श्रावण का महीना आते ही पूरे देश में शिव भक्ति की लहर दौड़ जाती है। इस पवित्र समय को लेकर एक गहरा अर्थ छिपा है जो शब्द "श्रवण" में निहित है। श्रवण का मतलब होता है सुनना और यही श्रावण शब्द की जड़ है। इस महीने की शुरुआत से ही भक्त भगवान शिव के भजनों, कथाओं और स्तुतियों को सुनते हैं और इसी सुनने के माध्यम से शिव की भक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
मां पार्वती को मिले शिव उपदेश से शुरू होती है भक्ति की राह
शिव पुराण की रुद्रसंहिता में बताया गया है कि भगवान शिव ने माता पार्वती को नौ प्रकार की भक्ति का उपदेश दिया था। यह उपदेश केवल एक ज्ञान नहीं था, बल्कि भक्ति की एक गहरी साधना थी, जो सिर्फ श्रवण और मनन से ही हृदय में उतरती है।
इन नौ भक्ति मार्गों में सबसे पहली भक्ति है मुख से भगवान का संकीर्तन करना। जब कोई व्यक्ति प्रेमपूर्वक भगवान शिव का नाम लेता है, तो वह स्वाभाविक रूप से भक्ति में प्रवेश कर जाता है।
दूसरी भक्ति है भगवान की कथा, संकीर्तन और गुणगान को कानों से सुनना। इस श्रवण भक्ति को सबसे सहज और प्रभावी माना गया है।
निर्भीकता से भक्ति करना भी है एक मार्ग
तीसरी भक्ति के रूप में भगवान शिव ने निर्भीक और शांतचित्त होकर भक्ति करने की बात कही। जब मन में कोई भय नहीं होता, तब साधक ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण कर पाता है।
चौथी भक्ति है दास्य भाव की। इसमें साधक अपने को शिव का सेवक मानकर मन ही मन सेवा करता है।
पूजन से लेकर सत्य बोलने तक का मार्ग भी भक्ति में शामिल
पांचवीं भक्ति में शिव ने कहा जो भी सामर्थ्य हो, उसी के अनुसार पूजन करना चाहिए। पंचोपचार या षोडषोपचार पूजन का विशेष महत्व बताया गया है।
छठी भक्ति है – मन, वचन और कर्म से ईश्वर की सेवा करना। इसमें सच्चे मन से भावपूर्ण उपासना, कल्याणकारी वाणी और श्रेष्ठ आचरण को भक्ति का हिस्सा माना गया है।
ईश्वर की इच्छा को स्वीकारना भी है भक्ति
सातवीं भक्ति के रूप में भगवान शिव ने समझाया कि जो भी ईश्वर हमारे लिए करते हैं, वह हमारे लिए शुभ ही होता है। इस भाव को मन में बसाकर भक्ति करना ही सच्ची आस्था है।
आठवीं भक्ति है जो कुछ भी जीवन में मिला है, उसे भगवान की कृपा मानकर उनके चरणों में समर्पित करना। यह भाव हमें संसार की माया से मुक्त करता है और ईश्वर के निकट ले जाता है।
श्रवण, श्रुति और शिव तीनों का गहरा संबंध
शब्द "श्रवण" संस्कृत के "श्रुति" से निकला है, जिसका अर्थ है सुनी हुई बात। वेदों को भी श्रुति कहा जाता है क्योंकि इन्हें सुनकर ही गुरु-शिष्य परंपरा में आगे बढ़ाया गया। शिव को वेदस्वरूप और श्रुति का मूल माना गया है। श्रावण में उनकी भक्ति करना, विशेषकर जल अर्पण के माध्यम से, इसीलिए अत्यंत फलदायक माना जाता है।
कहा जाता है कि श्रावण में जो भक्त शिव को जल चढ़ाता है, वह शिव की कृपा का पात्र बनता है। इस महीने में देवों के देव महादेव सबसे अधिक प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते हैं।
शिव का स्वरूप निराकार और विश्वरूप दोनों में है एकता
भगवान शिव का स्वरूप बेहद रहस्यमय है। वे एक ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हैं विश्वरूप और दूसरी ओर वे निराकार भी हैं, जो किसी रूप-सीमा में बंधते नहीं।
उनका कोई आदि नहीं, कोई अंत नहीं। वे ओंकार के मूल में स्थित हैं। ओम् की गूंज से जब कोई साधक ध्यान की अवस्था में प्रवेश करता है, तभी शिव के रहस्य को अनुभव कर पाता है।
ध्यान से ही होती है शिव तक पहुंच
कहते हैं कि शिव को समझना तर्क से नहीं, केवल ध्यान से संभव है। ध्यान यानी अपने भीतर उतरना, जहां शब्द नहीं होते, केवल मौन होता है। शिव मौन के देवता हैं, जिन तक पहुंचने के लिए शांति और एकाग्रता जरूरी है।
श्रावण का महीना हमें यही अवसर देता है अपने भीतर झांकने का, शिव को सुनने और समझने का। जब हम उनकी कथाओं, स्तुति और भजन को श्रद्धा से सुनते हैं, तो मन स्वतः ही उस ध्यान की ओर बढ़ने लगता है, जहां शिव का साक्षात्कार संभव है।
श्रावण में क्यों होती है शिव भक्ति की विशेष अनुभूति
यह महीना न केवल जल से जुड़ा है, बल्कि आत्मा की शुद्धि और शिव से एकाकार होने की साधना का समय भी है। चारों तरफ जब शिव की भक्ति में डूबे हुए स्वर गूंजते हैं, तो वातावरण ही नहीं, आत्मा भी जाग्रत होती है।
इसलिए श्रवण से शुरू हुआ यह श्रावण महीना हमें भीतर से जोड़ता है शिव से – केवल सुनकर, समझकर और अंततः ध्यान में उतरकर।