इजराइल के लोगों ने मंगलवार को एक बार फिर मतदान किया. पिछले लगभग चार सालों में देश में चुनाव का ये पांचवां मौका है. बार बार चुनावों के कारण लोगों को सरकार की स्थिरता और काबिलियत को लेकर चिंता बढ़ गई है.
इस साल अप्रैल में नफ़्ताली बेनेट की सरकार गिरी और निर्धारित समय से तीन साल पहले ही चुनाव की नौबत आ गई. संसद को भंग किया गया और यार लापिड को प्रधानमंत्री चुना गय़ा.
नेतन्याहू लौटेंगे?
29 छोटे दल इस बार इजराइल के चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं. इस बार दो लोगों के बीच कड़ी टक्कर का अनुमान है - पूर्व प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और मौजूदा प्रधानमंत्री यार लैपिड.
पिछले शुक्रवार को इजराइली मीडिया के एक पोल के मुताबिक नेतन्याहू की लिकुड पार्टी बढ़त बनाते दिख रही है.
ज़्यादातर पोल इशारा कर रहे हैं कि नेतन्याहू की पार्टी 30 सीटें लाने में कामयाब हो सकती है. लिकुड के सहयोगियों को मिलाया जाए, तो ये संख्या 60 तक पहुंच सकती है.
इजराइल की संसद में 120 सीटें हैं और 61 सीटों वाली पार्टी या गठबंधन सरकार बना सकता है. प्रधानमंत्री लापिड की येश-एटिड पार्टी को 27 सीटें मिलने का अनुमान जताया जा रहा है. सहयोगियों को मिलाकर वो कुल 57 सीटें हासिल कर सकते हैं.
इस चुनाव की सबसे ख़ास बात ये है कि इस बार धुर दक्षिणपंथी दल सत्ता में आ सकते हैं, पोल बताते हैं कि धार्मिक ज़ायोनिस्ट, जो कि नेतन्याहू के कथित समर्थक हैं, वो 15 सीटों के साथ तीसरी पार्टी के तौर पर संसद में प्रवेश कर सकते हैं.
वहीं दूसरी ओर उदारवादी बेनी गांट्स की नेशनल यूनियन पार्टी दस सीटों के साथ चौथे स्थान पर आ सकती है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर नेतन्याहू के गठबंधन को 61 सीटें मिल गईं, तो वो फिर से प्रधानमंत्री बन सकते हैं.
अगर ऐसा नहीं हुआ, तो उन्हें दूसरी पार्टियों को अपने साथ आने के लिए मनाना होगा. नेतन्याहू के आलोचकों का कहना है कि सत्ता में उनकी वापसी हुई तो वो अपने ख़िलाफ़ लगे आरोपों की न्यायिक जांच की प्रक्रिया पर लगाम लगाने की कोशिश करेंगे.
अगर कोई गठबंधन नहीं बनता है तो, लापिड कुछ दक्षिणपंथी दलों से साथ-साथ अरबी प्रतिनिधियों को अपने तरफ़ खींचने की कोशिश करेंगे. लेकिन अगर वो भी असफल रहे, तो इजराइल को फिर से चुनावों की तैयारी करनी पड़ेगी.
क्या रहे चुनावी मुद्दे?
चुनाव को लेकर दोनों प्रतिद्वंदियों के बीच करीबी मुकाबला दिख रहा है, वहीं कई मतदाता राजनीतिक अस्थिरता को लेकर चिंतित हैं. येरूशलम पोस्ट से जुड़े विश्लेषक एलियाव ब्रेवर कहते हैं, "मतदाताओं के लिए स्थिरता स्थापित करना और अराजकता ख़त्म करना सबसे अहम मुद्दों में से एक है.
वहीं जून में जब चुनाव हो रहे थे तो जनता और सरकार के समक्ष बढ़ती महंगाई और मुद्रास्फीति अहम मुद्दे थे.
लेकिन हाल के हफ़्तों में इजराइल के ख़िलाफ फिलिस्तीनी हमलों में हुई बढ़ोतरी के कारण, चुनावों में सुरक्षा का मुद्दा भी अहम हो गया. ताज़ा मामले की बात करें तो फिलिस्तीन ने वेस्ट बैंक में ज़ेरेका के पास एक कार से इजराइली सैनिकों पर हमला किया था. पांच सैनिकों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था.
पिछले दिनों बढ़े तनाव ने बेन गुएर जैसे धार्मिक नेताओं की लोकप्रियता बढ़ा दी है. बेन गुएर ने पहले इजराइल का विरोध करने वाले फिलिस्तीनीओं को बाहर निकालने की अपील की थी, साथ ही अरबी सांसदों के लिए ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाते थे. अब वो पब्लिक सिक्युरिटी मंत्री बनना चाहते हैं.
येरुशलम पोस्ट के विश्लेषक इलिआव ब्रिवर कहते हैं कि धुर दक्षिणपंथियों का वर्चस्व इसलिए बढ़ता दिख रहा है क्योंकि मौजूदा गठबंधन सरकार में अरब प्रतिनिधियों की मौजूदगी है.
ब्रिवर के मुताबिक, "पिछले डेढ़ सालों में पहली बार हमने इजराइली अरब पार्टी को सरकार में देखा है. कट्टरपंथी यहूदी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं और दावा करते हैं कि अरबों की मौजूदगी सुरक्षा के लिए ख़तरा है. हिंसा बढ़ने के बाद वो आरोप लगाते हैं कि सरकार ने ठीक से काम नहीं किया."