एक बार की बात है। एक वन में एक तपस्वी रहते थे, जो बहुत पहुंचे हुए ऋषि थे। उनका तपस्या बल बहुत ऊंचा था। वे रोज़ प्रातः नदी में स्नान करके, नदी किनारे एक पत्थर पर आसन जमाकर तपस्या करते थे। निकट ही उनकी कुटिया थी, जहां उनकी पत्नी भी रहती थी। एक दिन, एक विचित्र घटना घटी। तपस्या समाप्त करने के बाद ईश्वर को प्रणाम करते समय, उनके हाथों में अचानक एक नन्ही-सी चुहिया आ गिरी। वास्तव में, आकाश में एक चील अपने पंजों में उस चुहिया को दबाए उड़ रही थी, और संयोगवश चुहिया पंजों से छूटकर गिर पड़ी थी।
ऋषि ने मौत के भय से कांपती चुहिया को देखा। ऋषि और उनकी पत्नी की कोई संतान नहीं थी। कई बार पत्नी ने संतान की इच्छा व्यक्त की थी, लेकिन ऋषि जानते थे कि उनकी पत्नी के भाग्य में संतान नहीं है। किस्मत को बदल नहीं सकते थे, लेकिन वे यह सच्चाई बताकर पत्नी का दिल नहीं दुखाना चाहते थे। वे हमेशा सोचते रहते कि किस उपाय से पत्नी के जीवन का यह अभाव दूर किया जाए। ऋषि को नन्हीं चुहिया पर दया आ गई। उन्होंने अपनी आंखें बंद कर एक मंत्र पढ़ा और अपनी तपस्या की शक्ति से चुहिया को मानव बच्ची बना दिया। वह बच्ची को घर ले गए और अपनी पत्नी से बोले, "सुभागे, तुम सदा संतान की कामना करती थी। समझ लो कि ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली और यह बच्ची भेज दी। इसे अपनी पुत्री समझकर इसका लालन-पालन करो।"
बच्ची को देखकर खुश हुई
ऋषि की पत्नी बच्ची को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और उसे अपने हाथों में लेकर चूमने लगी। "कितनी प्यारी बच्ची है। मेरी बच्ची ही तो है। इसे मैं पुत्री की तरह ही पालूंगी।" इस प्रकार, वह चुहिया मानव बच्ची बनकर ऋषि के परिवार में पलने लगी। ऋषि की पत्नी सच्ची मां की तरह ही उसकी देखभाल करने लगी और उसका नाम कांता रखा। ऋषि भी कांता से पिता की तरह स्नेह करने लगे। धीरे-धीरे वे यह भूल गए कि उनकी पुत्री कभी चुहिया थी। मां तो बच्ची के प्यार में खो गई और दिन-रात उसे खिलाने और उससे खेलने में लगी रहती।
ऋषि अपनी पत्नी को ममता लुटाते देख प्रसन्न होते कि आखिर उसे संतान न होने का दुख नहीं रहा। ऋषि ने स्वयं भी उचित समय आने पर कांता को शिक्षा दी और सारी ज्ञान-विज्ञान की बातें सिखाई। समय पंख लगाकर उड़ने लगा। कांता बढ़ते-बढ़ते सोलह वर्ष की सुंदर, सुशील और योग्य युवती बन गई। माता को बेटी के विवाह की चिंता सताने लगी। एक दिन उसने ऋषि से कहा, "सुनो, अब हमारी कांता विवाह योग्य हो गई है। हमें उसके हाथ पीले कर देने चाहिए।" तभी कांता वहां आ पहुंची। उसने अपने केशों में फूल गूंथ रखे थे और चेहरे पर यौवन दमक रहा था। ऋषि को लगा कि उनकी पत्नी ठीक कह रही है। उन्होंने धीरे से अपनी पत्नी के कान में कहा, "मैं अपनी बिटिया के लिए अच्छे से अच्छा वर ढूंढ निकालूंगा।"
सूर्यदेव का किया आवाहन
