यह एक साधारण संयोग भी हो सकता है या एक सुनियोजित योजना, लेकिन हिंदी मनोरंजन जगत में ऐसे संयोग दुर्लभ होते हैं। निर्माता एकता कपूर की गोधरा कांड पर आधारित डॉक्यू-ड्रामा फिल्म 'द साबरमती रिपोर्ट' इस समय सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही है, जबकि निर्माता दानिश खान की वेब सीरीज 'फ्रीडम एट मिडनाइट' सोनी लिव ओटीटी प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है। दोनों में विचारों की अलग-अलग धाराएं सामने आती हैं। 'द साबरमती रिपोर्ट' की प्रशंसा देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह दोनों ने की है। वहीं, वेब सीरीज 'फ्रीडम एट मिडनाइट' को उन कांग्रेस नेताओं ने शायद अब तक नहीं देखा है, जिनके लिए यह सीरीज आजादी के ठीक पहले के अंतर्द्वंद्व को बहुत ही शालीनता और शोधपरक तरीके से प्रस्तुत करती है। नई पीढ़ी के लिए इसे देखना अत्यंत आवश्यक है।
जिसका जितना बजट, उसका वैसा इतिहास
डॉमिनिक लैपियरे और लैरी कॉलिंस द्वारा लिखी गई किताब फ्रीडम एट मिडनाइट अपने समय की एक महत्वपूर्ण कृति है, क्योंकि यह इतिहास की कई ऐसी बातें उजागर करती है जो सामान्यतः विद्यालयों में नहीं सिखाई जातीं। आजकल, इतिहास स्कूलों में कम और फिल्मों के माध्यम से अधिक पढ़ाया जा रहा है। जिसके पास जितना धन है, वह उतना ही भव्य और आकर्षक इतिहास प्रस्तुत कर रहा है। संजय लीला भंसाली ने 100 करोड़ रुपये खर्च कर गंगूबाई काठियावाड़ी और लगभग 400 करोड़ रुपये में ‘हीरामंडी का इतिहास दर्शाने का प्रयास किया है। वहीं, एकता कपूर की आर्थिक स्थिति फिलहाल ठीक नहीं है, इसलिए वह 50 करोड़ रुपये में ‘द साबरमती रिपोर्ट पेश कर रही हैं। इसके अलावा, सोनी लिव के दानिश खान ‘फ्रीडम एड मिडनाइट को कम बजट में प्रस्तुत कर रहे हैं। जब बजट सीमित होता है, तो इतिहास के किरदारों को निभाने वाले कलाकार भी आमतौर पर खास नामी नहीं होते। इस परियोजना में सिद्धांत गुप्ता, आर जे मलिश्का, आरिफ जकारिया, इरा दुबे, चिराग वोरा, और राजेंद्र चावला जैसे कलाकार शामिल हैं।
जब कांग्रेस वर्किंग कमेटी में हारे नेहरू
यदि आपने भारत की स्वतंत्रता पर आधारित फिल्में और सीरीज देखी हैं, तो गांधी के किरदार में बेन किंग्सले को भूल पाना आपके लिए मुश्किल होगा। इसी तरह, 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में नेहरू का किरदार निभाने वाले रोशन सेठ भी आपके मन में घर कर चुके हैं, और पटेल के किरदार के लिए परेश रावल को फिल्म 'सरदार' में देखना भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इन तीनों प्रमुख पात्रों के साथ-साथ जिन्ना का नाम भी जुड़ना स्वाभाविक है। लेकिन यहां आरिफ जकारिया की कास्टिंग इस मामले में पूरी तरह सही साबित होती है। चूंकि कास्टिंग का मुद्दा सीधे वित्त से जुड़ा है, इसलिए हम इसे छोड़कर 'फ्रीडम एट मिडनाइट' पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यह सीरीज वहां से शुरू होती है जब जिन्ना का 'डायरेक्ट एक्शन' लागू होता है और वह अंग्रेजों के सामने अपनी शक्ति साबित करने में सफल होते हैं। नेहरू देश के विभाजन के धर्म के आधार पर होने के खिलाफ हैं, जबकि पटेल इसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं रखते। कांग्रेस वर्किंग कमेटी में इस मुद्दे पर मतदान किया जाता है और सभी लोग पटेल के पक्ष में खड़े होते हैं। गांधी को भविष्य में आने वाली कठिनाइयों का पूर्वाभास हो जाता है।
गांधी के समान बनने की चाहत ने देश को बांट दिया
