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लिपुलेख दर्रा विवाद: नेपाल ने क्यों जताई भारत-चीन व्यापार पर आपत्ति, MEA ने दिया कड़ा जवाब

लिपुलेख दर्रा विवाद: नेपाल ने क्यों जताई भारत-चीन व्यापार पर आपत्ति, MEA ने दिया कड़ा जवाब

भारत और चीन के बीच लंबे समय से व्यापारिक मार्ग के रूप में इस्तेमाल हो रहा लिपुलेख दर्रा इस समय सुर्खियों में है। हाल ही में नेपाल ने इस दर्रे के जरिए भारत-चीन व्यापार पर आपत्ति जताई, जिसे भारत के विदेश मंत्रालय (MEA) ने सिरे से खारिज कर दिया। 

नई दिल्ली: भारत के विदेश मंत्रालय ने बुधवार को नेपाल की उन चिंताओं को सिरे से खारिज कर दिया, जिसमें पड़ोसी देश ने लिपुलेख दर्रे से भारत-चीन के बीच होने वाले कारोबार को लेकर आपत्ति जताई थी। दरअसल, लिपुलेख दर्रा लंबे समय से भारत और चीन के बीच व्यापार मार्ग के रूप में इस्तेमाल होता रहा है। 

हालांकि, 2020 में सीमा पर टकराव और फिर कोरोना महामारी के बाद से इस क्षेत्र से दोनों देशों के बीच व्यापार रुका हुआ था। अब जब भारत और चीन ने इस मार्ग से फिर से व्यापार शुरू करने पर सहमति दी है, तो नेपाल ने इस मुद्दे को उठाया।

लिपुलेख दर्रा क्या है और कहां स्थित है?

लिपुलेख दर्रा उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित है और यह नेपाल की सीमा से सटा हुआ है। समुद्र तल से लगभग 17,000 फीट की ऊंचाई पर यह हिमालय के बीच स्थित है। यह दर्रा न केवल व्यापार मार्ग के रूप में महत्वपूर्ण है, बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी इसकी अहमियत है। हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायी इसे कैलाश मानसरोवर जाने के लिए पारंपरिक मार्ग मानते हैं।

इसके अलावा, कूटनीतिक और सैन्य दृष्टि से भी यह दर्रा भारत के लिए अहम है। भारत-चीन सीमा पर सड़क कनेक्टिविटी और सैन्य लॉजिस्टिक्स के लिहाज से यह मार्ग रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है।

नेपाल की आपत्ति: क्या कहा गया?

नेपाल ने दावा किया है कि कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख क्षेत्र महाकाली नदी के पूर्व में स्थित हैं और ऐतिहासिक रूप से नेपाल का हिस्सा रहे हैं। उनका कहना है कि ये क्षेत्र उनके अधिकारिक नक्शे और संविधान में शामिल हैं। नेपाल ने भारत और चीन से अपील की कि इस दर्रे से व्यापार न किया जाए। हालांकि, भारत ने इसे खारिज करते हुए कहा कि नेपाल के दावे न्यायसंगत या ऐतिहासिक प्रमाणों पर आधारित नहीं हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा कि यह व्यापार 1954 से चलता रहा है और हाल के वर्षों में केवल कोविड-19 और अन्य कारणों से बाधित हुआ था।

लिपुलेख दर्रे का इतिहास

1814-16 में अंग्रेजों और नेपाल के बीच युद्ध हुआ। इसके बाद 1816 में सुगौली संधि के अनुच्छेद 5 के तहत नेपाल को काली नदी (महाकाली नदी) के उत्तर-पश्चिम में स्थित क्षेत्रों का नियंत्रण ईस्ट इंडिया कंपनी को देना पड़ा। ब्रिटिश शासनकाल में भारत के नक्शों में काली नदी को भारत-नेपाल सीमा के रूप में दिखाया गया।

1962 में भारत-चीन युद्ध से पहले नेपाल सरकार ने कालापानी, गुंजी, नभी और कुती में जनगणना की थी और यहां राजस्व वसूला। युद्ध के बाद भारत ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में नेपाल से इन इलाकों के इस्तेमाल की अनुमति ली। इसके बाद भारतीय सेना ने इस क्षेत्र में बेस और सड़क कनेक्टिविटी स्थापित की।

नेपाल का यह क्षेत्र धार्मिक दृष्टि से कैलाश मानसरोवर तक पहुंच का मार्ग भी है। भारत के उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र और तिब्बत के तकलाकोट को जोड़ने के लिए यह दर्रा अहम है।

भारत-चीन व्यापार और नेपाल की आपत्ति

भारत का कहना है कि लिपुलेख दर्रे से भारत-चीन का व्यापार 1954 से लगातार चलता रहा है। 2020 में सड़क निर्माण और कोविड-19 के कारण कुछ समय के लिए व्यापार रुका था। हाल ही में जब भारत-चीन ने व्यापार फिर से शुरू करने की सहमति दी, तो नेपाल ने विरोध जताया। नेपाल पहले भी समय-समय पर इस मुद्दे को उठाता रहा है। 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा व्यापार बढ़ाने की पहल पर नेपाल ने संसद और सड़क स्तर पर विरोध दर्ज कराया था। 

2020 में भारत ने लिपुलेख पास तक 80 किलोमीटर लंबी सड़क बनाई, जिसका उद्घाटन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने किया। नेपाल ने इसे भी सीमा विवाद सुलझाने के द्विपक्षीय समझौते का उल्लंघन बताया था। भारत ने साफ कहा कि लिपुलेख दर्रा भौगोलिक और ऐतिहासिक रूप से भारत का हिस्सा है। विदेश मंत्रालय ने यह भी कहा कि नेपाल के क्षेत्रीय दावे केवल एकतरफा और बनावटी हैं। भारत नेपाल के साथ सभी सीमा विवादों को कूटनीतिक वार्ता के माध्यम से सुलझाने के लिए हमेशा तैयार है।

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