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Chaitra Shukla Pratipada: विक्रम संवत की शुरुआत और इतिहास, जानें कौन थे विक्रमादित्य?

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संस्कृत के विद्वान और भारत रत्न से सम्मानित प्रोफेसर पांडुरंग वामन काणे ने अपनी पुस्तक 'धर्मशास्त्र का इतिहास' में विक्रम संवत का विशेष रूप से उल्लेख किया है। उनके अनुसार, विक्रम संवत को सबसे वैज्ञानिक कालगणना प्रणाली माना जाता है। काणे लिखते हैं कि पश्चिमी कैलेंडर में सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण और अन्य खगोलीय घटनाओं की पहले से कोई सटीक जानकारी नहीं मिलती है। इसके विपरीत, विक्रम संवत की विशेषता यह है कि यह पहले से ही बता देता है कि किसी भी खगोलीय घटना, जैसे ग्रहण, का कौन सा दिन और समय होगा।

विक्रम संवत का यह खगोलीय सटीकता का पहलू इसे अद्वितीय और वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बनाता है। इसमें खगोलीय गणनाओं का विशेष ध्यान रखा गया है, जिससे भारतीय खगोल विज्ञान का समृद्ध ज्ञान झलकता है। विक्रम संवत का उपयोग न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में किया जाता है, बल्कि इसका वैज्ञानिक पक्ष भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 

कौन थे विक्रमादित्य?

विक्रम संवत का आरंभ एक महान राजा विक्रमादित्य से जुड़ा हुआ है। हालांकि इतिहास में विक्रमादित्य की पहचान को लेकर मतभेद हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यह राजा विक्रमादित्य, उज्जैन के राजा थे, जिन्होंने शकों को पराजित किया था। कुछ विद्वानों का मानना है कि गुप्तवंशी सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय (चंद्रगुप्त विक्रमादित्य) ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी और शकों पर विजय प्राप्त की थी। जैन ग्रंथ 'कल्काचार्य कथा' के अनुसार, राजा विक्रमादित्य ने शकों को हराया और विक्रम संवत की स्थापना की।

वैज्ञानिक और खगोलीय आधार

विक्रम संवत को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सटीक और विश्वसनीय माना जाता है।
यह संवत सूर्य और चंद्र दोनों की गतियों पर आधारित है।
इसमें सौर वर्ष और चंद्र मास की अवधारणा शामिल है।
यह संवत ग्रहण और खगोलीय घटनाओं की सटीक भविष्यवाणी करता है।
विक्रम संवत में 12 मास और सप्ताह में 7 दिन होते हैं, जो खगोलीय गणना पर आधारित हैं।

विक्रम संवत और पौराणिक कथा

विक्रम संवत का प्रारंभ एक प्रतापी और वीर राजा विक्रमादित्य से जुड़ा हुआ है। इसके आरंभ के संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन सबसे प्रसिद्ध कथा इस प्रकार है. प्राचीन भारत में, शक आक्रांता (विदेशी आक्रांता) भारत के विभिन्न हिस्सों पर आक्रमण कर रहे थे और मालवा क्षेत्र में भी उनका आतंक बढ़ गया था। उस समय मालवा के राजा विक्रमादित्य ने शकों के विरुद्ध युद्ध छेड़ा।

कई कठिन युद्धों के बाद, विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर भारत से खदेड़ दिया। उनकी इस विजय के उपलक्ष्य में, राजा विक्रमादित्य ने अपने नाम पर एक नए संवत की स्थापना की, जिसे "विक्रम संवत" कहा गया। कहा जाता है कि जब राजा विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त की, तो उनके राज्याभिषेक के दिन से ही विक्रम संवत का आरंभ माना गया। यह दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा या नवरात्र का प्रथम दिन) के रूप में मनाया जाता है।

विक्रम संवत का प्रारंभ ईसा पूर्व 57 वर्ष में माना जाता है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि चंद्रगुप्त द्वितीय (गुप्त वंश) ने भी "विक्रमादित्य" की उपाधि धारण की थी और उसी ने इस संवत को लोकप्रिय किया। विक्रम संवत के अनुसार, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि की रचना का दिन माना गया है। इसलिए, इसे सृष्टि का प्रथम दिन भी कहा जाता है।

विक्रम संवत को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह सौर और चंद्र दोनों गणनाओं पर आधारित है। इसमें वर्ष का प्रारंभ चैत्र माह से होता है, जो वसंत ऋतु का प्रारंभिक समय होता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सृष्टि का आरंभ माना गया है। यही दिन ब्रह्मा का प्रथम दिन भी है। इसलिए विक्रम संवत का आरंभ भी इसी दिन से माना गया है।

विक्रम संवत का प्रचलन

उत्तर भारत में विक्रम संवत का नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होता है।
दक्षिण भारत में यह कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होता है।
नेपाल में भी विक्रम संवत का व्यापक प्रचलन है।

विक्रम स्मृति ग्रंथ

1944 में विक्रम संवत के 2000 वर्ष पूरे होने पर ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया ने 'विक्रम स्मृति ग्रंथ' का प्रकाशन करवाया।
इसमें विक्रम संवत की ऐतिहासिकता और इसके प्राचीन होने के प्रमाण मिलते हैं।
कई शिलालेखों और ताम्रपत्रों में विक्रम संवत का उल्लेख है।

विक्रम संवत का महत्व

यह संवत केवल काल गणना का साधन नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
इसे हिंदू नववर्ष के रूप में मनाया जाता है।
इसके माध्यम से धार्मिक अनुष्ठानों और पर्व-त्योहारों का निर्धारण किया जाता है।

विक्रम संवत न केवल एक ऐतिहासिक काल गणना प्रणाली है बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपरा का प्रतीक भी है। राजा विक्रमादित्य के शौर्य और पराक्रम को दर्शाने वाला यह संवत आज भी वैज्ञानिक और खगोलीय दृष्टि से सटीक माना जाता है।

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