वेब सीरीज फ्रीडम एट मिडनाइट की विशेषता यह है कि यह देश की आज़ादी के साथ-साथ इसके विभाजन के लिए चल रही राजनीति के बीच, मुख्य पात्रों के आपसी रिश्तों, परंपराओं और स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करती है। पटेल, गांधी, नेहरू, और जिन्ना सभी किसी न किसी समस्या का सामना कर रहे हैं। यहां याद रखने वाली बात यह है कि जिन्ना को यह एहसास हो गया था कि वह एक साल से ज्यादा जीवित नहीं रहेगा, लेकिन वह यह जानकारी अपने डॉक्टर को किसी और को बताने से रोक देता है। 1948 में जिन्ना की मृत्यु हुई, और उसी वर्ष गांधी की भी। जिन्ना की पूरी लड़ाई केवल खुद को गांधी के समकक्ष साबित करने के लिए थी। उसे उस समकक्षता का दर्जा प्राप्त हुआ, लेकिन उसके देश को क्या मिला, यह इतिहास के पन्नों में दर्ज है।
बजट बढ़ाया होता तो बनती कालजयी सीरीज
निखिल आडवाणी की हालिया रिलीज फिल्म वेदा के दर्शक इस सीरीज को देखने में झिझक सकते हैं, लेकिन इसे देखना जरूर चाहिए। भले ही यह सीरीज उत्कृष्ट न हो, लेकिन इसकी संरचना काफी अच्छी है। निर्देशन बेहतरीन है और कहानी की गति, यानी पटकथा की चंचलता, प्रभावशाली है। प्रोडक्शन डिज़ाइन ने इसे अपने समय के अनुसार बेरंग और रंगीन बनाने की सुविधाएं प्रदान की हैं। यह दुर्लभ है कि आधा दर्जन लेखक मिलकर कुछ लिखें और सभी एक ही ताल में रहें। इस मामले में सोनी लिव सच में सराहनीय है। इस सीरीज के निर्माण का असली श्रेय और दोष दोनों सौगत मुखर्जी को जाता है। श्रेय इस बात का कि उन्होंने इस किताब पर सीरीज बनाने के अधिकार हासिल किए और फिर निखिल को इस परियोजना में लाया। और दोष इस बात का कि बजट में कटौती करके उन्होंने एक फाइव स्टार सीरीज बनने लायक प्रोजेक्ट को केवल तीन स्टार पर लाकर रोक दिया।
आरिफ जकारिया की अदाकारी है सबसे बेहतरीन
सोनी लिव की चुनौतियाँ चाहे जो भी रही हों, इस सीरीज की कास्टिंग में जिन कलाकारों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है, वे वर्षों तक दर्शकों के दिलों में बसे रहेंगे। जिन्ना के किरदार में आरिफ जकारिया सभी कलाकारों में अव्वल हैं। उनकी बेहतरीन अदाकारी सीरीज की शुरुआत में इसे एक मजबूत आधार प्रदान करती है। गांधी के किरदार में चिराग वोहरा को देखना और लगातार देखते रहना यह दर्शाता है कि चिराग ने इस भूमिका के लिए अद्भुत समर्पण दिखाया है। चरखा कातते समय, उधारे बदन के साथ बैठे चिराग, भले ही गांधी की उम्र के अनुरूप न लगें, लेकिन उनकी बाकी भूमिकाएं सम्मानजनक तरीके से उत्तीर्ण होने के लायक हैं। सिद्धांत गुप्ता की भी तारीफ करना जरूरी है, क्योंकि इस युवा ने 'जुबली' की ब्लॉकबस्टर सफलता के बाद इस किरदार को निभाने की हामी भरी। यदि किसी ने उनकी बॉडी लैंग्वेज पर शूटिंग से पहले ध्यान दिया होता, तो यह सिद्धांत का ऐसा किरदार बनता जिसे लोग लंबे समय तक याद रखते।
मलय और आशुतोष ने जीत लिए दिल
वेब सीरीज 'फ्रीडम एट मिडनाइट' के मुख्य कलाकारों में आरिफ के बाद जिस कलाकार ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है, वह हैं पटेल के किरदार में राजेंद्र चावला। नई सरकार बनाने की चर्चा के दौरान जब पटेल और नेहरू महल की भूलभुलैया में खो जाते हैं, तो वह दृश्य तनाव के क्षणों में भी रक्तचाप को नियंत्रित रखने का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करता है। सरोजिनी नायडू की भूमिका में मलिश्का की कास्टिंग औसत बनी है और उनका प्रदर्शन भी बहुत प्रभावशाली नहीं लगा। इरा दुबे का काम जिन्ना की बहन के रूप में भी बेहतर हो सकता था। इस सीरीज की सिनेमैटोग्राफी मलय प्रकाश ने काफी उम्दा तरीके से की है। दृश्य और प्रकाश का उनका संयोजन एकदम टेक्स्टबुक जैसा है। उनका काम 'वेदा' में भी अच्छा था, लेकिन वह फिल्म अपने आप में कमजोर थी। भविष्य के सिनेमा पर उनकी नजरें अभी से टिकी हुई हैं। आशुतोष फटाक का ब्लू फ्रॉग भी यहां बहुत अच्छा उभरा है। कहानी के समय के अनुसार उनकी टीम ने शानदार संगीत की लहरें प्रस्तुत की हैं।