Haryana Election 2024: 'न घर के रहे और न ही घाट के', बीजेपी को धोखा देने वाले इन 3 दिग्गजों ने चुकाई भारी कीमत, जानें इन नेताओं के बारे में

Haryana Election 2024: 'न घर के रहे और न ही घाट के', बीजेपी को धोखा देने वाले इन 3 दिग्गजों ने चुकाई भारी कीमत, जानें इन नेताओं के बारे में
Last Updated: 5 घंटा पहले

हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 के परिणामों ने भाजपा की ताकत को एक बार फिर से साबित कर दिया है, क्योंकि पार्टी ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई है। इस चुनाव में कई प्रमुख नेताओं के राजनीतिक भविष्य पर प्रश्न चिह्न लग गया, खासकर उन नेताओं का जिन्होंने चुनाव से पहले भाजपा का साथ छोड़ा था।

चंडीगढ़: राजनीति में अवसर की महत्ता पर अक्सर जोर दिया जाता है, और यह सच भी है कि जो नेता अपने अवसरों का सही इस्तेमाल नहीं करते, उनका राजनीतिक भविष्य अनिश्चितता की ओर बढ़ जाता है। पूर्व सांसद अशोक तंवर, पूर्व सांसद बृजेंद्र सिंह, और पूर्व मंत्री रणजीत चौटाला के मामले में यह कहावत पूरी तरह से लागू होती है। इन नेताओं ने भाजपा के साथ रहते हुए एक निश्चित प्रतिष्ठा हासिल की, लेकिन उन्होंने पार्टी की विश्वास को बनाए रखने में असफलता दिखाई।

भाजपा को छोड़कर जाने का निर्णय उनके लिए कठिनाई का कारण बन गया है, क्योंकि चुनावी परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि मतदाता ऐसे नेताओं को पसंद नहीं करते जो अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए पार्टी को धोखा देते हैं। इस बार के चुनाव में मतदाताओं ने इन नेताओं को उनकी असलियत का अहसास कराया। इससे यह संकेत मिलता है कि राजनीतिक परिदृश्य में स्थिरता और विश्वास की कितनी अहमियत है। भाजपा ने जो सम्मान और अवसर इन नेताओं को दिया था, उसका उन्होंने सदुपयोग नहीं किया, और अब चुनावी परिणामों के रूप में उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा हैं।

अशोक तंवर पर खेला कांग्रेस ने दाव

अशोक तंवर का राजनीतिक सफर वाकई में काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है। उन्होंने हरियाणा कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और एक समय पार्टी के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई महत्वपूर्ण फैसले लिए। भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी सैलजा के बीच विवाद के कारण कांग्रेस ने तंवर को अपने पाले में लाने का प्रयास किया, यह सोचते हुए कि वे पार्टी को फिर से मजबूत कर सकते हैं। लेकिन तंवर की राजनीतिक यात्रा में स्थिरता की कमी रही है। कांग्रेस से निकलने के बाद उन्होंने तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का रुख किया, लेकिन वहां भी उन्हें उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली। फिर भाजपा में शामिल होने के बाद, उन्हें सिरसा से टिकट दिया गया, जो एक बड़ा दांव था, क्योंकि उन्होंने निवर्तमान सांसद सुनीता दुग्गल का टिकट काटकर खुद को प्रतिस्पर्धा में स्थापित किया।

हालांकि, तंवर के लिए यह कदम अंतिम रूप से सफल नहीं हो सका, क्योंकि चुनाव परिणामों ने उन्हें और उनके समर्थन आधार को स्पष्ट कर दिया। उनकी यात्रा यह दर्शाती है कि राजनीतिक स्थिरता और वफादारी ही सफलता की कुंजी होती है। अब तंवर को यह सोचने की जरूरत है कि वे भविष्य में किस दिशा में आगे बढ़ेंगे और क्या वे अपने पिछले अनुभवों से कुछ सीखते हैं या नहीं।

बृजेंद्र सिंह को मिली हार

सिरसा में अशोक तंवर की हार और हिसार में बृजेंद्र सिंह की राजनीतिक विफलता, दोनों ही नेताओं के लिए एक महत्वपूर्ण चेतावनी के रूप में सामने आई हैं। तंवर ने भाजपा के साथ रहते हुए कांग्रेस की सैलजा से हार का सामना किया, जो दर्शाता है कि उनकी राजनीतिक स्थिति कितनी अस्थिर रही। चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल होने की उनकी जल्दी और यह सोच कि पार्टी की सरकार बनेगी, उनके लिए महंगा साबित हुआ। इसी तरह, बृजेंद्र सिंह का मामला भी कम दिलचस्प नहीं है। उन्होंने अपने परिवार के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए कांग्रेस में शामिल होने का निर्णय लिया था, लेकिन उन्हें कहीं से भी टिकट नहीं मिला।

यह स्थिति उनके लिए निराशाजनक रही, खासकर जब उन्होंने अपने पिता और माता की राजनीतिक विरासत को देखते हुए काफी उम्मीदें लगाई थीं। दुनिया की राजनीति में समय और सही फैसले की बहुत अहमियत होती है। बृजेंद्र और तंवर दोनों ही नेताओं ने अपनी राजनीतिक पहचान को मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लिए, लेकिन असलियत यह है कि राजनीतिक विकल्पों की कमी और सही समय पर सही निर्णय लेना उनकी हार का कारण बना।

रणजीत चौटाला को चुकानी पड़ी कीमत

रणजीत चौटाला का भाजपा से नाराज होना और पार्टी के खिलाफ बगावत करना, वास्तव में उनके राजनीतिक भविष्य के लिए एक बड़ा जोखिम साबित हुआ है। निवर्तमान बिजली मंत्री के रूप में उनकी पहचान रही है, लेकिन लोकसभा चुनाव में हार के बाद, जब भाजपा ने उन्हें रानियां से टिकट देने से मना कर दिया, तब उनकी निराशा स्वाभाविक थी। उनका यह कदम, यानी भाजपा से बगावत राजनीतिक रणनीति के लिहाज से कहीं कहीं गलती के रूप में देखा जा रहा है। पार्टी की मुख्यधारा से अलग होकर चुनाव लड़ने का उनका निर्णय उनके लिए एक चुनौती बन गया, खासकर जब उन्हें यह एहसास हुआ कि उन्होंने अपनी राजनीतिक ताकत को कमजोर किया हैं।

अब हार के बाद उनके राजनीतिक भविष्य पर गंभीर सवाल उठने लगे हैं। यह स्पष्ट है कि राजनीतिक खेल में अवसरों का सही उपयोग करने और अपने फैसलों के प्रति सजग रहने की आवश्यकता होती है। रणजीत चौटाला के मामले में उनकी बगावत ने उनके लिए अवसरों के दरवाजे बंद कर दिए हैं।

 

 

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