हम दोनों भाई थे – मैं और मेरे बड़े भाई साहब। पढ़ाई के सिलसिले में हम दोनों को शहर के एक बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करवा दिया गया था। भाई साहब उम्र में मुझसे करीब पांच साल बड़े थे, लेकिन क्लास बस दो आगे। ये बात सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन असल में वह बेहद गंभीर, अनुशासित और पढ़ाई को लेकर जुनूनी किस्म के इंसान थे। हर साल उनका इरादा होता कि इस बार जी-जान लगाकर पढ़ाई करनी है। लेकिन पढ़ाई का बोझ इतना भारी होता कि किताबें पढ़ने से पहले ही सिर भारी हो जाता। नतीजा ये होता कि वो क्लास में पास तो हो जाते, लेकिन नंबर कभी कुछ खास नहीं आते।
मैं दूसरी तरह का इंसान था – चंचल, जिज्ञासु, और पढ़ाई से ज्यादा खेलने-कूदने में दिलचस्पी रखने वाला। लेकिन पढ़ने में उतना कमजोर भी नहीं था। भगवान की कृपा कहिए या किस्मत का खेल, मैं हर साल बिना ज्यादा मेहनत किए अच्छे नंबरों से पास हो जाता।
भाई साहब पढ़ाई को लेकर इतने सजग रहते कि अगर मैं गलती से पांच मिनट भी खेलने चला जाऊं तो जैसे अदालत में पेशी हो जाए। वो समझाते थे – 'तुम समझते क्यों नहीं कि ये खेलने का समय नहीं है। जो समय अभी किताबों के लिए है, वही तुम्हारे भविष्य की नींव रखेगा।'
मैं चुपचाप सुनता रहता, सिर हिलाता और दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं करता। भाई साहब की बातों में एक अलग असर होता था – वो न सिर्फ बड़े थे, बल्कि उनका व्यवहार भी बड़ा था। वो पढ़ाई को इज्ज़त की तरह लेते थे और किताबों को अपने जीवन का सबसे अहम हिस्सा मानते थे।
लेकिन अंदर की बात ये थी कि भाई साहब पढ़ाई में जितनी मेहनत करते, उतनी सफलता नहीं मिलती। वो सुबह उठकर अंग्रेज़ी की किताब खोलते, दिन में हिसाब के सवाल हल करते और रात को इतिहास के नोट्स बनाते। जबकि मैं बस स्कूल से आकर थोड़ा-बहुत होमवर्क करता और फिर मैदान में भाग जाता।
फिर भी, हर परीक्षा के बाद मेरा रिज़ल्ट उनसे बेहतर होता। और यही बात उन्हें अंदर ही अंदर चुभती थी, लेकिन वो कभी जाहिर नहीं होने देते। वो हमेशा मुझे सलाह देते रहते – 'ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता। अगर आज मेहनत नहीं करोगे तो कल पछताना पड़ेगा।'
एक बार की बात है, मैं क्रिकेट खेलते हुए बॉल उठाने के लिए बाउंड्री के बाहर चला गया। वहीं एक छोटी सी दीवार थी, जिसके पार किताबों की दुकान थी। बॉल वहीं चली गई थी। मैं बॉल उठाने गया और किताबों की दुकानों को देखता हुआ कुछ देर ठहर गया। उसी वक्त भाई साहब वहां से गुजर रहे थे। उन्होंने मुझे देखा और उनकी भौंहें चढ़ गईं।
रात को जैसे ही मैं कमरे में लौटा, भाई साहब तैयार बैठे थे – 'कहाँ थे तुम?'
'क्रिकेट खेल रहा था,' मैंने जवाब दिया।
'तुम्हें पढ़ाई की कोई परवाह नहीं है? इतनी देर से खेल रहे हो?'
मैंने डरते हुए कहा – 'बस पांच मिनट रुक गया था, बॉल लेने गया था'
भाई साहब का भाषण शुरू हो गया – 'पांच मिनट, फिर दस मिनट, फिर आधा घंटा, फिर एक दिन… और फिर तुम देखोगे कि जिंदगी पीछे छूट गई। अगर इस उम्र में मेहनत नहीं करोगे तो कब करोगे?'
मैंने चुपचाप सब सुन लिया और मन ही मन सोचा – 'भाई साहब तो खुद हर साल एक ही क्लास में रहते हैं, फिर भी मुझे पढ़ाई की सीख दे रहे हैं!'
लेकिन मैंने कभी उनके सामने ये बात नहीं कही। मैं जानता था कि वो मेरी भलाई के लिए ही इतना बोलते हैं।
समय बीतता गया और एक दिन रिज़ल्ट आया। मेरा नाम पास लिस्ट में सबसे ऊपर था। भाई साहब फिर से वहीं के वहीं थे। वो चुपचाप रहे, लेकिन उनकी आंखों में एक झलक थी – दुख, निराशा और थोड़ी सी ईर्ष्या।
मैंने उनसे कहा – 'भाई साहब, इस बार आप क्लास क्यों नहीं बदल पाए?'
वो गहरी सांस लेकर बोले – 'किताबें पढ़ लेने से ही विद्या नहीं आती। उसे समझना, अपनाना और उस पर अमल करना भी जरूरी होता है। शायद मैं ज्यादा सोचता हूँ और कम समझता हूँ।'
मैंने पहली बार देखा कि भाई साहब की आंखें नम हो गई थीं। मैंने आगे कुछ नहीं कहा।
अगले कुछ हफ्तों तक भाई साहब ने मुझसे ज्यादा कुछ नहीं कहा। मैं समझ गया था कि उनका आत्मसम्मान आहत हुआ है। मैंने खुद उनसे कुछ नहीं पूछा, लेकिन उनके व्यवहार में एक अजीब सी शांति आ गई थी।
कुछ दिनों बाद एक शाम मैं खेलने के लिए जा रहा था, तो देखा भाई साहब बरामदे में बैठे किताब पढ़ रहे हैं। मैं चुपचाप निकलने लगा कि उन्होंने अचानक पुकारा – 'कहाँ जा रहे हो?'
मैं थोड़ा झिझकते हुए बोला – 'खेलने'
भाई साहब मुस्कराए – 'जाओ, लेकिन आधे घंटे में वापस आ जाना और होमवर्क खत्म कर लेना।'
मैं हैरान था। ये वही भाई साहब थे, जो खेलने के नाम पर कड़ी फटकार लगाते थे!
मैंने खेल खत्म किया, समय पर लौटा और पढ़ाई भी की। अब भाई साहब मुझसे कम बोलते थे, लेकिन जो भी बोलते, उसमें न सख्ती होती और न ही गुस्सा। शायद उन्होंने समझ लिया था कि हर किसी की सीखने की रफ्तार और तरीका अलग होता है।
वक़्त बीतता गया। मैं आगे की क्लासों में बढ़ता गया और भाई साहब धीरे-धीरे अपने भीतर झांकते हुए खुद को समझने लगे। उन्होंने पढ़ाई को बोझ नहीं, बल्कि अनुभव की तरह लेना शुरू किया।
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो महसूस होता है कि भाई साहब की डांट, उनके भाषण, और उनकी सलाहों में सच्ची चिंता थी। उनका तरीका थोड़ा सख्त था, लेकिन उनकी नीयत साफ थी। वो सिर्फ एक अच्छे बड़े भाई नहीं, बल्कि एक सच्चे मार्गदर्शक भी थे – जो खुद चाहे जितनी बार भी गिरे हों, लेकिन छोटे को कभी गिरने नहीं देना चाहते थे।