उत्तरी कश्मीर में लोकतंत्र का माहौल बदल रहा है, जहां लोग अब बेखौफ होकर चुनावों में भाग ले रहे हैं। आतंक के गढ़ माने जाने वाले इस क्षेत्र में लोग लोकतंत्र का जश्न मना रहे हैं, और चुनावी प्रक्रिया में सक्रियता बढ़ रही है। पहले जो क्षेत्र आतंकवाद के लिए जाना जाता था, अब वहां नागरिकों में राजनीतिक भागीदारी की भावना प्रबल हो रही हैं।
श्रीनगर: उत्तरी कश्मीर में अब बदलाव के संकेत स्पष्ट हैं। सूरज ढलने पर सन्नाटा छाने के दिन बीत गए हैं। बारामुला, कुपवाड़ा और बांडीपोर में लोग बेखौफ घूम रहे हैं, और पारंपरिक कश्मीरी रौफ नृत्य का जश्न मनाते नजर आ रहे हैं। बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग मिलकर लोकतंत्र के इस महोत्सव में भाग ले रहे हैं, जो दिखाता है कि यह क्षेत्र अब आतंक का नहीं, बल्कि लोकतंत्र का गढ़ बन गया हैं।
उत्तरी कश्मीर के तीनों जिले नियंत्रण रेखा के निकट स्थित हैं, जिससे ये क्षेत्र आतंकियों के लिए घुसपैठ का मुख्य रास्ता बने रहे हैं। गुरेज, टंगडार, करनाह, कुपवाड़ा और सोपोर जैसे इलाके अलगाववादियों के गढ़ के रूप में कुख्यात रहे हैं। इसलिए उत्तरी कश्मीर को लंबे समय से आतंक का प्रवेश द्वार माना जाता था।
लोकतंत्र ने बदला उत्तरी कश्मीर का माहौल
बता दें पिछले पांच वर्षों में उत्तरी कश्मीर का माहौल पूरी तरह बदल गया है। अब युवाओं को आतंकवाद की ओर प्रेरित करने वाले तत्व गायब हैं, और वे लोकतंत्र के प्रति जागरूक हैं। वे ईमानदार और मेहनती उम्मीदवारों का चयन करने के लिए दूसरों को प्रेरित कर रहे हैं। जम्मू कश्मीर में 1 अक्टूबर को 40 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान होना है, जिनमें से 16 उत्तरी कश्मीर में हैं, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी का संकेत हैं।
उत्तरी कश्मीर में कट्टरपंथी नेताओं का इतिहास रहा है। सैयद अली शाह गिलानी, आतंकी अफजल गुरु, और मकबूल बट जैसे व्यक्तियों ने यहां आतंकवादी हिंसा और अलगाववाद को बढ़ावा दिया। हिजबुल मुजाहिदीन के पहले कमांडर, मास्टर अहसान डार, भी इसी क्षेत्र से थे। इन सभी का संबंध सोपोर और उसके आसपास के क्षेत्रों से था, जो आतंकवाद का गढ़ माने जाते थे। यह ऐतिहासिक संदर्भ आज के लोकतांत्रिक बदलावों को और महत्वपूर्ण बनाता हैं।
मीर इमरान ने चुनाव को लेकर कही ये बात
कश्मीर मामलों के जानकार मीर इमरान के अनुसार, हुर्रियत से जुड़े नेताओं और पूर्व आतंकियों के चुनावी मैदान में उतरना एक सकारात्मक संकेत है। पहले बहिष्कार की प्रवृत्ति थी, लेकिन अब मुख्यधारा में शामिल होकर चुनाव लड़े जा रहे हैं। कुपवाड़ा में एक युवा मतदाता जुबैर ने पहली बार वोट डालने की उम्मीद जताई है, यह दर्शाते हुए कि नए नेतृत्व से उनकी आकांक्षाएं जुड़ी हैं। यह बदलाव उत्तरी कश्मीर में लोकतंत्र की वापसी का प्रतीक हैं।
गुलाम हसन और सकीना बेगम के विचारों में क्षेत्र के गंभीर मुद्दों की झलक मिलती है, जैसे कि सर्दियों में बिजली की किल्लत और स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता। ये समस्याएं उन लोगों के जीवन पर गहरा प्रभाव डालती हैं जो नियंत्रण
रेखा (एलओसी) के निकट रहते हैं। इरफान अहमद की बातों में चुनाव की अहमियत को भी रेखांकित किया गया है। उनका यह कहना कि "बंदूक ने हमें कुछ नहीं दिया" यह दर्शाता है कि स्थानीय लोग शांति और विकास की चाह रखते हैं, बजाय कि हिंसा और संघर्ष के। उनका राज्य का दर्जा वापस पाने की मांग इस बात का संकेत है कि वे राजनीतिक स्थिरता और अपनी पहचान की सुरक्षा चाहते हैं।
अनुच्छेद 370 और 35A के संदर्भ में लोगों की भावनाएं भी महत्वपूर्ण हैं। ये धाराएं उनकी पहचान और संस्कृति से जुड़ी हैं, और जब संसद ने इन्हें हटाया, तो लोगों का विश्वास है कि उनके अधिकार और पहचान फिर से बहाल करने का काम संसद ही कर सकती है। इन टिप्पणियों से यह स्पष्ट है कि क्षेत्र के लोग न केवल बुनियादी सुविधाओं के लिए बल्कि अपने अधिकारों और पहचान के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं।