भारत के पहले लोकसभा अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर को प्यार से "दादा साहब मावलंकर" के नाम से भी जाना जाता है। उन्हें भारतीय लोकतंत्र के अभिभावक के रूप में सम्मानित किया जाता है, जिनकी शिक्षा और योगदान ने लोकसभा के संचालन के नियमों की नींव रखी। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें "लोकसभा के जनक" की उपाधि दी, जो उनके संसदीय योगदान को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त है।
गणेश वासुदेव मावलंकर का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
गणेश वासुदेव मावलंकर का जन्म 27 नवंबर 1888 को बड़ौदा में एक मराठी परिवार में हुआ था। उनका परिवार रत्नागिरी जिले के मावलंग से था। प्रारंभिक शिक्षा के लिए वे मुंबई के विभिन्न विद्यालयों में पढ़े और 1902 में उच्च शिक्षा के लिए अहमदाबाद चले गए। उन्होंने 1908 में गुजरात कॉलेज से विज्ञान में ग्रेजुएशन की डिग्री प्राप्त की और फिर 1912 में कानून की डिग्री प्रथम श्रेणी में हासिल की।
वकालत से सामाजिक कार्यों तक
साल 1913 में दादा साहब मावलंकर ने वकालत शुरू की और इसके साथ ही सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। उनका संपर्क महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल से हुआ, जिनसे वे प्रभावित हुए। वे स्वाधीनता संग्राम के साथ जुड़े और अहमदाबाद नगर निगम के सदस्य बने। 1937 में वे बंबई विधानसभा के सदस्य बने और 1946 में केंद्रीय विधानसभा के अध्यक्ष चुने गए।
लोकसभा के पहले अध्यक्ष के रूप में योगदान
भारत की स्वतंत्रता के बाद 1947 में जब संविधान सभा का गठन हुआ, तो मावलंकर ने अंतरिम संसद के अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला। 1952 में भारत में प्रथम लोकसभा के गठन के बाद, पंडित नेहरू ने उन्हें लोकसभा का अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव दिया, जिसे सदन ने भारी बहुमत से मंजूर किया।
उन्होंने लोकसभा के संचालन के लिए कई महत्वपूर्ण नियम बनाए, जिनमें से एक नियम यह था कि किसी भी पार्टी को संसद में प्रतिपक्ष का नेता बनने के लिए उसे कम से कम 10 प्रतिशत सदस्य होने चाहिए। यह नियम आज भी लागू है, जिससे संसद की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता और निष्पक्षता बनी रहती है।
संसद की कार्यप्रणाली में सुधार
अपने कार्यकाल में, दादा साहब मावलंकर ने संसद में कई नई समितियों का गठन किया, जिनमें नियम समिति, कार्यमंत्रणा समिति, और विशेषाधिकार समिति जैसी महत्वपूर्ण समितियाँ शामिल हैं। इन समितियों ने संसद की कार्यप्रणाली को सुव्यवस्थित किया और संसदीय व्यवस्था को मजबूत किया।
उन्होंने लोकसभा में प्रश्नकाल, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा, और धन्यवाद प्रस्ताव जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं की शुरुआत की। इन कदमों से संसद की कार्यवाही में सुधार हुआ और उसे अधिक सशक्त और प्रभावी बनाया गया। मावलंकर के नेतृत्व में ही भारत में संसदीय लोकतंत्र की नींव और आधारशिला रखी गई।
स्वास्थ्य समस्याओं के बावजूद निरंतर कार्य
दादा साहब मावलंकर अपनी कार्यशीलता और समर्पण के लिए जाने जाते थे। वे राजनीति से ऊपर उठकर सिर्फ देश की सेवा करने में विश्वास करते थे। वह अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बिना लंबी-लंबी यात्राएं करते थे, लोगों से मिलते थे और देश की सामाजिक स्थिति पर चर्चा करते थे। 1956 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा और 27 फरवरी 1956 को उनका निधन हो गया।
उनकी विरासत
गणेश वासुदेव मावलंकर का योगदान भारतीय राजनीति और लोकसभा के इतिहास में अमूल्य है। उन्होंने लोकसभा के संचालन के लिए जो नियम और परंपराएँ स्थापित की, वे आज भी हमें मार्गदर्शन प्रदान करती हैं। उनकी जयंती पर हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनके योगदान को याद करते हैं, जिसने भारतीय संसद को लोकतांत्रिक और पारदर्शी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
गणेश वासुदेव मावलंकर की भूमिका भारतीय लोकतंत्र के संस्थापक के रूप में सदैव याद रखी जाएगी, और उनकी मेहनत और समर्पण से आज भी हमारी संसद संचालन में प्रेरित होती है।