भारत त्योहारों की भूमि है, जहाँ प्रत्येक पर्व न केवल एक धार्मिक उत्सव होता है, बल्कि जीवन दर्शन, संस्कार और आध्यात्मिकता से भी जुड़ा होता है। इन्हीं पर्वों में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण, आस्था से परिपूर्ण और हर्षोल्लास से मनाया जाने वाला पर्व है — श्रीकृष्ण जन्माष्टमी। यह पर्व भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में पूरे भारतवर्ष में श्रद्धा, भक्ति और आनंद के साथ मनाया जाता है।
श्रीकृष्ण केवल एक धर्मगुरु नहीं, बल्कि एक जीवन पथ-प्रदर्शक, नीति के ज्ञाता, प्रेम के प्रतीक और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अवतरित ईश्वर माने जाते हैं। उनके जीवन के विभिन्न पहलू—बाल लीलाएँ, युवावस्था का प्रेम और युद्ध नीति, और भगवद्गीता का उपदेश—हमारे लिए आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।
श्रीकृष्ण जन्म की पौराणिक कथा
श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुआ था। श्रीमद्भागवत, विष्णुपुराण और हरिवंश पुराण में इस पावन जन्म की कथा का वर्णन मिलता है। मथुरा के राजा कंस अपनी बहन देवकी से अत्यंत स्नेह करता था, लेकिन जब आकाशवाणी हुई कि देवकी का आठवां पुत्र ही उसकी मृत्यु का कारण बनेगा, तो वह भयभीत हो गया।
कंस ने देवकी और उसके पति वासुदेव को बंदीगृह में डाल दिया और उनके जन्मे सभी बच्चों को निर्दयता से मार दिया। जब देवकी के गर्भ से आठवां पुत्र उत्पन्न हुआ, तब रात के अंधकार में चमत्कारिक रूप से वासुदेव ने नवजात शिशु को यमुना नदी पार कर गोकुल में नंद बाबा और यशोदा के पास पहुँचा दिया और उनकी नवजात कन्या को लेकर लौटा।
कंस ने उस कन्या को भी मारने का प्रयास किया, लेकिन वह दिव्य रूप में आकाश में चली गई और कंस को चेताया कि उसे मारने वाला बालक गोकुल में जन्म ले चुका है। यही बालक आगे चलकर भगवान श्रीकृष्ण के रूप में धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने वाला बना।
जन्माष्टमी का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व
श्रीकृष्ण केवल एक ऐतिहासिक या पौराणिक पात्र नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक हैं। उन्होंने जीवन के प्रत्येक पहलू को स्पर्श किया है — बाल्यकाल में शरारत, युवावस्था में प्रेम, और प्रौढ़ावस्था में नीति, युद्ध और धर्म की स्थापना।
उनका जीवन यह सिखाता है कि परिस्थितियाँ कैसी भी हों, धर्म का पालन करना और सत्य के मार्ग पर चलना ही श्रेष्ठ है। भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को उपदेश देकर ‘भगवद्गीता’ रूपी ग्रंथ दिया, जो आज भी आत्मज्ञान और कर्मयोग का सबसे बड़ा स्त्रोत माना जाता है।
जन्माष्टमी की परंपराएँ और पूजा विधि
जन्माष्टमी का पर्व भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। यह पर्व दो दिनों तक मनाया जा सकता है—एक दिन स्मार्तों (गृहस्थों) द्वारा और दूसरा दिन वैष्णवों (सन्यासियों और मंदिरों के भक्तों) द्वारा। व्रती भक्त इस दिन उपवास रखते हैं और रात्रि 12 बजे श्रीकृष्ण के जन्म के समय विशेष पूजा-अर्चना करते हैं।
- पूजा विधि में निम्नलिखित परंपराएँ शामिल होती हैं:
- झूला सजाना: बाल गोपाल को चांदी, सोने या लकड़ी के झूले में सजाया जाता है।
- मक्खन-मिश्री का भोग: श्रीकृष्ण को उनके प्रिय माखन-मिश्री, तुलसी पत्ता, फल और दूध से बने पकवान अर्पित किए जाते हैं।
- भजन-कीर्तन: दिनभर भक्ति संगीत, कीर्तन और कृष्ण लीला का आयोजन होता है।
