बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले दलित वोटों पर पकड़ को लेकर चिराग पासवान और जीतनराम मांझी आमने-सामने हैं। लेकिन 2020 के आंकड़े बताते हैं कि इनकी पकड़ उतनी मजबूत नहीं जितनी मानी जाती है।
Bihar Election 2025: बिहार में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं और तमाम राजनीतिक दल दलित मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने लालू यादव के जन्मदिन पर दलित बस्तियों में भोज आयोजित कर संदेश देने की कोशिश की। कांग्रेस ने दलित चेहरे राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। वहीं, एनडीए के घटक दल बीजेपी और जेडीयू भी दलित राजनीति के मैदान में सक्रिय हैं।
एनडीए के अंदरूनी टकराव: चिराग बनाम मांझी
सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए में शामिल दो प्रमुख दलित नेता—चिराग पासवान और जीतनराम मांझी—अब आपस में ही आमने-सामने हैं। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्यूलर) के प्रमुख मांझी ने लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान पर निशाना साधा। इसके जवाब में एलजेपीआर के नेताओं ने मांझी पर पलटवार किया। यह जुबानी जंग इस बात की ओर इशारा करती है कि एनडीए के भीतर भी दलित वोटों को लेकर रस्साकशी जारी है।
बिहार में दलितों का राजनीतिक महत्व
बिहार की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों (एससी) की भागीदारी 19.65 फीसदी है। 243 सदस्यीय विधानसभा में 38 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं। इसके अतिरिक्त, अनुसूचित जनजातियों (एसटी) की आबादी 1.68 फीसदी है और उनके लिए दो सीटें आरक्षित हैं। इस तरह, एससी-एसटी मिलाकर राज्य में इन वर्गों की जनसंख्या लगभग 21 फीसदी है और विधानसभा में कुल 40 सीटें इनके लिए आरक्षित हैं।
कौन कितनी पकड़ रखता है दलित वोट पर?
2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान की पार्टी को कुल 5.8 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन वह केवल एक सीट जीत पाई थी। वहीं जीतनराम मांझी की पार्टी को एक फीसदी से भी कम वोट मिले, लेकिन उन्होंने चार सीटों पर जीत दर्ज की। आरक्षित 38 सीटों में से एनडीए को 21 पर जीत मिली थी, जबकि महागठबंधन ने 17 सीटों पर कब्जा जमाया था। इनमें बीजेपी को 11, जेडीयू को 8, मांझी की पार्टी को 3 और मुकेश सहनी की वीआईपी को 1 सीट मिली थी।
2020 में किसका प्रदर्शन कैसा रहा?
आरक्षित सीटों पर देखें तो मांझी की पार्टी ने दलित वोटों को बेहतर तरीके से भुनाया। जबकि चिराग पासवान की एलजेपीआर उस समय खाली हाथ रह गई थी। इसके बावजूद चिराग की लोकप्रियता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, खासकर युवा दलित मतदाताओं के बीच उनकी पकड़ मजबूत है। लेकिन संख्या के लिहाज से मांझी ने अपने सीमित संसाधनों में भी अच्छा प्रदर्शन किया।
2015 में दलित पिच पर फिसला था एनडीए
2015 के विधानसभा चुनाव में चिराग और मांझी, दोनों एनडीए के साथ थे। इसके बावजूद एनडीए दलित राजनीति में पिछड़ गया था। उस चुनाव में आरजेडी-जेडीयू के महागठबंधन ने 40 में से 24 आरक्षित सीटों पर जीत दर्ज की थी। बीजेपी केवल 5 सीटें जीत पाई थी और मांझी की पार्टी को केवल 1 सीट मिली थी। विशेष बात यह थी कि मांझी खुद दो सीटों से चुनाव लड़े थे लेकिन मखदूमपुर सीट पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
2010 में कांग्रेस ने किया था चौंकाने वाला प्रदर्शन
2010 के चुनाव में जब जेडीयू ने सौ से ज्यादा सीटें जीती थीं, तब दलित वोटों की राजनीति में कांग्रेस ने चौंकाया था। कांग्रेस ने 18 आरक्षित सीटें जीतकर खुद को सबसे बड़े दलित प्रतिनिधि के तौर पर पेश किया था। यह उस समय की राजनीतिक तस्वीर को पूरी तरह बदल देने वाला आंकड़ा था।