नालंदा विश्वविद्यालय, जो 5वीं शताब्दी में स्थापित हुआ था, दुनिया के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। यह शिक्षा के क्षेत्र में भारत के गौरवशाली इतिहास को दर्शाता है।
स्थापना और इतिहास
नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त वंश के सम्राट कुमारगुप्त प्रथम (लगभग 415–455 ई.) द्वारा की गई थी। यह दुनिया के सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्रों में से एक था, जो लगभग 800 वर्षों तक संचालित रहा। नालंदा बिहार राज्य में स्थित था, और इसका नाम "नालंदा" इस तथ्य से लिया गया है कि "नालम" का अर्थ होता है "ज्ञान" और "दा" का मतलब "देने वाला"। इस प्रकार, नालंदा का अर्थ है "ज्ञान देने वाला"।
विश्वविद्यालय का निर्माण
नालंदा का परिसर अत्यधिक विस्तृत और समृद्ध था। इसमें दस बड़े मठ, अनेक व्याख्यान कक्ष, पुस्तकालय भवन, ध्यान कक्ष, और कई उद्यान थे। विश्वविद्यालय में एक बड़ी पुस्तकालय थी, जिसमें लाखों हस्तलिखित पांडुलिपियाँ संग्रहीत थीं। इसे "धर्मगंज" नामक तीन पुस्तकालय भवनों के नाम से जाना जाता था—रत्नसागर, रत्नोदधी और रत्नरंजक।
पाठ्यक्रम और अध्ययन विषय
नालंदा विश्वविद्यालय में विभिन्न विषयों की पढ़ाई होती थी, जिनमें मुख्यतः बौद्ध धर्म, वेद, दर्शनशास्त्र, भाषा विज्ञान, खगोलशास्त्र, गणित, चिकित्सा, और तर्कशास्त्र शामिल थे। बौद्ध धर्म का अध्ययन और अभ्यास यहाँ प्रमुख रूप से होता था, लेकिन यहाँ विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लोग भी शिक्षा प्राप्त करते थे। यह धार्मिक सहिष्णुता और विविधता का केंद्र था, जहाँ बौद्ध, हिंदू, जैन, और अन्य धार्मिक विचारों के विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर काम करते थे।
विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या
नालंदा विश्वविद्यालय में उस समय लगभग 10,000 से अधिक छात्र और 2,000 शिक्षक थे। यह विद्यार्थियों के लिए आकर्षण का केंद्र था, और यहाँ चीन, कोरिया, जापान, तिब्बत, मंगोलिया, तुर्की, और सुदूर पूर्व के देशों से भी छात्र आते थे। चीनी यात्री और विद्वान ह्वेनसांग और इत्सिंग ने नालंदा में अध्ययन किया था और अपनी यात्राओं में विश्वविद्यालय की महिमा का वर्णन किया था।
ह्वेनसांग का नालंदा आगमन
चीनी यात्री ह्वेनसांग (Xuanzang) 7वीं शताब्दी में नालंदा आया और यहाँ लगभग 15 वर्षों तक अध्ययन और अध्यापन किया। उसने नालंदा की बौद्ध शिक्षा और सांस्कृतिक समृद्धि का विस्तार से वर्णन किया है। ह्वेनसांग ने नालंदा के पुस्तकालयों में गहरे अध्ययन किए और भारत के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन पर गहन जानकारी प्राप्त की।
विनाश और पतन
12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी के आक्रमण के बाद नालंदा विश्वविद्यालय को व्यापक क्षति पहुंची। आक्रमणकारियों ने नालंदा के पुस्तकालयों और मठों को जलाया, जिसके परिणामस्वरूप बेशकीमती ज्ञान और पांडुलिपियाँ नष्ट हो गईं। नालंदा का पतन भारत में शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में एक बड़ी क्षति के रूप में देखा जाता है।
नालंदा के पुनर्निर्माण के प्रयास
हाल के वर्षों में, भारत सरकार और कई अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों के संयुक्त प्रयासों से नालंदा विश्वविद्यालय को पुनः स्थापित करने की पहल की गई है। 2010 में एक नए नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, जो मूल नालंदा की महानता और ज्ञान की धरोहर को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह विश्वविद्यालय वैश्विक छात्रों और शिक्षकों को आकर्षित कर रहा है और पूर्वी एशिया की सभ्यताओं और संस्कृति के अध्ययन में विशेषज्ञता प्राप्त कर रहा है।
नालंदा की महत्ता
नालंदा केवल एक विश्वविद्यालय नहीं था, बल्कि यह प्राचीन भारत के वैज्ञानिक और बौद्धिक चिंतन का केंद्र था। इसने भारत को शिक्षा, ज्ञान, और विचारों के आदान-प्रदान का एक प्रमुख केंद्र बनाया। इसका प्रभाव न केवल भारत पर बल्कि पूरे एशिया और सुदूर पूर्व के देशों पर भी पड़ा।
नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास भारत की शिक्षा और सांस्कृतिक समृद्धि का एक अद्वितीय उदाहरण है। इसकी धरोहर को आज भी भारत और दुनिया भर के विद्वान और इतिहासकार उच्च सम्मान से देखते हैं।