आजादी के बाद, देश में पहली बार साल 1951-52 में आम चुनाव आयोजित किए गए थे, जिसमें लोकसभा के साथ राज्यों की विधानसभाओं के भी चुनाव शामिल थे। यह व्यवस्था 1967 तक जारी रही।
One Nation One Election: आजादी के बाद, पहली बार देश में आम चुनाव 1951-52 में हुए थे, जब लोकसभा के साथ ही राज्यों की विधानसभाओं के भी चुनाव आयोजित किए गए। यह सिलसिला साल 1967 तक जारी रहा, जब इंदिरा गांधी के राजनीतिक फैसलों ने इस परंपरा को तोड़ दिया। सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार एक देश-एक चुनाव की परंपरा को पुनर्जीवित कर पाएंगे, जो आज भी एक बड़ी राजनीतिक और संवैधानिक चुनौती बनी हुई है।
1952 से 1967 तक का चुनाव सिलसिला
1952 से 1967 तक, देश में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे थे। यह व्यवस्था भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का प्रतीक थी, जिसमें सभी चुनाव एक साथ आयोजित होते थे, जिससे राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित होती थी। खासकर, 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए थे। हालांकि, इस बीच एक अपवाद था, वह था केरल, जहां 1959 में चुनी गई सरकार को इंदिरा गांधी ने भंग कर दिया था। 1960 में फिर से केरल में विधानसभा चुनाव हुए और 1962 में देश में अन्य राज्यों के साथ लोकसभा चुनाव हुए, लेकिन केरल में चुनाव नहीं हुए क्योंकि वहां सरकार ने केवल दो साल ही काम किया था।
1967 में क्यों टूट गई परंपरा?
1964 में, जब केरल में राष्ट्रपति शासन लागू हुआ, इसके बाद 1965 में चुनाव हुए, लेकिन कोई सरकार नहीं बनी। फिर 1967 में, जब पूरे देश में एक साथ चुनाव हुए, केरल में भी विधानसभाओं के चुनाव आयोजित किए गए। लेकिन इंदिरा गांधी के निर्णयों ने इसे बदल दिया। उन्होंने उत्तर प्रदेश, पंजाब और पश्चिम बंगाल में चुनी हुई सरकारों को भंग कर दिया और वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। इसके बाद इन राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव अलग से होने लगे। इंदिरा गांधी ने लोकसभा के चुनाव भी पहले ही 1971 में करवाए, जो कि निर्धारित 1972 के बजाय एक साल पहले हुए थे। यह बदलाव देश में एक देश-एक चुनाव की परंपरा को कमजोर कर गया।
चुनाव आयोग और लॉ कमीशन की सिफारिशें
1983 में चुनाव आयोग ने एक देश-एक चुनाव की संभावना पर रिपोर्ट दी, लेकिन वह भी असफल रही। इसके बाद 1999 में जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अगुवाई में लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने अपनी 170वीं रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें एक देश-एक चुनाव की सिफारिश की गई थी। 2015 में पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ने भी इसे एक समझौते के रूप में आगे बढ़ाने का सुझाव दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में लाल किले से अपने भाषण में एक देश-एक चुनाव की मांग की, और 2018 में नीति आयोग ने भी इस विचार का समर्थन किया। इन सिफारिशों के बावजूद, इसे लागू करने में राजनीतिक और संवैधानिक चुनौतियां बनी रहीं।
संविधान संशोधन विधेयक पर उम्मीद
अब 2024 में संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया है, जिसका उद्देश्य एक देश-एक चुनाव की परंपरा को पुनर्जीवित करना है। केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने 17 दिसंबर को इसे लोकसभा में पेश किया। इस विधेयक को कानून बनाने की प्रक्रिया कठिन है क्योंकि इसके लिए लोकसभा और राज्यसभा दोनों में दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी। फिलहाल, बीजेपी के पास यह संख्या नहीं है, जिससे यह आशंका है कि इस बार भी एक देश-एक चुनाव की बात केवल विचारों में ही सिमट सकती है। इसके अलावा, यह विधेयक संविधान संशोधन विधेयक है, जिसके कानून बनने की संभावना फिलहाल अज्ञात है।
आज की राजनीति में एक देश-एक चुनाव की अहमियत
इंदिरा गांधी के फैसलों ने एक देश-एक चुनाव की परंपरा को तोड़ दिया, लेकिन अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार इसे फिर से स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह योजना देश की राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक विकास और बेहतर प्रशासनिक कार्यवाही के लिए एक अहम कदम हो सकता है। लेकिन, चुनाव आयोग, नीति आयोग और लॉ कमीशन की रिपोर्ट के बावजूद इस मुद्दे पर सहमति बनाना चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक देश-एक चुनाव का मुद्दा अब तक एक सपना ही रहा है, और इसे साकार करने के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ-साथ संवैधानिक संकल्प की भी आवश्यकता होगी।