भारत में ऑटोइम्यून बीमारियों से पीड़ित लगभग 70 फीसदी मरीज महिलाएं हैं, खासकर 20 से 50 वर्ष की आयु में। हार्मोनल बदलाव, जीवनशैली, तनाव और पोषण की कमी इन्हें अधिक संवेदनशील बनाती हैं। विशेषज्ञों ने शीघ्र निदान और जागरूकता बढ़ाने पर जोर दिया है।
नई दिल्ली: भारत में ऑटोइम्यून बीमारियों से प्रभावित अधिकांश मरीज महिलाएं हैं। एम्स, फोर्टिस, आरएमएल और सर गंगा राम अस्पतालों के विशेषज्ञों ने बताया कि इन बीमारियों में लगभग 70 फीसदी मरीज महिलाएं हैं, जिनमें अधिकतर 20 से 50 वर्ष की उम्र की हैं। हार्मोनल बदलाव, तनाव, मोटापा और पोषण की कमी इनके जोखिम को बढ़ाती हैं। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि महिलाओं में शुरुआती लक्षण अक्सर अनदेखा किए जाते हैं, जिससे बीमारी गंभीर हो जाती है। उन्होंने कहा कि शीघ्र निदान, जागरूकता और प्रशिक्षित रुमेटोलॉजिस्ट की संख्या बढ़ाना आवश्यक है।
एम्स की रिपोर्ट: महिलाएं अधिक प्रभावित
एम्स नई दिल्ली में रुमेटोलॉजी विभाग की प्रमुख डॉ. उमा कुमार के अनुसार, एम्स क्लिनिक में ऑटोइम्यून रोगों से पीड़ित हर दस में से लगभग सात मरीज महिलाएं हैं। महिलाएं अक्सर शुरुआती लक्षणों को अनदेखा कर देती हैं, जिससे बीमारी गंभीर हो जाती है। हार्मोनल परिवर्तन, प्रजनन उम्र, बच्चे के जन्म के बाद शारीरिक बदलाव, तनाव, मोटापा और पोषण संबंधी कमियां मिलकर महिलाओं को ऑटोइम्यून बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार, 20 से 50 वर्ष की आयु की महिलाएं इस बीमारी से सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। इस उम्र में हार्मोनल गतिविधि और जीवनशैली संबंधी बदलाव अधिक होते हैं, जिससे रोग के विकसित होने की संभावना बढ़ जाती है।
30 से 40 साल की महिलाओं में बढ़ती घटनाएं
फोर्टिस अस्पताल के रुमेटोलॉजी निदेशक डॉ. बिमलेश धर पांडेय ने बताया कि उनके क्लिनिक में हर सप्ताह कई महिलाएं आती हैं जो वर्षों से अस्पष्टीकृत जोड़ों के दर्द या सूजन से परेशान रही हैं। अधिकांश मामलों में महिलाएं 30 या 40 साल की आयु के बीच हैं। जब ये मरीज उनके पास पहुंचते हैं, तब तक बीमारी उनके जोड़ों और अन्य अंगों को नुकसान पहुँचा चुकी होती है।
डॉ. पांडेय ने बताया कि महिलाओं में थकान, जोड़ों में अकड़न या सूजन जैसे शुरुआती चेतावनी संकेत अक्सर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। महिलाएं इन्हें उम्र बढ़ने, तनाव या सामान्य समस्याओं का हिस्सा मानकर टाल देती हैं, जिससे रोग और गंभीर हो जाता है।
आरएमएल और सर गंगा राम अस्पताल में आंकड़े
सर गंगा राम अस्पताल के रुमेटोलॉजी उपाध्यक्ष डॉ. नीरज जैन ने कहा कि ऑटोइम्यून रोगियों में स्पष्ट बहुमत महिलाएं हैं। स्टैनफोर्ड के अध्ययन अनुसार जैविक कारण महिलाओं में इस रोग के उच्च जोखिम को दर्शाते हैं, लेकिन भारत में सामाजिक और पर्यावरणीय कारक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
डॉ. पुलिन गुप्ता, रुमेटोलॉजिस्ट और प्रोफेसर, राम मनोहर लोहिया अस्पताल में बताते हैं कि उनके क्लिनिक में लगभग 70 प्रतिशत ऑटोइम्यून रोगियों की पहचान महिलाएं हैं। कई मरीज विशेषज्ञ के पास पहुंचने से पहले वर्षों तक गलत या अपर्याप्त इलाज करवाते रहे हैं।
विशेषज्ञों ने उठाई डॉक्टरों की कमी की समस्या
भारत में प्रशिक्षित रुमेटोलॉजिस्टों की संख्या अत्यंत कम है। एक अरब से अधिक की आबादी के लिए देश में 1,000 से भी कम विशेषज्ञ उपलब्ध हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि प्राथमिक देखभाल चिकित्सकों को ऑटोइम्यून बीमारियों के शुरुआती लक्षण पहचानने और मरीजों को उचित विशेषज्ञ के पास रेफ़र करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
इसके अलावा, जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों में महिला स्वास्थ्य पहलों के अंतर्गत ऑटोइम्यून रोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए। यह ठीक उसी तरह होना चाहिए जैसे प्रजनन स्वास्थ्य और कैंसर की जाँच पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
महिलाओं में अधिक संवेदनशीलता के कारण
ऑटोइम्यून बीमारियों में महिलाओं की उच्च प्रवृत्ति के पीछे हार्मोनल बदलाव, जीवनशैली, पोषण और तनाव जैसी कई वजहें हैं। प्रजनन उम्र के दौरान हार्मोनल असंतुलन, गर्भावस्था और प्रसव के बाद शरीर में बदलाव महिलाओं को इस रोग के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं।
डॉक्टरों के अनुसार, जागरूकता की कमी और शुरुआती लक्षणों को नजरअंदाज करना महिलाओं में बीमारी की गंभीरता बढ़ाने वाला प्रमुख कारण है।