चिराग पासवान ने बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने का संकेत दिया है। उनकी पार्टी एलजेपी (रामविलास) ने प्रस्ताव पारित किया है। क्या वे 20 साल पुरानी सत्ता की चाबी की रणनीति को दोहराने की कोशिश कर रहे हैं?
Bihar Election 2025: केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान के बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की चर्चा ने राज्य की सियासत को गरमा दिया है। क्या चिराग अपने पिता रामविलास पासवान की 20 साल पुरानी रणनीति को दोहराकर सत्ता की चाबी अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रहे हैं? यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि 2005 के चुनाव में रामविलास पासवान ने कुछ सीटों पर जीतकर बड़ा सियासी समीकरण बनाया था, पर क्या इस बार चिराग का दांव चल पाएगा? आइए जानते हैं पूरी कहानी।
बिहार की सियासत में चिराग पासवान की एंट्री से हलचल
बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव की चर्चा जोरों पर है और इस बार भी सियासी गलियारों में चिराग पासवान का नाम सुर्खियों में है। चिराग की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने उनके चुनाव लड़ने का प्रस्ताव पारित कर दिया है। इसके बाद से ही यह कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या चिराग भी अपने पिता रामविलास पासवान की तरह बिहार की सत्ता की चाबी ढूंढ रहे हैं?
चिराग ने हाल ही में कहा कि उनके चुनाव लड़ने से एनडीए को फायदा होगा। यह बयान कई राजनीतिक संकेत दे रहा है, खासकर तब जब बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार के भविष्य को लेकर असमंजस का माहौल है।
केंद्रीय मंत्री रहते विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला क्यों?
केंद्र सरकार में मंत्री होने के बावजूद चिराग का बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की बात करना अपने आप में एक बड़ी रणनीतिक चाल माना जा रहा है। यह फैसला कई सवाल खड़े करता है – क्या चिराग सिर्फ एक MLA बनना चाहते हैं? जवाब है, नहीं। असल में, चिराग को भी मालूम है कि केंद्रीय राजनीति में उनकी पकड़ तभी मजबूत रहेगी, जब उनकी बिहार में पकड़ मजबूत हो।
2020 के बिहार चुनाव में एलजेपी (रामविलास) का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा था। पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी। ऐसे में चिराग के लिए यह चुनाव सिर्फ सीटें जीतने का मौका नहीं, बल्कि अपनी पार्टी और खुद की राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने का एक प्रयास भी है।
क्यों जरूरी है बिहार में राजनीतिक ताकत बनाए रखना?
बिहार की राजनीति में चिराग पासवान का महत्व इसीलिए भी है क्योंकि उनका वोटबैंक अभी भी दलित समुदाय के बीच मजबूत माना जाता है। चिराग ने 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' जैसे नारों के जरिये अपनी पहचान बनाने की कोशिश की है। वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क के अनुसार, चिराग की रणनीति कुछ सीटें जीतकर अपनी 'बर्गेनिंग पावर' बढ़ाने की हो सकती है, ताकि भविष्य में सत्ता के समीकरणों में अपनी अहम भूमिका निभा सकें।
नीतीश कुमार के भविष्य को लेकर अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। ऐसे में चिराग को लग रहा है कि अगर सही समय पर सही कदम उठाया जाए, तो उनकी पार्टी सत्ता की चाबी बन सकती है। राजनीति में अक्सर देखा गया है कि कम सीटें होने के बावजूद भी नेता मुख्यमंत्री बन जाते हैं। उदाहरण के लिए, कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी और झारखंड में मधु कोड़ा की सरकारें। ऐसे में चिराग भी इसी तरह के मौके की तलाश में हैं।
20 साल पहले, साल 2005 में, बिहार में दो बार विधानसभा चुनाव हुए थे। पहले चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा बनी थी। रामविलास पासवान, जो उस समय केंद्र में मंत्री थे, बिहार में अकेले चुनाव लड़े थे और 29 सीटें जीती थीं। उस समय एलजेपी सत्ता की चाबी लेकर घूम रही थी। पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग रखकर आरजेडी और कांग्रेस के गठबंधन को झटका दिया था, जिससे नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए ने सरकार बना ली थी। हालांकि वह सरकार अल्पमत में थी और ज्यादा दिन टिक नहीं पाई।
2020 के चुनाव और अब की स्थिति में फर्क
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने 137 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। खासकर उन सीटों पर, जहां जेडीयू के उम्मीदवार थे। नतीजा यह रहा कि एलजेपी का खाता भी नहीं खुला, लेकिन जेडीयू को भारी नुकसान हुआ। इससे भाजपा को फायदा हुआ और नीतीश कुमार को कमजोर स्थिति में मुख्यमंत्री पद पर लौटना पड़ा।
अब 2025 के चुनाव की तैयारी में चिराग फिर से एक्टिव हो गए हैं। उन्होंने एनडीए के तहत सीटों की मांग की है और पार्टी ने उनके चुनाव लड़ने का प्रस्ताव पास कर दिया है। यह साफ संकेत है कि चिराग बिहार की सियासत में फिर से बड़ी भूमिका निभाना चाहते हैं।