"झारखंड विधानसभा चुनाव 2024: बिरसा मुंडा और उलगुलान की गाथा – आदिवासी संघर्ष का अमिट इतिहास" इस लेख में हम झारखंड के महान नायक बिरसा मुंडा और उनके अद्वितीय विद्रोह 'उलगुलान' के बारे में जानेंगे। यह कहानी अंग्रेजी हुकूमत को एक नई चुनौती देने वाले आदिवासियों के भगवान बिरसा की संघर्ष की अद्वितीय गाथा है। आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए, आइए हम झारखंड के इस नायक की प्रेरणादायक कहानी को समझें। झारखंड के गठन को 15 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन इस राज्य का इतिहास सदियों पहले से अंकुरित हो चुका था। अंग्रेजी शासन के दौरान, जब झारखंड क्षेत्र में सामंती व्यवस्था ने अपने पैर जमाने शुरू किए, तब आदिवासियों की पारंपरिक जमीनी व्यवस्था में हस्तक्षेप किया गया। नई स्थायी बंदोबस्ती प्रणाली ने आदिवासी जीवन में आर्थिक शोषण और सामाजिक अशांति के बीज बो दिए। इसी कठिन समय में मुंडा जनजाति के बीच एक नायक उभरा, जिसने विदेशी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया। 1857 के बाद, यह अंग्रेजों के खिलाफ पहला बड़ा संघर्ष था, जिसे 'उलगुलान' के नाम से जाना गया। आज हम झारखंड के प्रतीक, आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा की अमर कहानी को जानते हैं, जो लोककथाओं में जीवित हैं।
खुंटकट्टी व्यवस्था के कारण गोरे लोगों के प्रति नफरत: 1789 से 1820 के बीच, मुंडा जनजाति के बीच अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना तेजी से बढ़ी। इसका मुख्य कारण खुंटकट्टी व्यवस्था थी, जो छोटानागपुर में प्रचलित एक प्रथा थी। इस व्यवस्था के तहत, एक ही किल्ली (कुल) के सभी परिवारों को भूमि का स्वामित्व दिया जाता था, जिसे उन्होंने जंगलों को काटकर कृषि के लिए तैयार किया था। जब अंग्रेजों ने इस व्यवस्था में हस्तक्षेप किया, तो आदिवासियों को अपने पारंपरिक अधिकारों से वंचित होना पड़ा। इस शोषण के चलते मुंडा जनजाति के लोगों में गहरे असंतोष और नफरत की भावना पनपी, जिससे उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का रास्ता चुना।
मिशनरियों की आलोचना के कारण स्कूल से निकाले गए: 1850 के दशक में, आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई धर्म का प्रचार तेजी से बढ़ा। इसी समय, 1875 में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ। उनके परिवार ने शुरुआत में ईसाई धर्म अपनाया, लेकिन धीरे-धीरे बिरसा को मिशनरियों की गतिविधियों और उनके आदिवासी भूमि पर कब्जे के प्रयासों से मोहभंग हो गया। जब उन्होंने मिशनरियों की आलोचना की, तो इसके परिणामस्वरूप उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। इस घटना ने बिरसा को जागरूक किया और उन्हें आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
जब बिरसा को ईश्वर के दूत और भगवान माना जाने लगा: 1891 से 1896 के बीच, बिरसा मुंडा ने धर्म, नीति और दर्शन का गहन अध्ययन किया। इस दौरान, उन्होंने अपने अनुयायियों को धार्मिक और नैतिक उपदेश देना शुरू किया, जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। लोग उन्हें "बिरसाइत" के नाम से जानने लगे और उन्हें ईश्वर का दूत तथा भगवान का दर्जा दिया जाने लगा। उनकी शिक्षाओं और नेतृत्व ने आदिवासी समुदाय के बीच एक नई चेतना और एकता का संचार किया।
वन के बकाए की माफी के लिए चलाया गया आंदोलन: अगस्त 1895 में, बिरसा मुंडा ने वन संबंधी बकाए की माफी के लिए एक आंदोलन शुरू किया। उन्होंने चाईबासा तक यात्रा की और गांव-गांव से रैयतों को एकत्रित कर उन्हें चाईबासा लाया। हालांकि, अंग्रेजी सरकार ने उनकी मांग को ठुकरा दिया। इस पर बिरसा ने ऐलान किया कि अब से आदिवासियों का शासन होगा और उन्होंने नारा दिया: "अबुआ दिसुम, अबुआ राज" यानी "हमारे देश पर हमारा राज होगा।"
