Vijay 69 Review: 69 साल की उम्र में स्वीमिंग सीखी, अनुपम खेर की झकझोर देने वाली फिल्म ने, दर्शकों को किया भावुक

Vijay 69 Review: 69 साल की उम्र में स्वीमिंग सीखी, अनुपम खेर की झकझोर देने वाली फिल्म ने, दर्शकों को किया भावुक
Last Updated: 08 नवंबर 2024

अनुपम खेर की नई फिल्म "विजय 69" ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म में अनुपम खेर ने एक चिड़चिड़े वृद्ध व्यक्ति का किरदार निभाया है, जिसके सपने काफी बड़े हैं। यह फिल्म सपनों को जीने और उम्र के बावजूद जज़्बे को जिंदा रखने की कहानी है। आप इसे नेटफ्लिक्स पर देख सकते हैं। फिल्म में अनुपम खेर के अलावा चंकी पांडे भी महत्वपूर्ण भूमिका में हैं

विजय मैथ्यू (अनुपम खेर) को जब मिसेज बक्शी (गुड्डी मारुति) पानी में कूदते हुए देखती हैं, तो सभी को यह लगता है कि विजय अब इस दुनिया में नहीं रहा। चर्च में विजय का 30 साल पुराना दोस्त फली (चंकी पांडे) उसकी याद में बताता है कि विजय ने तीन बार गरबा नाइट्स डांस में ट्रॉफी जीती थी। लेकिन असल में विजय मरा नहीं है; वह उस रात अपने किसी दोस्त के घर रुक जाता है। मिसेज बक्शी को एक गलतफहमी हुई थी। जब विजय उस पेज को देखता है, जिसमें फली ने उसकी उपलब्धियों का उल्लेख किया है, तो वह गुस्से में कहता है कि उसने उसकी राष्ट्रीय तैराकी चैंपियनशिप में कास्य पदक जीतने की बात क्यों नहीं लिखी? इसके बाद वह एक पेज पर अपनी उपलब्धियों को लिखने बैठता है, लेकिन उसे अपनी कोई और खास उपलब्धि नहीं मिलती। इसी दौरान, उसके मोहल्ले से आदित्य (मिहिर अहूजा) ट्रायथलॉन में भाग लेने जा रहा है, जिसमें डेढ़ किलोमीटर तैराकी, 40 किलोमीटर साइकलिंग और 10 किलोमीटर दौड़ लगानी होती है। विजय भी इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का निर्णय लेता है, ताकि दुनिया से जाने के बाद लोग उसकी इस उपलब्धि को याद रखें।

हैट्रिक का अरमान, नहीं चढ़ा परवान

चतरा विधानसभा क्षेत्र में जीत की हैट्रिक किसी भी उम्मीदवार के लिए संभव नहीं हो पाई है। हालांकि उम्मीदवारों ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया, लेकिन मतदाताओं ने उन पर विश्वास नहीं जताया। परिणामस्वरूप, यह सौभाग्य अब तक किसी को नहीं मिल सका है। 1952 से 1977 तक चतरा विधानसभा क्षेत्र असुरक्षित रहा। 1980 के चुनावों से पहले इसे अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित घोषित किया गया। 1952 के चुनाव में कांग्रेस के सुखलाल प्रसाद सिंह ने यहां से जीत हासिल की थी, जहाँ उन्होंने रामगढ़ राजा की छोटानागपुर संथाल परगना जनता पार्टी के उम्मीदवार कामाख्या नारायण सिंह को हराया था। लेकिन 1957 के चुनाव में रामगढ़ राजा कामाख्या नारायण सिंह ने कांग्रेस प्रत्याशी और वर्तमान विधायक सुखलाल बाबू को पराजित कर हिसाब बराबर कर लिया। कामाख्या नारायण सिंह ने चतरा के अलावा अन्य निर्वाचन क्षेत्रों से भी चुनाव जीते थे, जिसके कारण उन्होंने चतरा सीट से त्याग पत्र दे दिया। इस स्थिति में उप चुनाव कराना पड़ा, जहाँ छोटानागपुर संथाल परगना जनता पार्टी के उम्मीदवार शालीग्राम सिंह ने जीत हासिल की और सुखलाल बाबू को परास्त किया। 1962 और 1967 के चुनावों में केशव प्रताप सिंह ने जीत दर्ज की। 1968 में विधानसभा भंग हो गई, और 1969 में फिर से चुनाव हुए। इस बार एक बार फिर कामाख्या नारायण सिंह ने मैदान में कदम रखा और कांग्रेस के सुखलाल सिंह को पराजित किया।

फिल्म में दिल को छू लेने वाले डायलॉग्स

विजय का ताबूत के भीतर सोकर यह सोचना कि जिंदगी में क्या किया, सच में झकझोर देने वाला है। मीडिया को कार्टून की तरह पेश करने वाले दृश्य यह दर्शाते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री के लेखकों और निर्देशकों को इस विषय पर गहराई से रिसर्च करने की आवश्यकता है। फिल्म के संवाद जैसे क्या 69 का हो जाने पर सपने देखना बंद कर दूं? क्या 69 का होने पर सुबह उठकर अखबार पढ़ना चाहिए? या क्या 69 का होने पर दवाइयां खाकर सो जाना और एक दिन मर जाना चाहिए? ये सभी बातें याद दिलाती हैं कि उम्र को केवल एक संख्या समझना चाहिए। अक्षय ने फिल्म में विजय के पात्र को किसी सुपरहीरो की तरह पेश नहीं किया है; बल्कि उम्र से संबंधित समस्याओं के साथ उन्होंने इस पात्र को बहुत ही सच्चाई के साथ गढ़ा है।

फिल्म के लिए अनुपम खेर ने सीखी तैराकी

अनुपम खेर ने एक इंटरव्यू में साझा किया कि उन्होंने इस फिल्म के लिए तैराकी सीखी थी। उनकी उम्र 69 वर्ष है, लेकिन वास्तविक जीवन में उम्र को एक मात्र संख्या मानने का जज़्बा इस फिल्म में भी स्पष्ट है। जब क्लाइमेक्स में वह फिनिश लाइन तक पहुंचते हैं, तो उनकी जीत बेहद व्यक्तिगत अनुभव लगती है। चंकी पांडे कुछ स्थानों पर पारसी भाषा में बातचीत करना भूल जाते हैं, लेकिन जिस तरह से उन्होंने एक सच्चे दोस्त का किरदार निभाया है, उसमें ये कमियां छिप जाती हैं। गुड्डी मारुति को स्क्रीन पर देखकर ऐसा लगता है कि उन्हें और अधिक अवसर मिलने चाहिए। बेटी के किरदार में सुलगना पाणिग्रही और प्रतिद्वंदी के रूप में मिहिर आहूजा का प्रदर्शन सराहनीय है। कोच की भूमिका में व्रजेश हीरजी को और अधिक स्थान मिलना चाहिए था।

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