रमेश एक दिन अपने प्रिय समाचार पत्र में पढ़ता है कि उसकी पसंदीदा पुस्तकों की प्रदर्शनी लगने वाली है। उसका मन करता है कि वह इस प्रदर्शनी में जाए और वहां से अच्छी किताबें खरीद कर लाए। लेकिन थोड़ी देर बाद, उसने सोचा, "मेरे पास तो पैसे नहीं हैं, बस पांच सौ रुपये ही तो पड़े हैं। अगर इन्हें खर्च कर दिया तो क्या होगा?" फिर उसने सोचा, "अगर मैं प्रदर्शनी में गया तो मन ललचाएगा, और फिर किताबें खरीदने का क्या फायदा?"
रमेश की एक यात्रा
यह सोचकर उसने फैसला किया कि भले ही वह किताबें खरीदने में सक्षम न हो, लेकिन वह प्रदर्शनी में जाकर अपनी पसंदीदा किताबों की एक झलक तो देख सकता है। इसके अलावा, उसे तो नई किताबों और लेखकों के बारे में जानकारी भी मिलेगी। इस विचार से वह पुस्तक मेले की ओर चल पड़ा।
पुस्तक मेले में उसने चारों ओर नज़र डाली। हजारों किताबें हर दिशा में बिखरी पड़ी थीं। उसकी आंखों में चमक आ गई, और मन में एक इच्छा जागृत हुई कि वह इन सारी किताबों को खरीद ले। लेकिन जैसे ही उसने अपनी जेब में हाथ डाला, उसका दिल डर से धड़कने लगा। "नहीं, इस पांच सौ रुपये को खर्च नहीं करना चाहिए," उसने सोचा।
हालांकि, जब भी उसकी नजरें किताबों पर जातीं, वह ललचाने लगता। किताबों की सुगंध उसे बहुत भाती थी। उसने एक किताब उठाई, उसे खोला, और गहरी सांस लेकर उस पुस्तक की खुशबू को आत्मसात कर लिया।
तभी एक सेल्समैन ने उसे टोका, "क्या कर रहे हो? ये पुस्तकें हैं, फूल नहीं!" रमेश का मन हुआ कि वह इस सेल्समैन से कहे, "भाई, तुम्हें ये किताबें मामूली लगती होंगी, लेकिन मेरे लिए ये मेरी आत्मा को तृप्त करने वाली हैं।" लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
उसका विवेक उससे बोला, "ये रुष्ट होने की बात नहीं है, सेल्समैन का काम किताबों की देखभाल करना है, और तुम क्या कर रहे हो, वह भी बचकानी हरकतें!" उसने चुपचाप उस स्टाल से बढ़ने का निर्णय लिया।
वह बार-बार अपनी जेब से पांच रुपये के नोट को निकालता और किताबों की ओर देखता। वह सोचता, "क्या मैं किताब खरीदूं या नहीं?" उसने कई बार अपने नोट को घुमा-घुमा कर देखा।
इसी बीच उसकी नजर दीवारों पर लगी बड़ी-बड़ी पोस्टरों और बैनरों पर पड़ी, जिन पर लिखा था: "हमें किताबें पढ़नी चाहिए, किताबों का संग्रह करें।" यह देखकर उसने सोचा, "किताबें तो चंदन की लकड़ी की तरह हैं, जो सुगंधित होती हैं।"
फिर उसकी नजर एक बड़े अधिकारी पर पड़ी, जिसने सेल्समैनों को निर्देश दिए थे। रमेश ने सोचा, "मैं उस अधिकारी से बात करूंगा, शायद वह मुझे पुस्तकें दिलवाए।" अधिकारी ने उसे बताया, "जो किताबें आप मांग रहे थे, वे उपलब्ध नहीं हैं, वे केवल पुस्तकालय में मिल सकती हैं।"
रमेश ने कहा, "पुस्तकालय मेरे घर से बहुत दूर है।" अधिकारी ने कहा, "तो आपको शाही ठाठ चाहिए!" रमेश ने आत्मविश्वास से जवाब दिया, "नहीं, मुझे घर के पास ही पुस्तकालय चाहिए।"
अचानक उसे याद आया कि उसके पास सिर्फ पांच सौ रुपये हैं, और वह जेब में हाथ डालते हुए कुछ सोचने लगा।
इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि
जीवन में कठिनाइयाँ और सीमाएँ हमेशा आती रहती हैं। लेकिन हमें धैर्य और समझदारी से निर्णय लेने चाहिए। हमें अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए हर परिस्थिति में सोच-समझ कर कदम बढ़ाना चाहिए। ज्ञान की प्राप्ति और पुस्तक प्रेम के लिए हमें हर हाल में कोशिश करनी चाहिए।