कक्षाओं का वास्तविक समय
आर्यभट ने पृथ्वी की एक परिक्रमा का बिल्कुल उचित समय ज्ञात किया। यह अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा प्रतिदिन 24 घंटों में नहीं, बल्कि 23 घंटें, 56 मिनिट और 1 सेकेण्ड में पूरी कर लेती हैं। इस प्रकार हमारे 1 साल में 365 दिन, 6 घंटे, 12 मिनिट और 30 सेकेंड होते हैं।
ज्योतिर्विद के रूप में योगदान
आर्यभट ने लगभग डेढ़ हजार साल पहले ही ज्योतिष विज्ञान कि खोज कर ली थी, जब इतने उन्नत साधन एवं उपकरण भी उपलब्ध नही थे। अपनी वृद्धावस्था में आर्यभट्ट ने एक और पुस्तक 'आर्यभट्ट सिद्धात' के नाम से लिखी। यह दैनिक खगोलीय गणना और अनुष्ठानों के लिए शुभ मुहूर्त निश्चित करने के काम आती थी। आज भी पंचांग बनाने के लिए आर्यभट्ट की खगोलीय गणनाओं का उपयोग किया जाता है। गणित और खगोल विज्ञान के क्षेत्रों में उनके योगदान की स्मृति में ही भारत के पहले उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया है। आर्यभट्ट का निधन 550 ई.पू. में 74 वर्ष की आयु में हुआ। लेकिन उनके जीवन की अंतिम अवधि और ठिकाने के सटीक स्थान अभी भी दुनिया के लिए अज्ञात हैं।