ऋषि ने अपने तपोबल से सूर्यदेव का आवाहन किया। सूर्यदेव प्रकट हुए और बोले, "प्रणाम मुनि श्री, कहिए आपने मुझे क्यों स्मरण किया? क्या आज्ञा है?" ऋषि ने कांता की ओर इशारा करके कहा, "यह मेरी बेटी है। सर्वगुण संपन्न है। मैं चाहता हूं कि तुम इससे विवाह कर लो।" तभी कांता बोली, "तात, यह बहुत गर्म हैं। मेरी तो आंखें चुंधिया रही हैं। मैं इनसे विवाह कैसे करूं? न कभी इनके निकट जा पाऊंगी, न देख पाऊंगी।" ऋषि ने कांता की पीठ थपथपाई और बोले, "ठीक है। दूसरे और श्रेष्ठ वर देखते हैं।" सूर्यदेव बोले, "ऋषिवर, बादल मुझसे श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी ढक लेता है। उनसे बात कीजिए।"
ऋषि के बुलाने पर बादल गरजते और बिजलियां चमकाते प्रकट हुए। बादल को देखते ही कांता ने विरोध किया, "तात, यह तो बहुत काले रंग का है। मेरा रंग गोरा है। हमारी जोड़ी नहीं जमेगी।" ऋषि ने बादल से पूछा, "तुम्हीं बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन है?" बादल ने उत्तर दिया, "पवन। वह मुझे भी उड़ाकर ले जाता है। मैं तो उसी के इशारे पर चलता हूं।" ऋषि ने पवन का आह्वान किया। पवन देव प्रकट हुए तो ऋषि ने कांता से ही पूछा, "पुत्री, क्या तुम्हें यह वर पसंद है?" कांता ने अपना सिर हिलाया, "नहीं तात! यह बहुत चंचल है। एक जगह टिकेगा ही नहीं। इसके साथ गृहस्थी कैसे जमेगी?" ऋषि की पत्नी भी बोली, "हम अपनी बेटी पवन देव को नहीं देंगे। दामाद कम से कम ऐसा तो होना चाहिए, जिसे हम अपनी आंख से देख सकें।"
ऋषि ने की पवन देव से बात
ऋषि ने पवन देव से पूछा, "तुम्हीं बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन है?" पवन देव बोले, "ऋषिवर, पर्वत मुझसे भी श्रेष्ठ है। वह मेरा रास्ता रोक लेता है।" ऋषि के बुलाने पर पर्वतराज प्रकट हुए और बोले, "ऋषिवर, आपने मुझे क्यों याद किया?" ऋषि ने सारी बात बताई। पर्वतराज ने कहा, "पूछ लीजिए कि आपकी कन्या को मैं पसंद हूं क्या?" कांता बोली, "ओह! यह तो पत्थर ही पत्थर है। इसका दिल भी पत्थर का होगा।" ऋषि ने पर्वतराज से उससे भी श्रेष्ठ वर बताने को कहा तो पर्वतराज बोले, "चूहा मुझसे भी श्रेष्ठ है। वह मुझे भी छेद कर बिल बनाकर उसमें रहता है।"
पर्वतराज के ऐसा कहते ही एक चूहा उनके कानों से निकलकर सामने आ कूदा। चूहे को देखते ही कांता खुशी से उछल पड़ी, "तात, तात! मुझे यह चूहा बहुत पसंद है। मेरा विवाह इसी से कर दीजिए। मुझे इसके कान और पूंछ बहुत प्यारे लग रहे हैं। मुझे यही वर चाहिए।" ऋषि ने मंत्र बल से एक चुहिया को तो मानव बना दिया, पर उसका दिल तो चुहिया का ही रहा। ऋषि ने कांता को फिर चुहिया बनाकर उसका विवाह चूहे से कर दिया और दोनों को विदा किया।
शिक्षा
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि जीव जिस योनी में जन्म लेता है, उसी के संस्कार बने रहते हैं। स्वभाव नकली उपायों से नहीं बदले जा सकते।