पिछले तीन दशकों से किसानों की आत्महत्या भारत में एक गंभीर राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा रही है, और हर चुनाव में किसानों के मुद्दे सत्ताधारी दलों पर बड़ा असर डालते आए हैं। हाल के वर्षों में, विशेष रूप से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में प्याज, सोयाबीन और कपास जैसे फसलों के उत्पादन में संकट ने किसानों की स्थिति को और भी जटिल बना दिया हैं।
मुंबई: महाराष्ट्र की राजनीति में किसानों की आत्महत्या एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा रही है, जो पिछले तीन दशकों से चुनावी अभियानों और नीतिगत बहसों का केंद्र रहा है। राज्य में कपास, सोयाबीन और प्याज जैसी फसलों पर निर्भर किसान, सूखे, अनियमित बारिश और बाजार में मूल्य अस्थिरता के कारण गंभीर संकटों का सामना करते रहे हैं। इससे आत्महत्या के मामले बढ़े हैं, जिससे यह मुद्दा राजनीतिक रूप से और भी संवेदनशील बन गया हैं।
पिछले लोकसभा चुनाव में, प्याज निर्यात पर प्रतिबंध से किसानों में गहरी नाराजगी देखी गई थी। प्याज के दाम गिरने से महाराष्ट्र के प्याज उत्पादक किसान आर्थिक संकट में आ गए थे, और इसका असर चुनाव में राजग गठबंधन (NDA) पर पड़ा था। राज्य की अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान है, इसलिए यहां के किसान मुद्दों पर सरकार की नीतियों और निर्णयों का सीधा प्रभाव पड़ता हैं।
किसान वोटर्स लगाएंगे MVA की नैया पार
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले कपास और सोयाबीन किसानों के मुद्दे राजनीति के केंद्र में आ गए हैं। विदर्भ, मराठवाड़ा और उत्तर महाराष्ट्र में कपास की खेती मुख्यतः किसान समुदाय के लिए आय का प्रमुख स्रोत है, और यहां के 40 लाख से अधिक कपास किसान लगातार चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। किसान प्रमोद जाधव और विदर्भ जनांदोलन समिति के संस्थापक किशोर तिवारी का मानना है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कीमतों को नियंत्रित करने की अनुमति किसानों की स्थिति को और खराब कर रही हैं।
शिंदे सरकार की ‘माझी लाडकी बहिन योजना’ के खिलाफ बढ़ती नाराजगी भी किसानों के बीच असंतोष का कारण बनी हुई है। विपक्षी पार्टियों, खासकर कांग्रेस, ने इस योजना को किसानों के मुद्दों से ध्यान हटाने के प्रयास के रूप में देखा है। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव रमेश चेन्निथला ने केंद्र सरकार की आयात-निर्यात नीतियों की आलोचना की है, उनका कहना है कि इन नीतियों की वजह से किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है। विशेष रूप से, प्याज, कपास और सोयाबीन की फसल के दाम कम हैं जबकि उनकी लागत और मांग अधिक हैं।
इस तरह, महाराष्ट्र चुनाव में कपास और सोयाबीन की फसल का उचित मूल्य और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हस्तक्षेप का विरोध एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनता दिखाई दे रहा है, और विपक्ष इसे शिंदे सरकार को घेरने के लिए प्रमुख हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा हैं।
विपक्ष ने उठाया किसानों का मुद्दा
महाराष्ट्र में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले किसानों के मुद्दे पर राजनीतिक दलों के बीच तीखी बहस छिड़ी हुई है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले ने केंद्र और राज्य सरकारों पर किसानों की अनदेखी का आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री मोदी से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी पर ध्यान देने का आग्रह किया है। पटोले का कहना है कि कपास और अन्य फसलों के किसानों को न केवल बेमौसम बारिश, बल्कि उच्च इनपुट लागत और 12-18 प्रतिशत जीएसटी की वजह से भारी आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा हैं।
विपक्ष का यह आक्रामक रुख किसान संगठनों द्वारा उठाई जा रही मांगों से और मजबूत हो रहा है। किसान मजदूर आयोग (केएमसी) और नेशन फॉर फार्मर्स (एनओएफ) जैसे संगठनों ने मांग की है कि नई सरकार को आत्महत्या प्रभावित किसानों के परिवारों का सभी बकाया कृषि ऋण माफ करना चाहिए। इसके अलावा, ये संगठन आत्महत्या प्रभावित परिवारों के बच्चों को शिक्षा और अन्य अवसर प्रदान करने की भी मांग कर रहे हैं। साथ ही, वे शेतकरी (किसान) कामगार आयोग या कृषि कल्याण आयोग की स्थापना का अनुरोध कर रहे हैं, जिसमें स्वतंत्र कृषि विशेषज्ञ और सरकारी अधिकारी शामिल हों, ताकि किसानों के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जा सके।
इस बीच, भाजपा ने विपक्ष के आरोपों का खंडन किया है। प्रदेश भाजपा प्रवक्ता अजय पाठक का कहना है कि किसानों को पीएम किसान सम्मान निधि योजना और नमो शेतकरी महासम्मान निधि योजना के तहत 12,000 रुपये की वार्षिक आर्थिक सहायता मिल रही है। इसके अलावा, प्राकृतिक आपदाओं के समय महाराष्ट्र सरकार ने अनुग्रह राशि और राहत पैकेज के जरिए भी किसानों की सहायता की है। भाजपा का दावा है कि उनकी सरकार ने हमेशा किसानों का ध्यान रखा है और उनके हितों के लिए कई योजनाएं चलाई हैं।