बिरसा को गिरफ्तार करने वालों को खदेड़ा: 9 अगस्त, 1895 को पहली बार बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करने का प्रयास किया गया, लेकिन उनके अनुयायियों ने पुलिस को पीछे धकेल दिया। 16 अगस्त को जब पुलिस फिर से उन्हें गिरफ्तार करने आई, तो बिरसा के 900 अनुयायियों ने मिलकर उन्हें छुड़ा लिया।
रात के अंधेरे में गिरफ्तारी और रांची जेल की सजा: 24 अगस्त, 1895 को पुलिस अधीक्षक मेयर्स की अगुवाई में पुलिस ने रात के समय बिरसा मुंडा को गिरफ्तार किया। उन्हें रांची जेल में भेजा गया। सुबह होते ही बिरसा के समर्थकों की भीड़ जेल के बाहर जमा हो गई। उन पर आरोप था कि वे चलकद में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह के लिए लोगों को भड़का रहे थे। अदालत ने बिरसा और उनके 15 साथियों को दो साल की जेल की सजा सुनाई, और बाद में उन्हें रांची जेल से हजारीबाग जेल में स्थानांतरित कर दिया गया।
महारानी विक्टोरिया के समारोह में जेल से रिहाई: 1897 में झारखंड में भीषण अकाल पड़ा, साथ ही चेचक की महामारी भी फैली। इस कठिनाई में आदिवासी समाज बिरसा मुंडा के नेतृत्व के बिना सरकार के दमन, अकाल और महामारी से लड़ता रहा। उसी समय, ब्रिटिश सरकार महारानी विक्टोरिया के डायमंड जुबली समारोह का आयोजन कर रही थी। इस अवसर पर कई आंदोलनकारियों के साथ बिरसा को भी रिहा कर दिया गया। 30 नवंबर, 1897 को जेल से छूटने के बाद, बिरसा सीधे चलकद लौटे और अकाल तथा महामारी से प्रभावित लोगों की सेवा में जुट गए। उन्होंने गुप्त राजनीतिक सभाएं भी आयोजित कीं, जिससे एक नए आंदोलन की नींव रखी गई।
जंगल और ज़मीन के अधिकार के लिए अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह: 1899 के अंत तक, जमींदारों को लगान न देने, भूमि को मालगुजारी से मुक्त करने और जंगल के अधिकारों को पुनः प्राप्त करने का संकल्प लिया गया। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में लोहरदगा, तोरपा, कर्रा, बसिया, खूंटी, मुरहू, बुंडू, तमाड़ और पोड़ाहाट जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बैठकें आयोजित की गईं। 24 दिसंबर, 1899 को, रांची जिले के तोरपा, खूंटी, तमाड़, और बसिया से लेकर सिंहभूम जिले के चक्रधरपुर थाने तक विद्रोह की लहर उठ गई। यह आंदोलन अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आदिवासियों की एकजुटता और संघर्ष का प्रतीक बन गया।
बिरसा की गिरफ्तारी के लिए इनाम की घोषणा: जनवरी 1900 में, बिरसा मुंडा की तलाश में पुलिस और सेना ने पोड़ाहाट के जंगलों में व्यापक सर्च ऑपरेशन चलाया। 500 वर्ग मील के इलाके में पुलिस बल तैनात किया गया, और इसके खर्च का बोझ स्थानीय जनसंख्या पर डाला गया ताकि वे बिरसा के आंदोलन का समर्थन न कर सकें। सरकार ने बिरसा की सूचना देने वाले के लिए इनाम घोषित किया, लेकिन उनके बारे में किसी ने कोई जानकारी नहीं दी। यह स्थिति बिरसा की लोकप्रियता और आदिवासियों के बीच उनके प्रति निष्ठा को दर्शाती है।
जब बिरसा को जेल में धीमा जहर दिया गया: 20 मई, 1900 को बिरसा मुंडा को कोर्ट में पेश किया जाना था, लेकिन उनकी तबीयत खराब हो जाने के कारण उन्हें वापस जेल भेज दिया गया। इसके बाद, अगले 10 दिनों तक यह खबर आती रही कि बिरसा बीमार हैं। फिर, 9 जून, 1900 को अचानक यह shocking खबर आई कि हैजे के कारण उनकी मृत्यु हो गई है। कई इतिहासकारों का मानना है कि बिरसा को जेल में धीमा जहर दिया गया था, जिससे उनकी हालत बिगड़ती गई और अंततः उनकी जान चली गई।