विश्वनाथ प्रताप सिंह, जिन्हें वी. पी. सिंह के नाम से भी जाना जाता है, का जन्म 25 जून 1931 को इलाहाबाद जिले के दइया गांव में हुआ था। वह एक हिंदू राजपूत जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे और उनके पूर्वज मंड़ई राज्य के शासक थे। सिंह को उनकी शिक्षा में अच्छे अंक प्राप्त थे और उन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण चरणों में कई प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा ली। उन्होंने कर्नल ब्राउन कैम्ब्रिज स्कूल, देहरादून से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की और फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी स्नातक डिग्री पूरी की। बाद में, उन्होंने पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज से भौतिकी में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की।
राजनीतिक करियर की शुरुआत
वी. पी. सिंह ने 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) से जुड़कर उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य के रूप में राजनीति में कदम रखा। इसके बाद उन्होंने 1971 में लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में वाणिज्य मंत्री बने। 1980 में उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया, जहां उन्होंने कानून व्यवस्था में सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। हालांकि, 1982 में उत्तर प्रदेश में डाकूवाद की समस्या पर काबू न पाने के कारण उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
राजीव गांधी मंत्रालय में योगदान
1980 के दशक में, वी. पी. सिंह को राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री और रक्षा मंत्री के रूप में प्रमुख पदों पर नियुक्त किया गया। उनके कार्यकाल में, उन्होंने बफोर्स घोटाले के मामले में अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा दिखाई और इसके कारण उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। वह हमेशा 'मि. क्लीन' के नाम से जाने जाते थे क्योंकि उन्होंने अपने पूरे करियर में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई और अपने निर्णयों में पारदर्शिता बनाए रखी।
प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल
1989 में वी. पी. सिंह ने जनता दल की स्थापना की और देश की राजनीति में एक बड़ा मोड़ लाया। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (BJP) का समर्थन प्राप्त किया और राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार का नेतृत्व करते हुए भारत के सातवें प्रधानमंत्री के रूप में पदभार ग्रहण किया। उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे महत्वपूर्ण कदम था मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना, जिसने भारत के पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू किया। इस फैसले से पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए, लेकिन सिंह ने इसे अपनी सरकार का अहम हिस्सा बनाए रखा।
कश्मीरी हिंदू संकट और इस्तीफा
वी. पी. सिंह के कार्यकाल के दौरान 1990 में कश्मीर में हिंदू समुदाय के खिलाफ हिंसा और उनके पलायन का संकट उभरा। इसके साथ ही, सिंह ने राम रथ यात्रा का विरोध किया था, जिसके कारण भारतीय जनता पार्टी ने उनके नेतृत्व वाली सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद 1990 में उनकी सरकार ने अविश्वास प्रस्ताव हारने के बाद सिंह ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उनका कार्यकाल महज 343 दिन ही रहा, लेकिन उनके फैसले और नेतृत्व ने भारतीय राजनीति में एक गहरी छाप छोड़ी।
चुनावों में निरंतर सक्रियता
वी. पी. सिंह ने 1991 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री बनने का प्रयास किया, लेकिन वह हार गए। इसके बाद, उन्होंने 1996 के भारतीय आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव ठुकरा दिया और देवगौड़ा को अपना समर्थन दिया।
सार्वजनिक जीवन और बीमारी
राजनीतिक जीवन से संन्यास लेने के बाद भी, वी. पी. सिंह सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहे और उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय दी। 1998 में उन्हें मल्टीपल मायलोमा (एक प्रकार का कैंसर) का पता चला और 2003 तक वह इस बीमारी से जूझते रहे। 27 नवंबर 2008 को उनका निधन हो गया और उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई।
वी. पी. सिंह का जीवन एक संघर्षपूर्ण यात्रा थी, जहां उन्होंने भारतीय राजनीति में बदलाव की कोशिश की। चाहे वह मंडल आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन का मुद्दा हो या फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी आवाज, उन्होंने हमेशा देश के हित में फैसले लिए। उनका योगदान आज भी भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है और उनके निर्णयों ने भारतीय समाज की धारा को प्रभावित किया।