आर. जगन्नाथन ने लड्डू विवाद के संदर्भ में मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण को समाप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया है। उनका मानना है कि मंदिरों के फंड का इस्तेमाल धार्मिक उद्देश्यों के लिए होना चाहिए, न कि उनके प्रबंधन के लिए। वे इस मुद्दे को उठाते हुए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 और 14 का हवाला देते हैं।
तिरुपति: तिरुपति लड्डू विवाद ने भारत में धार्मिक अधिकारों और मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण के मुद्दे को एक बार फिर से गरमा दिया है। इस विवाद के बीच, विभिन्न राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों के बीच मंदिरों के प्रबंधन और सरकारी हस्तक्षेप पर विचार-विमर्श चल रहा है। लेखक आर. जगन्नाथन का स्पष्ट मत है कि मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण समाप्त होना चाहिए। जगन्नाथन का तर्क है कि हिंदू समुदाय को अपने धार्मिक स्थलों के प्रबंधन में अपेक्षाकृत कम अधिकार मिले हैं, विशेषकर अन्य धर्मों की तुलना में। वे यह मानते हैं कि मंदिरों को अपनी आस्थाओं और परंपराओं के अनुसार संचालित करने का अधिकार होना चाहिए।
हालांकि उनके इस दृष्टिकोण के विपरीत, टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे कुछ सहयोगी संस्थान सरकारी नियंत्रण का समर्थन करते हैं, यह कहते हुए कि यह व्यवस्था उचित और आवश्यक है। इस विवाद ने भारतीय समाज में धार्मिक स्वतंत्रता, अधिकारों, और सरकारी हस्तक्षेप के बीच की जटिलताओं को उजागर किया है। जगन्नाथन की आवाज़ इस बहस में महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह हिंदू धार्मिक स्थलों के प्रबंधन में स्वायत्तता की आवश्यकता को जोरदार तरीके से उठाते हैं।
आर. जगन्नाथन ने कहा - क्या सिर्फ मंदिरों में ही भेदभाव होता है?
आर. जगन्नाथन का तर्क है कि जातिगत भेदभाव को रोकने के नाम पर मंदिरों में सरकारी हस्तक्षेप को उचित ठहराना उचित नहीं है। उनका सवाल यह है कि क्या केवल मंदिरों में ही भेदभाव होता है? अगर ऐसा है, तो क्या अन्य धर्मों के धार्मिक स्थलों का भी राष्ट्रीयकरण कर देना चाहिए ताकि भेदभाव को समाप्त किया जा सके?
जगन्नाथन का मानना है कि भेदभाव रोकने के लिए धर्म-निरपेक्ष कानून बनाए जा सकते हैं, और इसके लिए सरकारी नियंत्रण की आवश्यकता नहीं है। वे यह भी सुझाव देते हैं कि राज्य सरकारें मंदिरों की निगरानी कर सकती हैं, उन्हें उचित समय पर चेतावनी दे सकती हैं और यदि आवश्यक हो तो हस्तक्षेप भी कर सकती हैं, लेकिन उन्हें यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वे मंदिरों को स्थायी रूप से सरकारी संपत्ति में बदल दें।
मंदिर कोई पार्क नहीं है जो...
जगन्नाथ का तर्क है कि मंदिरों को सार्वजनिक उपक्रम या पार्क के समान नहीं देखा जाना चाहिए, जहां सभी को समान अधिकार मिले। उनके अनुसार, मंदिर सार्वजनिक-निजी संस्थान हैं, जिनका अपना इतिहास, संस्कृति और विरासत होती है। जब कुछ मंदिरों में विशेष अधिकार किसी परिवार या समूह को दिए गए हैं, तो इसे अन्यायपूर्ण भेदभाव के रूप में नहीं देखा जा सकता हैं।
वे इस तुलना को समझाते हुए कहते हैं कि जैसे किसी कंपनी के प्रमोटर और उसके उत्तराधिकारियों को केवल इसलिए नहीं हटाया जा सकता कि कंपनी बहुत बड़ी हो गई है, ठीक उसी तरह मंदिरों पर पारिवारिक नियंत्रण को भी कम नहीं किया जाना चाहिए। उनका तर्क यह है कि मंदिरों का प्रबंधन और उनके अधिकार संरक्षित होने चाहिए, और यदि आवश्यक हो, तो इसका समाधान एंटी-ट्रस्ट कानूनों के माध्यम से या अन्य व्यवसायों के प्रबंधन के तरीके से किया जाना चाहिए।
सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो मंंदिर - जगन्नाथन
जगन्नाथन ने यह भी उल्लेख किया है कि स्वर्गीय स्वामी दयानंद सरस्वती ने 2012 में एक याचिका दायर की थी, जिसमें मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग की गई थी। हालांकि, इस याचिका पर अब तक कोई फैसला नहीं आया है। उनका तर्क है कि धार्मिक भेदभाव के इस महत्वपूर्ण मुद्दे को हल करने के लिए न्यायपालिका को स्पष्ट दृष्टि और साहस की आवश्यकता है, क्योंकि वह इस विषय में दशकों से शामिल रही हैं।
जगन्नाथन के अनुसार, यह आवश्यक है कि न्यायपालिका इस मामले को गंभीरता से ले और स्पष्टता के साथ निर्णय ले। उनका मानना है कि केवल इस तरह से ही मंदिरों के प्रबंधन में सुधार किया जा सकता है और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की जा सकती है। यह तर्क इस बात को दर्शाता है कि कैसे धार्मिक और कानूनी दृष्टिकोणों के बीच संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण है, विशेषकर जब बात हिंदू धर्म के धार्मिक स्थलों के अधिकारों की होती हैं।