सुप्रीम कोर्ट आज एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाने जा रही है, जिसमें यह तय होगा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) का अल्पसंख्यक दर्जा रहेगा या नहीं। इस मुद्दे को लेकर काफी लंबे समय से विवाद चला आ रहा है। प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ इस मामले में अपना फैसला सुनाएगी।
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट शुक्रवार को इस महत्वपूर्ण सवाल पर फैसला सुनाने वाली है कि क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रहेगा। अनुच्छेद 30 के अनुसार, धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार हैं।
यह निर्णय न केवल एएमयू के लिए महत्वपूर्ण होगा, बल्कि इसके प्रभाव का दायरा अन्य अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों तक भी पहुँच सकता है, जैसे कि जामिया मिलिया इस्लामिया। एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा मिलने से मुस्लिम समुदाय के छात्रों के लिए विशेष प्रावधान और अधिकार संरक्षित रहते हैं।
यदि सुप्रीम कोर्ट एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रखती है, तो यह अल्पसंख्यक अधिकारों को और मजबूती प्रदान करेगा। वहीं, अगर कोर्ट इसका दर्जा समाप्त करती है, तो अन्य अल्पसंख्यक संस्थानों पर भी इसका असर देखने को मिल सकता है, और भविष्य में उनके विशेष अधिकारों को चुनौती मिल सकती हैं।
सुप्रीम कोर्ट आज सुनाएगा फैसला
सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ, जिसकी अध्यक्षता प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ कर रहे हैं, शुक्रवार को इस विवादास्पद मुद्दे पर अपना फैसला सुनाने वाली है कि क्या अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) को संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त रहना चाहिए। इस पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पार्डीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा, और सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल हैं।
इस मामले पर अदालत ने आठ दिन तक दलीलें सुनीं और एक फरवरी को फैसला सुरक्षित रखा था। अदालत ने उस दिन टिप्पणी की थी कि एएमयू अधिनियम में 1981 में किए गए संशोधन ने आंशिक रूप से ही इस मुद्दे को हल किया और इस संस्था को 1951 से पहले की स्थिति में नहीं लौटाया। इस संशोधन के बाद से एएमयू को प्रभावी रूप से एक अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा प्राप्त हो गया, लेकिन यह स्थिति विवादों में रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल एएमयू के लिए बल्कि जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे अन्य संस्थानों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण होगा। यदि एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रखा जाता है, तो इससे अल्पसंख्यक समुदायों को अपने संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने के संवैधानिक अधिकार को मजबूती मिलेगी। दूसरी ओर, यदि कोर्ट इस दर्जे को समाप्त करती है, तो यह फैसला अन्य अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकता है और उनके विशेष अधिकारों पर भी असर डाल सकता हैं।
कब हुआ था एएमयू का गठन?
सुप्रीम कोर्ट में एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर चल रहे इस मामले में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अपनी दलीलों में जोर दिया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। उन्होंने कोर्ट को बताया कि एएमयू का गठन 1920 के एक अधिनियम (एएमयू एक्ट) के तहत हुआ था, जिसे सरकार ने पारित किया था। उनके अनुसार, एएमयू न तो अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित हुआ था और न ही उनके द्वारा प्रशासित होता है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान मानना अनुचित होगा।
मेहता ने एएमयू एक्ट में हुए विभिन्न संशोधनों का भी हवाला दिया और संसद में हुए वाद-विवाद का संदर्भ देते हुए कहा कि इसे राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के रूप में देखा जाना चाहिए। उन्होंने संविधान सभा में एएमयू पर हुई बहस का जिक्र करते हुए कोर्ट को बताया कि यह संस्थान देश का एक बेहतरीन शैक्षणिक केंद्र है, लेकिन इसे अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देना गलत होगा।
सॉलिसिटर जनरल ने संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लेख करते हुए बताया कि यह प्रावधान कहता है कि राज्य जाति, धर्म, भाषा, जन्मस्थान, या वर्ण के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। यदि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा दिया जाता है, तो इससे भेदभाव हो सकता है, जो संविधान की मूल भावना के विरुद्ध होगा।