अजमेर में ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह के आसपास का मामला अभी शांत नहीं हुआ था कि अब एक नया विवाद उभरा है, जो 'अढ़ाई दिन के झोंपड़े' से जुड़ा हुआ है। यह विवाद तब तेज हुआ जब कुछ लोग इस स्थल पर नमाज पढ़ने पर पाबंदी की बात करने लगे हैं। 'अढ़ाई दिन के झोंपड़े' वह ऐतिहासिक स्थल है, जहां मुठ्ठीभर मस्जिद के बाद की घटना से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें इतिहास में दर्ज हैं।
राजस्थान: अजमेर स्थित 'अढ़ाई दिन का झोंपड़ा', जो देश की सबसे प्राचीन मस्जिदों में से एक मानी जाती है, एक बार फिर विवादों में घिर गया है। इस बार विवाद का केंद्र बिंदु यहां नमाज पढ़ने को लेकर उठे हैं। कुछ हिंदू और जैन संतों ने यहां नमाज पढ़ने का विरोध किया है, यह कहते हुए कि मस्जिद के गर्भगृह और दीवारों पर हिंदू और जैन मंदिर शैली के स्पष्ट चिन्ह और खंभे देखे जा सकते हैं, जो इस स्थान की सांस्कृतिक और धार्मिक ऐतिहासिकता को लेकर सवाल खड़ा करते हैं।
यह विवाद उस समय और बढ़ गया जब कुछ लोगों ने यहां नमाज पर पाबंदी लगाने की मांग की। यह स्थिति खासतौर पर इसलिए संवेदनशील हो गई क्योंकि इससे पहले अजमेर में ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह के मुद्दे पर भी विवाद छिड़ चुका था। इस मुद्दे ने अब फिर से साम्प्रदायिक और धार्मिक भावनाओं को उकसाया हैं।
क्या है पूरा मामला?
साल की शुरुआत में अढ़ाई दिन के झोपड़े को लेकर एक विवाद ने तूल पकड़ लिया था, जब एक जैन साधु इस ऐतिहासिक स्थल को देखने के लिए वहां पहुंचे। उन्हें समुदाय विशेष के कुछ लोगों ने रोक दिया, जिससे विवाद खड़ा हो गया। अढ़ाई दिन का झोपड़ा एक प्रमुख पर्यटन स्थल है, और इसकी देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) के पास हैं।
जैन साधु को रोके जाने के बाद यह मामला बढ़ गया, और अजमेर सहित देश भर के जैन समुदाय ने इस घटना को लेकर प्रशासन के सामने अपनी आपत्ति दर्ज कराई। जैन समुदाय का आरोप था कि धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन हुआ है और यह उनकी धार्मिक भावनाओं का अपमान हैं।
'अढ़ाई दिन का झोंपड़ा' का इतिहास
'अढ़ाई दिन का झोंपड़ा' मस्जिद का इतिहास बहुत ही दिलचस्प और विवादास्पद है। इसे 1192 ईस्वी में अफगान सेनापति मोहम्मद गोरी के आदेश पर कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया था। इस मस्जिद के निर्माण से पहले यहां एक बड़ा संस्कृत विद्यालय और मंदिर था, जिन्हें नष्ट करके मस्जिद में तब्दील कर दिया गया।
मस्जिद के मुख्य द्वार के बाईं ओर संगमरमर का एक शिलालेख है, जो संस्कृत में उस प्राचीन विद्यालय का उल्लेख करता है, जो पहले इस स्थान पर स्थित था। यह शिलालेख इस स्थल के ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता है। मस्जिद में कुल 70 स्तंभ हैं, जो वास्तव में उन मंदिरों के हैं जिन्हें तोड़ा गया था, लेकिन स्तंभों को वैसे का वैसा छोड़ दिया गया। इन स्तंभों की ऊंचाई करीब 25 फीट है और हर स्तंभ पर सुंदर नक्काशी की गई है, जो उनकी वास्तुकला और इतिहास को प्रकट करती हैं।
1990 के दशक में इस स्थान पर कई प्राचीन मूर्तियां भी बिखरी हुई पाई गई थीं, जो बाद में संरक्षित की गईं। ये मूर्तियां और स्तंभ इस बात का प्रमाण हैं कि अढ़ाई दिन का झोंपड़ा एक ऐसे स्थल पर बना है जहां पहले एक संपन्न हिन्दू और जैन धार्मिक स्थल था, जिसे बाद में एक मस्जिद में बदल दिया गया।
60 घंटों में हुआ मस्जिद का निर्माण
अढ़ाई दिन का झोपड़ा का इतिहास एक दिलचस्प और विवादित कहानी है, जो भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास से जुड़ी हुई है। यह स्थल अजमेर में स्थित है और इसकी कहानी हिंदू-मुस्लिम इतिहास के मिश्रण को दर्शाती है।
माना जाता है कि जब मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराकर अजमेर पर विजय प्राप्त की, तब वह अपने अभियान के दौरान इस क्षेत्र से गुजर रहा था। रास्ते में उसे कई सुंदर हिंदू धर्मस्थल मिले, जो वास्तु के लिहाज से बेहतरीन थे। इन स्थानों को देख गोरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को आदेश दिया कि इनमें से सबसे सुंदर स्थल पर मस्जिद बनाई जाए।
गोरी ने ऐबक को इसे बनाने के लिए केवल 60 घंटे या ढाई दिन का समय दिया। इसके बाद, हेरात (अब अफगानिस्तान में स्थित) के एक प्रसिद्ध वास्तुविद अबु बकर ने मस्जिद का डिज़ाइन तैयार किया। इस कार्य के लिए हिंदू श्रमिकों को चुना गया, जिन्होंने लगातार 60 घंटों तक बिना रुके काम किया। यह समयसीमा इतनी कड़ी थी कि इसे "अढ़ाई दिन का झोपड़ा" कहा जाता है, क्योंकि मस्जिद 60 घंटों में पूरी हुई।