भारत में महिला शिक्षा और सामाजिक सुधार की प्रतीक सावित्रीबाई फुले की पुण्यतिथि 10 मार्च को मनाई जाती है। 19वीं शताब्दी में जब महिलाओं की शिक्षा को लेकर सख्त पाबंदियां थीं, तब सावित्रीबाई फुले ने न केवल पढ़ाई की, बल्कि शिक्षा को हर लड़की तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया। उन्होंने समाज में व्याप्त रूढ़ियों को तोड़ा और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति की शुरुआत
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में हुआ था। महज 9 साल की उम्र में उनका विवाह ज्योतिराव फुले से हुआ, जिन्होंने उन्हें शिक्षित करने का कार्य किया। ज्योतिराव के सहयोग से उन्होंने न केवल खुद शिक्षा ग्रहण की, बल्कि भारत के पहले बालिका विद्यालय की स्थापना भी की।
5 सितंबर 1848 को पुणे में खोले गए इस स्कूल में विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं को शिक्षा दी जाने लगी। उस दौर में जब लड़कियों को पढ़ाना पाप माना जाता था, तब सावित्रीबाई फुले ने निडर होकर इस पथ पर कदम बढ़ाया।
समाज का विरोध और संघर्ष
जब सावित्रीबाई स्कूल जाती थीं, तो कट्टरपंथी लोग उनका विरोध करते थे। उन पर पत्थर और कीचड़ फेंका जाता था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने शिक्षा को महिलाओं का अधिकार बनाने के लिए संघर्ष जारी रखा।
महिला सशक्तिकरण के लिए प्रयास
• पहली महिला शिक्षिका बनकर भारत में शिक्षा का नया अध्याय लिखा।
• विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया और समाज में विधवाओं के प्रति सोच बदलने का काम किया।
• छुआछूत और जातिगत भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया।
• महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ते हुए कई स्कूलों और समाज सुधार संगठनों की स्थापना की।
महामारी के दौरान बलिदान
1897 में जब प्लेग महामारी फैली, तब सावित्रीबाई फुले ने अपने प्राणों की परवाह किए बिना बीमार लोगों की सेवा की। संक्रमित मरीजों की मदद करते हुए 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया।
सावित्रीबाई फुले की विरासत
सावित्रीबाई फुले द्वारा शुरू किए गए कार्यों का असर आज भी देखा जा सकता है। उनके प्रयासों की वजह से आज लाखों महिलाएं शिक्षा ग्रहण कर रही हैं और समाज में अपनी जगह बना रही हैं। उनकी पुण्यतिथि पर पूरा देश उन्हें याद करता है और उनके योगदान को सलाम करता है।