- रात्रि जागरण: भक्त पूरी रात श्रीकृष्ण की बाल लीलाएँ गाकर और सुनकर जागरण करते हैं।
- मटकी फोड़ (दही-हांडी): विशेषकर महाराष्ट्र में युवा मंडल श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को दोहराते हुए मटकी फोड़ प्रतियोगिता का आयोजन करते हैं।
श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन
भगवान श्रीकृष्ण का जीवन केवल चमत्कारों की गाथा नहीं, बल्कि एक पूर्ण जीवन जीने की कला है। उनका संदेश कर्म, प्रेम, नीतिपरायणता और आत्मज्ञान पर आधारित है।
- कर्म का संदेश
- भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा—
- "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
- अर्थात् व्यक्ति को केवल कर्म करना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।
- प्रेम का प्रतीक
- राधा और कृष्ण का प्रेम केवल लौकिक नहीं, आध्यात्मिक प्रेम का प्रतीक है। वह प्रेम जिसमें अपेक्षा नहीं, केवल समर्पण होता है।
- नीति और कूटनीति के ज्ञाता
- महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने नीति और रणनीति का ऐसा परिचय दिया जो आज भी राजनीति, युद्धनीति और नेतृत्व के क्षेत्र में अद्वितीय माना जाता है।
- बाल लीलाएँ: मासूमियत और चतुराई का संगम
- बाल कृष्ण की लीलाएँ—माखन चुराना, गोपियों से छेड़छाड़, कालिया नाग का दमन—सभी हमें यह सिखाते हैं कि जीवन में सरलता, चंचलता और न्याय का संतुलन होना चाहिए।
समाज और संस्कृति पर कृष्ण का प्रभाव
भारत की कला, साहित्य, संगीत और नृत्य में श्रीकृष्ण की गहरी छवि देखने को मिलती है। कथक, ओडिसी, मणिपुरी, भरतनाट्यम जैसे नृत्य-शैलियों में कृष्ण की लीलाओं को प्रमुख स्थान प्राप्त है। सूरदास, मीरा, रसखान जैसे भक्तों ने कृष्ण के जीवन को अपने भजनों और कविताओं में समर्पित किया है।
आज के समय में श्रीकृष्ण की प्रासंगिकता
आज के आधुनिक युग में भी श्रीकृष्ण का जीवन और शिक्षाएँ उतनी ही प्रासंगिक हैं। जब समाज में संघर्ष, असत्य, और अन्याय बढ़ रहा है, तब कृष्ण का संदेश — "धर्म की रक्षा के लिए मुझे जन्म लेना पड़ेगा" — हमें न्याय और सच्चाई के लिए खड़ा होना सिखाता है।
आज के युवाओं के लिए श्रीकृष्ण एक प्रेरणादायक नेतृत्वकर्ता हैं, जिनमें बुद्धिमत्ता, संवेदनशीलता, कर्मनिष्ठा और नैतिकता का अद्भुत संतुलन देखने को मिलता है। उनके जीवन से यह सीख मिलती है कि कठिन परिस्थितियों में भी विवेकपूर्ण निर्णय कैसे लिए जाएँ, रिश्तों में सच्चा प्रेम कैसे निभाया जाए, और जीवन में संतुलन बनाए रखते हुए धर्म के मार्ग पर कैसे चला जाए।
जन्माष्टमी और वैश्विक पर्व
भारत के साथ-साथ विदेशों में भी जन्माष्टमी बड़े धूमधाम से मनाई जाती है, विशेषकर जहाँ ISKCON (इस्कॉन) जैसे संगठन सक्रिय हैं। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका जैसे देशों में लाखों लोग श्रीकृष्ण के भक्त हैं। यह उनके संदेश की वैश्विक स्वीकार्यता का प्रमाण है।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि जीवन दर्शन का उत्सव है। यह पर्व हमें बताता है कि जब अन्याय बढ़ता है, तब ईश्वर किसी न किसी रूप में प्रकट होते हैं। श्रीकृष्ण का जीवन संघर्ष, प्रेम, नीति, भक्ति और ज्ञान का अद्वितीय संगम है।
इस जन्माष्टमी पर हमें केवल झूले सजाने या भोग लगाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि श्रीकृष्ण के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाना चाहिए। सत्य, धर्म, प्रेम और कर्म की राह पर चलना ही श्रीकृष्ण को सच्ची श्रद्धांजलि है।